मध्यकालीन
भारतीय आर्य भाषाओं को प्राकृतों के नाम से जाना जाता है। प्राकृतों से अभिप्राय
स्वाभाविक नैसर्गिक भाषा से है। संस्कृत भाषाओं के साथ प्राकृत भाषाओं का अस्तित्व
एक समय बड़े पुरजोर में था।आज के मशीनरी युग में भी इन पुरातन भाषाओं के अध्ययन की
आवश्यकता क्यों प्रतीत होती है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कह सकते हैं कि अपनी
सभ्यता और संस्कृति के इतिहास को जानने के लिए इन भाषाओं का पठन-पाठन करना पड़ता
है। विशाल संस्कृत साहित्य के समानांतर पद पर प्राकृत आदि भाषाओं को रखना जरूरी है
क्योंकि जब हम इन से कहीं अधिक ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित कर सकते हैं तो हम उस ओर
क्यों न बढ़ें।प्राकृत में विपुल वाड्.मय का सृजन
हुआ जो भारतीयता के विकास की महत्वपूर्ण कड़ी है तथा आज प्राप्त भी है और यह वाड्.मय साहित्यिक प्राकृत जैसी कही जाने वाली किसी एक बोली में न होकर प्राकृत
की विभिन्न भाषाओं में है। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण शिलालेख भी प्राकृतों
में लिखे गए जो कि कल को आज से जोड़ने में अहम भूमिका अदा करते हैं।प्राकृत में
रचा गया साहित्य इतना सरस है कि आचार्यों ने प्राकृत काव्य को अमृत काव्य को भूषण
से विभूषित किया है।इसके साहित्य में मानव के मनोभावों का इतना सूक्ष्म चित्रण
किया गया है कि पाठक आनंदानुभूति/भावानुभूति के सागर में
गोते लगाए बिना नहीं रह पाता है।प्राकृत साहित्य की सुकुमारता और लालित्य छुपा
नहीं है। इसमें भारतीय दर्शन, आचार,
नीति और धर्म की सुद्रढ परंपरा के दर्शन मिलते हैं। इतना ही नहीं इसमें आध्यात्मिक
और भौतिक समस्याओं के समाधान ढूंढने पर मिल जाएंगे। प्राकृत साहित्य में साहित्य
के सभी रसों का सफल प्रयोग हुआ है। संस्कृत के आचार्यों ने अपनी रचनाओं में
प्राकृत को उदाहरण के रूप में स्थान दिया है। इससे दो बातें साफ परिलक्षित होती
हैं कि प्राकृत और संस्कृत अलग होकर भी अलग नथीं।दोनों की प्रसिद्धि समान थी तभी
संस्कृत के आचार्य उन्हें अपने महान ग्रंथों में उदाहरण के रूप में देने में
हिचकिचाहट महसूस न की। दूसरी यह कि प्राकृत का अपना विशालतम साहित्य था जो कि लोक
प्रचलित था इसीलिए संस्कृत आचार्य द्वारा संस्कृत की विपुल संपदा होने पर भी
प्राकृत का प्रयोग वर्जित न रहा। यह संस्कृत आचार्यों की सहृदयता ही थी जो प्राकृत
को गौरवान्वित किया।
इस ब्लॉग पर संस्कृत, आधुनिक संस्कृत, समकालीन संस्कृत एवं 21वीं शताब्दी की नवीन संस्कृत की पुस्तकों की जानकारी तथा संस्कृत के विद्यार्थियों (शोधार्थियों),अध्येताओं के लिए आवश्यक अन्य जानकारियाँ भी पोस्ट की जाती हैं |
सोमवार, 18 मई 2020
‘पाइअं बोल्लउ’
‘पाइअं बोल्लउ’ नामक पुस्तक की
लेखिका डॉ.पत्रिका जैन हैं । यह प्राकृत भाषा की संभाषण पुस्तक है । जिसका
रोमन-हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद स्वयं लेखिका ने किया है । ‘पाइअं बोल्लउ’ का अर्थ है-प्राकृत बोलें ।
पाइअं बोल्लउ व्यवहारिक प्राकृत की प्रारंभिक
पुस्तक है । प्राकृत आदि भाषाएंँ प्राचीन कालीन भाषाएंँ मानी जाती हैं और ये अब भी
दैनिक जीवन व समाज में लोकभाषाओं के रूप में जीवित हैं परन्तु दुर्भाग्य यह है कि
आज की नई पीढ़ी तो शायद इनका नाम भी नहीं जानती है । जबकि देखा जाए तो भारतीय
संस्कृति की अनन्त ज्ञानडराशि इसमें समाहित है आज आवश्यकता है कि समाज से जुड़कर
व्यवहारिक जीवन के साथ इनका तादात्म्य स्थापित हो इसके लिए समेकित यत्न किए जाएँ । इस पुस्तक के माध्यम से इसी
दिशा में नई पीढ़ी को उद्यत करने के लिए प्रेरित किया गया है । दैनिक जीवन में
कैसे प्राकृत भाषा तथा उसके प्रयोगों से 'वाक् व्यवहार करें'
इसी को यहां प्रत्यक्ष रखने का प्रयत्न किया गया है इस तरह का कार्य
प्राकृत के क्षेत्र में अभी और भी वृहत्तर रूप में अपेक्षित है।
इस रचना को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने
पुरस्कृत करने की घोषणा की है ।
समीक्षक-डॉ.अरुण कुमार निषाद
लेखिका-डॉ.पत्रिका जैन
प्रकाशन- अखिल भारतीय जैन मिशन न्यास, लखनऊ
प्रथम संस्करण-2017 ई.
मूल्य-100 रुपया
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