शनिवार, 25 नवंबर 2017

राघवयादवीयम्



" दक्षिण का एक ग्रन्थ "

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्:

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

 " राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें की दुनिया में कहीं भी ऐसा नही पाया गया ग्रंथ है ।

शत् शत् प्रणाम ऐसे रचनाकार को।

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

उपनिषदों
आत्मा,परमात्मा,पुनर्जन्म आज का सम्यक् विवेचन उपनिषदों में हुआ है । वस्तुतः आत्मा एवं परमात्मा ब्रह्मा का चिंतन एवं मनन ही उपनिषदों की आधारशिला है ।प्राधान्यत: ब्रह्मा चिंतन के संदर्भ में उन सभी तत्वों का चिंतन हो जाता है जो मोक्ष के लिए आवश्यक है ।उपनिषदों के लिए प्रयुक्त ब्रह्मविद्या शब्द उक्त कथन की पुष्टि करता है।
मानव जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है और वह मोक्ष ज्ञान के बिना संभव नहीं है "लते ज्ञानान्न मुक्ति:"। जीवात्मा तथा परमात्मा में वास्तविक रूप से अभिन्नता है परंतु अज्ञान अथवा माया के कारण मानव इस तत्व (यथार्थ ) को समझने में असमर्थ हो जाता है। उपनिषद ऐसे ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं जिसके द्वारा मनुष्य को वास्तविक ज्ञान हो जाए और वह अपने को समझ सके। यही आत्मज्ञान आत्मा के स्वरूप का ज्ञान मोक्ष का मूल है । उपनिषदों में ब्रह्म तत्व का नाना प्रकार से प्रतिपादन किया गया है और उसकी प्राप्ति के विभिन्न मार्गो अथवा साधनों का भी वर्णन है। परंतु लक्ष्य बहुत ब्रह्मा (ब्रम्ह प्राप्ति) एक है भले ही उसकी प्राप्ति अथवा ज्ञान के साधन अनेक हों।
यद्यपि स्थूल रुप से प्रतिपाद्य को दृष्टिगत कर उपनिषदों का श्रेणी विभाजन किया जा सकता है और उन्हें ज्ञान एवं साधना (उपासना ) आदि से  संबद्ध किया जा सकता है परंतु सूक्ष्म रूप से  सबका गंतव्य एक ही है।

