'कपि: कूर्दते शाखायाम्’ : बाल साहित्य सर्जना का
स्तुत्य प्रयास
युवाकवि और लेखक डॉ.ऋषिराज
जानी का अद्यतन प्रकाशित बालगीत संग्रह है 'कपि: कूर्दते शाखायाम्’। सुमुद्रण, आकर्षक आवरण, चित्रात्मकता से संबंलित एवं
बालमनोविज्ञानाधारित काव्याभिव्यक्ति वाली यह कृति खूशबू प्रकाशन, अहमदाबाद की प्रस्तुति है । इसकी 35 (1.गणेश: 2.रोचते 3.रम्यं विश्वम्
4.गजराज: 5.चटका: प्रति गीतम् 6.क्रीडा मे रोचते 7.वयं विहगा: (अभिनयगीतम्) 8.मम
कुटुम्बम् (टुप् कविता) 9.गङ्गा 10.हिमालय: 11.भोजनम् 12.मृगराजोऽहम् 13.कपि कूर्दते शाखायाम् 14.प्रयान्ति बटुका: 15.ग्राममन्दिरे 16.शिक्षक:
कीदृश: ? (अभिनयगीतम्) 17.नवक्रीडागीतम् 18.क: किं करोति ?
19.संवत्सर: 20.दीपावली 21.निदाघ: 22.शीतकाल: 23.निम्ब: 24.वटवृक्ष:
25.आम्रवृक्ष: 26.पिपीलिका 27.देवतानां
परिचय: 28.सन्धि-क्रीडा 29.प्रश्नकाव्यम् 30.विहगवृन्दम् 31.जानन्तु माम्
32.समस्यापूर्ति: 33.लघुके लघुके मे नेत्रे 34.सूर्य पितामह! 35.पुष्पाणि) छान्दस रचनायें अल्पवयी पाठकों का जितना मनोरंजन
करती हैं, उतना ही उन्हें विविध मानवीय मूल्यों से समृद्ध भी
करती हैं ।
बच्चों
को क्या-क्या अच्छा लगता है इसका मनोवैज्ञानिक चित्रण करते हुए कवि लिखता है ।
बच्चे को माता अच्छी लगती है । पिता अच्छे लगते हैं । रात अच्छी लगती है ।
चन्द्रमा अच्छा लगता है । पुष्प अच्छे लगते हैं । उद्यान अच्छे लगते हैं ।
तातो
मे रोचते
जननी
मे रोचते
चन्द्रो
मे रोचते
रजनी
मे रोचते
रोचन्ते
पुष्पाणि
उद्यानं
मे रोचते । पृष्ठ 5
‘वयं विहगा:’ कविता के माध्यम से कवि यह शिक्षा देना
चाहता है कि हमें कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए । पक्षियों का उदाहरण देते हुए वह
कहता है कि जिस प्रकार पक्षी पूरे दिन मेहनत करता है वैसे ही मनुष्य को भी दिनभर
बिना आलस किए हुए कार्य करना चाहिए ।
गगनचारिणो
वयं हि विहगा:
वयं
सपक्षा वयं खेचरा: ।
ब्राह्ममुहूर्ते
गगनं याम:
गीतं
मधुरकलै: गायाम: ।
सूर्यातपेन
ननु स्नायाम:
मित्रै:
सार्धं वयं भ्रमाम: । पृष्ठ 15
बंदर
की स्वाभाविक क्रिया का वर्णन करते हुए डॉ.जानी लिखते हैं-
कपि:
कूर्दते शाखायाम्
शाखा
नमति नदीजले ।
नदीजले
स्पन्दन्ते मत्स्या:
मत्स्या:
सन्ति मत्स्यगृहे । पृष्ठ29
ऋषिराज
जानी संस्कृत में एक नवीन प्रयोग किया है । उन्होंने बच्चों के लिए अभिनय गीत भी
इस पुस्तक में लिखे हैं ।
गोलाकार:
