मनुष्य
के उतार-चढ़ाव भरे जीवन में एक क्षण ऐसा भी आता है जब उसे दुनिया की हर चीज रंगीन
दिखाई देती है । यह अवस्था होती है किशोरावस्था के तुरन्त बाद की अवस्था अर्थात्
युवावस्था । जीवन की ऐसी अवस्था में प्रकृति के कण-कण में मनुष्य को सौन्दर्य
परिलक्षित होता है । ऐसी अवस्था में विपरीतलिंगी के प्रति आकर्षण कोई नयी बात नहीं
है । सृष्टि रचना के पश्चात् से ही ऐसा होता चला आया है और जब तक स्त्री और पुरुष
की रचना इस पृथ्वी पर होगी ऐसा होता रहेगा ।किसी के सपने टूटेंगे तो किसी के फलित
होंगे ।
ऐसे ही युवा मन के भावों को छुने का प्रयास किया है
आधुनिक संस्कृत साहित्य के कथाकार डा.प्रमोद भारतीय ने अपने कथा संग्रह “सहपाठिनी”
में । इस कथा संग्रह में कुल बारह कहानियां हैं, जो कि आत्मकथा शैली में निबद्ध
हैं ।
प्रत्येक युवक-युवती की यह दिली इच्छा होती है कि कोई
विपरीत लिंगी उसकी तरफ आकर्षित हो । वह उसके साथ समय बिताये, उसकी भावनाओं को समझे
और उन भावनाओं का सम्मान करें । ‘पक्षपात:’ कहानी में लेखक भी मोहिनी नाम की एक युवती के प्रति
आकर्षित होता है ।
प्रथमा कन्या रजनी किंचित् श्यामवर्णी आसीत् परं
द्वितीयाया: कन्याया: कटाक्षस्य कथा तु शनै: शनै: सर्वेषु छात्रेषु प्रसारिता ।
तस्या नामपि आसीत् मोहिनी । परिणामतयाऽस्माकं मध्ये मोहिन्या: मोहजालमीदृशं
सुदृढ़ं जातं यत् सर्वेषां छात्राणांमवधानं न पठने आसीत् न भोजने न शयने वाऽऽसीत्
। क: पूर्वाह्ण: को मध्याह्ण: कश्च अपराह्ण:, छात्रा: समयं विस्मृत्य सदैव तस्या:
दर्शनोत्सुका: ।
कोई विरला ही पुरुष होगा जो किसी महिला के किसी प्रस्ताव
को ठुकरा दे । यह पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी होती है । अपने सैकड़ों नुकसान करके भी
वह स्त्री सहायता को तत्पर हो जाता है । भले ही बाद में पछताना पड़े । मधुमिता जब
लेखक से दस मिनट का समय मांगती है तो वह उसे इंकार नहीं कर पाता है ।
“यदि
भवत: अध्ययने बहुर्बाधा न भवेत्, दशनिमेषाणां कृते सम्मुखे पर्णांगणे आगमिष्यामि
किम्?”
“अवश्यम्
। किमर्थं नैव! अहं मधुमिताया: निमंत्रणं परित्यक्तुं नैव समर्थ: । तस्या: अवरे न
जाने किमाकर्षणमासीद् यदहमात्मानं रोद्धुं नापारयम्....।”
यह सार्वभौम सत्य है कि-प्रेम प्रस्ताव सदैव पुरुष की ओर
से होता है । लेखक भी मधुमिता के समक्ष प्रेम प्रस्ताव रखता है ।
त्वं मम हृदये तु वसस्येव, इदानीमहं त्वां स्वकीयगृहेऽपि
आनेतुमिच्छामि ।
मन की अभिलाषा पूर्ण होने पर भला कौन प्रमुदित नहीं होता
। मधुमिता भी यही चाहती थी । उसकी भी यह आन्तरिक इच्छा थी कि वह किसी के घर की
कुलवधू बने । परन्तु चूंकि वह वेश्या पुत्री थी तो उसे यह आशंका थी कि वधू के रुप