रविवार, 29 अक्टूबर 2017

आधुनिक संस्कृत साहित्य में पं.मोहनलाल शर्मा पाण्डेय का योगदान


   23 सितम्बर 1934 में लब्धजन्मा, सन् 2000 में प्राप्त-राष्ट्रपतिसम्मान   पं.मोहनलाल शर्मा पाण्डेय ने  लगभग 20 ग्रन्थों की रचना की तथा आपको राष्ट्रीयस्तर ‘श्रीवाणीअलंकरण’ जैसे  एवं राज्यस्तर पर राजस्थान सरकार का सर्वोच्च  ‘संस्कृत साधना शिखर सम्मान’ जैसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
1) दो उपन्यास >>> रसकपूरम् तथा पद्मिनी।  प्रौढ बाणभट्ट सदृश शैली में लिखे गये संस्कृत उपन्यास ‘ पद्मिनी ‘ पर आपको ‘अखिल भारतीय पुरस्कार सन् 2000, वाचस्पति-पुरस्कार सन् 2002,  श्रीवाणीअलंकरण सन् 2009, का सम्मान प्राप्त हुआ। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद राष्ट्रपति-सम्मानित आचार्य (डॉ.) रेवाप्रसाद द्विवेदी ने पत्र प्रेषित करते हुए अपने उद्गार यों प्रकट किये >>  ------ पद्मिनीकवीश्वराय प्रतिनवबाणभट्टाय पं.मोहनलाल शर्मणे पाण्डेयाय प्रणतिः। राष्ट्रपति-सम्मानित डॉ. हरिराम आचार्य ने ‘पद्मिनी’ उपन्यास की शैली को ‘मारवाणी’ नामक नवीन शैली कहा है  >>> ----- न प्राचीना काव्यशास्त्रोक्ता ‘पाञ्चाली’ अपितु नवीना प्रसादगुणविभूषिता मरुधरोत्था मनोरमा ‘मारवाणी’ शैलीति कथयितुं शक्यते। 
2) दो काव्य >>  पत्रदूतम् तथा नतितति। ईराक के खाड़ी युद्ध पर रचित पत्रदूतम् पर महाकवि माघ-पुरस्कार वर्ष 1992-93 .। ‘नतितति’ वर्णैकप्रधान मुक्तकचित्रकाव्य। 
3) अन्य काव्य >>> संस्कृतकाव्यकौमुदी, समस्यासौहित्यम् आदि।
4) आशुकवि पं.नित्यानन्द शास्त्री द्वारा 14 सर्गों में विरचित ‘श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्’ महाचित्रकाव्य की रत्नप्रभा नामक हिन्दी अनुवाद। 
5) कर्मकाण्ड के ग्रन्थ >> चतुर्वेदोक्तग्रहशान्तिः , विशिष्टव्रतोद्यापनविधिः,संस्कार-सोपान, श्रीरामपूजा-पद्धतिः,श्रीकृष्णपूजापद्धतिः,श्रीशिवपूजापद्धतिः आदि।
 राष्ट्रपति-सम्मानित पं. मोहनलाल शर्मा पाण्डेय का जन्म 23 सितम्बर 1934 को जयपुर (राजस्थान) के गलता तीर्थ के महन्त परिवार के पुरोहित वंश में पं. दुर्गालाल जोशी के पुत्ररूप में हुआ। प्रसिद्ध मीमांसक पं. पट्टाभिराम शास्त्री, श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी , श्री जगदीश शर्मा साहित्याचार्य, आशुकवि हरिशास्त्री    जैसे प्रसिद्ध विद्वानों के सान्निध्य में साहित्यशास्त्र में शास्त्री एवं आचार्य की उपाधि प्राप्त की। संस्कृत शिक्षा,राजस्थान सरकार में प्राध्यापक बन प्राचार्य पद से 30 सितम्बर 1992 को सेवा-निवृत्त हुए ।
   पं. श्री रामकृष्ण चतुर्वेदी तथा पं. श्री ग्यारसीलाल वेदाचार्य से कर्मकाण्ड एवं पौरोहित्य की शिक्षा दीक्षा प्राप्त कर अष्टोत्तरशत-कुण्डीय जैसे लगभग 35 यज्ञों का आचार्यत्व सम्पादन किया।

बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

गिरजा देवी : जीवन परिचय

संगीत जगत मे एक बहुत बड़ी  छति
ठुमरी की रानी इस जगत मे अपना नाम रौशन करके हमेशा के लिए  अलविदा कह दिया