कन्दुकसदृश: ।
लम्बोदरोऽस्ति
गणपतिसदृश: ॥ पृष्ठ 35
इन्होंने
बचपन में खेले जाने वाले के समय जो गीत बच्चे गाते हैं –‘इधर का ताला तोडेगे....’ का बहुत ही सुन्दर संस्कृत
रुपान्तरण किया है ।
अभेद्यदुर्गं
भेत्स्यामि ।
निगडबन्धनं
छेत्स्यामि ।
सर्वान्
शत्रून् जेष्यामि ।
मुक्तोऽहं
च भविष्यामि ।
दूरं
पश्य! गमिष्यामि ।
मुक्तं
मां च करिष्यामि ।
नवनगरे
विचरिष्यामि ॥ पृष्ठ 37
‘निदाघ:’ कविता में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन करते हुए
डॉ.ऋषिराज जानी लिखते हैं कि गर्मी के महीने में सभी जीव- जन्तु परेशान हो जाते
हैं । इसलिए हम सभी को वृक्षारोपण करना चाहिए ।उष्ण: तीक्ष्ण: क्रूरनिदाघ:
प्रस्वेद:
मम गात्रे दाह: ।
विहगा
आकाशे न भ्रमन्ति
पशव:
शनै: शनै: गच्छन्ति । पृष्ठ 51
कवि
बालकों को कहता है कि आम के वृक्ष की तरह हमको सबको सरल और सज्जन होना चाहिए । लोग
उसी को पसन्द करते हैं जो सरल और सज्जन होते हैं । कोई भी व्यक्ति दुष्ट का साथ
पसन्द नहीं करता है ।
वसन्तकाले
अहं प्रफुल्ल: ।
मिष्ट
सौरभ:, सदा प्रसन्न: ॥
कोकिल
नादा: मम शाखासु
गुञ्जति
भ्रमरा: कलिकासु । पृष्ठ 59
नवीन प्रयोगधर्मिता
की इसी कडी में इन्होंने संस्कृत में बच्चों के लिए पहेलियां (प्रहेलिकायें) भी
लिखी हैं-
श्यामवर्णो
रसालेऽहं ।
गायामि
मधुरं सदा ।
चैत्रमासे
प्रसन्नोऽहं
वदन्तु
कोऽस्मि बालका: ॥ (कोकिल: )
श्यामवर्णौऽस्मि
न कृष्ण: ,
खेचरो
न विहङ्गम:
अब्धिजो
नास्मि रत्नं भो: !
जलदानेऽस्मि
विश्रुत: ॥ (मेघ: ) पृष्ठ 81
बुरा
मत कहो,
बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो की शिक्षा बालकों को देते हुए डॉ.ऋषिराज जानी कहते हैं ।
लघुके
लघुके मे नेत्रे स्त: ।
सदा
सुन्दरं शिवं पश्यत: ॥
लघुकौ
लघुकौ मे कर्णौ स्त: ।
भद्रं
श्रुणत: मधुरं श्रुणत: ॥ पृष्ठ 83
पैंतीस
बाल गीतो से सुसज्जित इस कृति में अनेकों भाव है, बच्चों
से सीधा संवाद है। आर्कषक आवरण पृष्ठ एवं हर रचना के अनुसार चित्रों का सुन्दर
चित्रण इसे बाल मन के और करीब लाता है। मुझे विश्वास है कि यह कृति बच्चों और
प्रौढ़ों के द्वारा समान रुचि से पढ़ी जायेगी।
समीक्षक-
डॉ. अरुण कुमार निषाद
कृति- 'कपि: कूर्दते
शाखायाम्’
कवि-
ऋषिराज जानी
प्रकाशन
वर्ष- प्रथम संस्करण 2016
मूल्य-
रु. 75/-पृष्ठ- 87
प्रकाशक-
खूशबू प्रकाशन अहमदाबाद ।
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