में उसे कौन अपनायेगा । जब लेखक उसे बताता है कि लेखक की मां ने मधुमिता को अपनी
बहू स्वीकार कर लिया है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है और वह खुशी के मारे लेखक के गले से लिपट जाती
है ।
“किं
सत्यम्?” मधुमिताया: हर्षस्य नासीत् काऽपि सीमा । सा सद्य:
ममांकमागत्य मम ग्रीवा स्वकीयहस्तयो: मालां प्रदत्तवती-कामं मया संसारस्य सर्वं
सुखं लब्धम् ।
आजकल होटलों में क्या-क्या उपलब्ध होता है । इसका बड़ा ही
सजीव वर्णन डा. प्रमोद भारतीय ने किया है । वासना की पूर्ति के युवक-युवती किस
स्तर तक गिर गये है इसका उदाहरण इस कहानी में है ।
“साहब,
भवतां प्रमोदायात्र षोडसी, अष्टादशी, द्वाविंशद्वर्षीया वा-सर्वं प्राप्येत ।
भवतां केवलम् आदेशस्य विलम्ब....|”
“गृहे
रात्रे त्रिवादनपर्यन्तं जागरणं जातं सुचित्राया: कल्पनायाम्। न जाने
किमिन्द्रजालं तया कृतं ममोपरि”|
पार्क, रेस्टोरेंट और बस स्टैण्ड आदि पर किसी नवयुवक या
नवयुवती द्वारा एक-दूसरे का इंतजार करना कोई नई बात नहीं है । सुनीता लेखक को
बताती है कि वह उसके मित्र कमलनाथ तिवारी का इंतजार कर रही है ।
“कमलस्यैव
प्रतीक्षा करोमि । पंचवादन तु जातम्, इदानीं पर्यन्तं स: नागत:, न जाने
कुत्रास्ति । तस्या: स्वरे चिन्ताया: लक्षणं स्पष्टरुपेण दृष्टम्”|
मित्र मौका मिलने पर एक-दूसरे चुहलबाजी करने में कोई कोर
कसर नहीं छोड़ते ।
“वनिते!
मह्यमपि आइसक्रीम रोचते यदा-तदा!” मया प्रोक्तमासीत् ।
प्रेम का स्थायित्व वहीं है जब कोई अपने प्यार के लिए
बिना गलती के भी गलती स्वीकार कर ले । रिश्ता निभाने के लिए गर्व दिखाने के बजाए
झुक जाए ।
“आई
एम सारी बाबा! इत: पश्चात् त्वयैव सार्द्धं स्थास्यामि, लोकव्यवहारंच ग्यातुम चेष्टां विधास्यामि।”
मल्लिका मम हस्तमेकं स्वकीयहस्तयो: नीत्वा उक्तवती ।
रात्रे: दशवादनं जातम्, भयं न लगति? मम क्रोध: विलुप्त:
जात: आसीत् ।
भवादृश: वीरपुरुष: यदा सार्द्धं वर्तते तर्हि भयं
किमर्थम् ?
कोई भी प्रेमी या प्रेमिका एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ना
चाहते । वे एक-दूसरे के संग अधिक-से-अधिक समय बिताना चाहते हैं ।
“तर्हि,
प्रतिगच्छाव?” बहुरात्रि: जाताऽऽसीत्, तदर्थं मया प्रतिगमनस्य कृते
निवेदनं कृतम् ।
“हृदयं नेच्छति । शिरीष, किंचित्कालं मम पार्श्वे तिष्ठ
। न जाने पुन: कदा ईदृशी सम्मिलनं भविष्यति । जीवनस्य नास्ति किमपि निश्चितम् |”
“न....,न....ईदृशं
न वक्तव्यम् ।” मया तस्या मुखे स्वहस्त आनीत: ।
“मल्लिका बिना शिरीष: कथं जीविष्यति ।” अहं मल्लिकां
स्वकीयहृदयेन संश्लिष्य उक्तवान् । तदुपरान्तं तस्या: शरीरेऽपि नासीत् श्क्ति:
गमनस्य । अहमेव तां हस्तयो: उत्थाप्यानीत्वान् शिविरे ।
मिलन के पश्चात् विक्षोभ हो और वेदना न उत्पन्न हो ?
