अहिंसा का संदेश देता नाटक : हंसरक्षणम्
आज जब सम्पूर्ण विश्व हिंसा की आग में झुलस रहा है, भाई-भाई को नहीं पहचान रहा है, चंद रुपये और इंच भर जमीन के लिए लोग आपस में मरकट रहे हैं, लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं , ऐसे समय में
समाज को ‘हंसरक्षणम्' जैसे नाटक की
आवश्यकता महसूस होती है, जो भटके हुए राही को सही रास्ता
दिखा सके । ‘हंसरक्षणम्' नाटक
प्रो.ताराशंकर शर्मा ‘पाण्डेय’ द्वारा
प्रणीत है ।
समकालीन संस्कृत रचनाकारों में प्रो.ताराशंकर शर्मा ‘पाण्डेय’ किसी परिचय के मोहताज
नहीं है । आपकी दर्जनों पुस्तकें तथा सैकड़ों शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं ।
आपने ‘मुद्राराक्षस’ बडे पर्दे की
संस्कृत फिल्म के संवाद भी लिखे हैं । आपने जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान
संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में
संस्कृत के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष पद
को सुशोभित किया है । प्रो. शर्मा का नाम हिन्दी और संस्कृत साहित्य में बड़े
सम्मान के साथ लिया जाता है | प्रो. शर्मा हिन्दी और संस्कृत
के अच्छे कवि, नाटककार, कहानीकार और
कुशल रंगकर्मी हैं | इनके कार्यक्रम आकाशवाणी तथा दूरदर्शन
से समय-समय पर प्रसारित होते रहते हैं | आपको साहित्य अकादमी( केन्द्रीय),
भारत सरकार तथा राज्यसरकार की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी
किया गया है ।
महात्मा गौतम बुद्ध को यदि करुणा की प्रतिमूर्ति कहा जाए तो कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी । बुद्ध के इन्हीं गुणों के कारण उनके अनुयायी भारत में ही
नहीं अपितु विश्व के अनेकों देशों में फैले हुए हैं । उनके जीवन पर अनेक प्रेरक
प्रसंग लिखे जा चुके हैं । उसी श्रृंखला में ‘हंसरक्षणम्'
नाटक भी है ।
प्रो.शर्मा कहते हैं कि पीड़ित को शरण देने वाले का अधिकार जीव पर
अधिक होता है, न की उसको पीड़ा पहुँचाने वाले
का । परन्तु आज समाज में इसके एकदम विपरीत
हो रहा है ।
सिद्धार्थ:-
नहि नहि भ्रात: ! शरणागतस्य रक्षक स्वामी इति वर्तते प्रचलित:
सिद्धान्त: ।
सिद्धार्थ:- “.....शरणागतस्य रक्षा अस्माकं परमो धर्म: एव ....”
।
सिद्धार्थ देवदत्त को बारम्बार समझते हैं कि हिंसा, घृणा, ईर्ष्या और क्रोध से नुकसान ही होता है, फायदा नहीं ।
सिद्धार्थ: - प्रिय! भ्रात:! इतोऽप्यधिकं किञ्चित् । आर्तप्राणिनो रक्षक एव अधिकारी । 'वध्यो हन्तुरेव न्यासः' इति तु
जांगलो विधिः ।
शिकार मारने वाले की धरोहर
होती है यह तो जंगलियों का नियम होता है।
देवदत्त: - रे रे ! सिद्धार्थ! बुद्धिबलं मा दर्शय । चेद् बाहुबले
विश्वासस्तर्हि आगच्छ द्वन्द्वयुद्धं कुरु । द्वन्द्वे विजित्य एव हंसं स्वीकुरु ।
सिद्धार्थ: - नैव नैव, कदाचिदपि एवं मां ब्रूहि भ्रात:! आवयोर्मध्ये कस्यापि जीवनज्योति: मा
लुप्यात् ।
प्रो. शर्मा जी ने अपने नाटक को लोकप्रिय बनाने के लिए सरस, सरल एवं सुमधुर भाषा का प्रयोग किया है | उनके छोटे-छोटे वाक्य सरस एवं चुस्त हैं जो अनायास ही भाषा बोध कराने में
पूर्ण सक्षम हैं ।
इस नाटक में कुल 3 अंक हैं । इस नाटक का हिन्दी अनुवाद भी स्वयं लेखक
द्वारा किया गया है । इस नाटक को दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया जा
चुका है । रंगमंच की दृष्टि से भी यह एक सफल नाटक है । नाटक के बीच-बीच में प्रयोग
किये गये गीत नाटक की सुन्दरता तथा रोचकता को और बढ़ा दे रहे हैं । संस्कृत जगत्
को आप से बहुत आशायें हैं |
समीक्षक- डॉ.अरुण कुमार
निषाद
पुस्तक- हंसरक्षणम् (संस्कृत नाटक)
लेखक- प्रो.ताराशंकर शर्मा ‘पाण्डेय’
प्रकाशन- हंसा प्रकाशन, जयपुर ।
संस्करण- प्रथम संस्करण
2010
मूल्य-35 रुपया, पृष्ठ संख्या-32 ।
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