शिरीष के हृदय मे भी मल्लिका से बिछड़ने का दर्द है । वह अपने मित्र से कहता है-
“शिरोवेदना तु गता....। इदानीं तु हृदयवेदना आरब्धा ।”
परिस्थितियां चाहे जो करवा दें परन्तु कोई भी प्रेमी या
प्रेमिका अपने पहले प्यार को भूल नहीं सकता है ।
त्वं बहुनिष्ठुर: ! द्वादशवर्षेषु त्वया कदापि मम स्मरणं
न कृतम् ।”
“नहि सरिते ! अहं भागलपुरस्य प्रायश: सर्वाणि मित्राणि
पृष्टवान् तव विषये परं न साफल्यं लब्धवान् । केनापि कथितं यत्तव विवाह:
सम्पादित: ।”
प्राय: युवतियों की यह आदत होती है कि-किसी पुरुष से एक
बार यदि बातचीत हो जाए तो दुबारा मिलने पर यह शिकायत अवश्य करेंगी कि आपने तो मुझे
भुला दिया, कोई और मिल गई होगी मुझसे अच्छी ।
“भो
मधुपमहोदय! भवान् तु मां विस्मृतवान् एव ।”
नवयुवक-नवयुवतियों की यह बहुत ही बड़ी कमजोरी है कि-अगर
एक ने जरा सा भी प्रेम प्रदर्शित किया तो दूसरा बिना किसी देरी के यह कहते नहीं
हिचकिचाता कि-वह उसके बगैर जीवित नहीं रह सकता ।
“आम्
वाटिके! सम्प्रत्यहं त्वां विना न जीवितुं पारयिष्यामि । अहं त्वया सह सद्य:
विवाहं कर्तुमिच्छामि ।”
प्रत्येक युवक-युवती की यह इच्छा होती है कि कोई उसके
मनोभवों को बिन कहे जाते समझे । उसे अपना माने केतकी की भी यह अभिलाषा थी जिसे वह
लेखक के समक्ष प्रकट करती है ।
“पाटल!
अहमीदृशी सौभाग्यशालिनी नास्मि। मां कोऽपि प्रेम्णा न द्रक्ष्यति न मया सह कोऽपि
परिणय करिष्यति ।”
प्रतीत होता है कि विद्योतमा के वाक्य की तरह केतकी का
यह वाक्य लेखक के लेखन का उत्स है –
“सहपाठिनी
केवलं सहपाठिनी भवति, सहजीविनी न भवति ।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि-डा.भारतीय ने युवाओं के मन की
नब्ज को पकड़ने का जो प्रयास किया है उसमें वे पूर्ण रुप से सफल भी रहे हैं ।
आत्मकथा शैली में लिखी इन कहानियों को पढ़ते समय कभी-कभी पाठक को धोखा भी हो जाता
है कि-इन कहानियों का वास्तविक नायक सचमुच में लेखक ही तो नहीं हैं । बहरहाल जो भी
सच्चाई हो, पर कथा शुरू से लेकर अंत तक पाठक को बांधे रखती है । कहानियों का संवाद
और वातावरण पाठक को भ्रम डाल देता है । ऐसा लगता कि-यह सारी घटनायें उसके कालेज या
विश्वविद्यालय की हैं । कहानियों के
बीच-बीच में कुछ विदेशी शब्दों (लालटेन, काफी,ब्रैडरोल, कैरम, सैण्डबिच, सर आदि)
का भी प्रयोग हुआ है । जिन्हें हम प्रायश: प्रयोग में लाते हैं । उसके लिए लेखक ने
किसी संस्कृत शब्द की खोज नहीं की । यह उनके लेखन की अपनी विशेषता है । मुझे आशा
ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि- आधुनिक कथा साहित्य के शोधार्थियों के लिए यह संग्रह
मील का पत्थर साबित होगा । मनोरंजन की दृष्टि से भी यह संकलन बहुत ही रुचिकर है ।
थोड़ी सी भी संस्कृत जानने वाले इसकी भाषा को आसानी से समझ लेंगे । डा.प्रमोद
भारतीय से पाठकों को अभी बहुत आशायें हैं । ईश्वर पाठकों की आशाओं पर उन्हें खरा
साबित करें ।
समीक्षक-डॉ.अरुण कुमार निषाद
रचना-सहपाठिनी
(संस्कृत कथा संग्रह),
लेखक-डॉ.प्रमोद
भारतीय,
प्रकाशन- माणिकप्रकाशन अम्बालाछावनी (हरियाणा),
संस्करण-प्रथम
संस्करण 1999
पृष्ठ संख्या- 92
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