गिरिजा देवी
गिरिजा देवी ( अंग्रेज़ी : Girija Devi; जन्म- 8 मई ,
1929 , वाराणसी , उत्तर प्रदेश ) भारत की प्रसिद्ध ठुमरी गायिका हैं। उन्हें 'ठुमरी की रानी' कहा जाता है। वे बनारस घराने से सम्बन्धित हैं। गायकी के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1972 में ' पद्मश्री ' और वर्ष 1989 में ' पद्मभूषण ' से सम्मानित किया गया था। गिरिजा देवी ' संगीत नाटक अकादमी' द्वारा भी सम्मानित की जा चुकी हैं।
जन्म तथा शिक्षा
गिरिजा देवी का जन्म 8 मई, 1929 को कला और
संस्कृति की प्राचीन नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस ) में हुआ था। उनके पिता रामदेव राय एक ज़मींदार थे, जो एक संगीत प्रेमी व्यक्ति थे। उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत गुरु पण्डित सरयू प्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की। इस अल्प आयु में ही एक
हिन्दी फ़िल्म 'याद रहे' में गिरिजा ने अभिनय भी किया था। गिरिजा देवी के गुरु पंडित सरजू प्रसाद मिश्र ' शास्त्रीय संगीत ' के मूर्धन्य गायक थे। गिरिजा जी कि खनकती हुई आवाज़ जहाँ दुसरी गायिकाओं से उन्हें विशिष्ट बनाती है, वहीँ उनकी ठुमरी , कजरी और चैती में
बनारस का ख़ास लहज़ा और विशुद्धता का पुट उनके गायन में विशेष आकर्षण पैदा करता है।
प्रथम प्रदर्शन
उनका विवाह 1946 में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था। उन दिनों कुलीन विवाहिता स्त्रियों द्वारा मंच प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था। 1949 में गिरिजा देवी ने अपना पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के आकाशवाणी केन्द्र से किया। यह देश की स्वतंत्रता के तत्काल बाद का उन्मुक्त परिवेश था, जिसमें अनेक रूढ़ियाँ टूटी थीं। संगीत के क्षेत्र में पण्डित विष्णु नारायण भातखंडे और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संगीत को जन-जन में प्रतिष्ठित करने का जो आन्दोलन छेड़ रखा था, उसका सार्थक परिणाम देश की आज़ादी के पश्चात् तेजी से दृष्टिगोचर होने लगा था।
संगीत यात्रा
गिरिजा देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा। 1949 में आकाशवाणी से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद उन्होंने 1951 में बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में गायन प्रस्तुत किया। इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत यात्रा शुरू हुई, जो आज तक जारी है। गिरिजा जी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। 80 के दशक में उन्हें
कोलकाता स्थित 'आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी' ने आमंत्रित किया। यहाँ रह कर उन्होंने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये, बल्कि शोध कार्य भी कराए। 90 के दशक में गिरिजा देवी ' काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ' से भी जुड़ीं। यहाँ अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी।
गायन शैली
शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में 'सेनिया' और ' बनारस घराने ' की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख़्याल, टप्पा , तराना, सदरा,
ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती,
कजरी , झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठ गायिका हैं, जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।
ठुमरी की रानी
गिरिजा देवी आधुनिक और स्वतंत्रता पूर्व काल की पूरब अंग की बोल-बनाव ठुमरियों की विशेषज्ञ और संवाहिका हैं। आधुनिक उपशास्त्रीय संगीत के भण्डार को उन्होंने समृद्ध किया है। उनकी उप-शास्त्रीय गायकी में परम्परावादी पूरबी अंग की छटा एक अलग ही सम्मोहन पैदा करती है। ख़्याल गायन से कार्यक्रम का आरम्भ करने वाली गिरिजा जी
ठुमरी , चैती, कजरी , झूला आदि भी उतनी ही तन्मयता और ख़ूबसूरती से गाती हैं कि श्रोता झूम उठते हैं। उनकी एक कजरी "बरसन लगी" बहुत प्रसिद्ध हुई थी। अपने गायन में दक्ष होने के कारण ही गिरिजा देवी को 'ठुमरी की रानी' भी कहा जाता है। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि- "मैं भोजन बनाते हुए रसोई में अपनी
संगीत कि कॉपी साथ रखती थी और तानें याद करती थी। कभी-कभी रोटी सेकते वक़्त मेरा हाथ जल जाता था, क्योंकि तवे पर रोटी होती ही नहीं थी। मैंने संगीत के जुनून में बहुत बार उँगलियाँ जलाई हैं।"
पुरस्कार व सम्मान
अपनी विशिष्ट गायन शैली के लिए गिरिजा देवी को कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं-
1. ' पद्मश्री ' - 1972
2. ' संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार ' - 1977
3. ' पद्मभूषण ' - 1989
4. 'संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप' -
2010
5. 'महा संगीत सम्मान अवार्ड' - 2012
(साभार-धनंजय मिश्रा संगीतकार)

सोमवार, 16 अक्टूबर 2017

प्रो.राधाबल्लभ त्रिपाठी से डॉ.प्रवीण पंड्या की बातचीत

संस्कृति और सृजन के संकट
(चिन्तक अध्येता एवं प्रख्यात संस्कृत कवि आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी से प्रवीण पंड्या द्वारा साक्षात्कार)

(आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी भारतीय मेधा के प्रतिनिधि रचनाकारों एवं आलोचकों में गिने जाते हैं। संस्कृत की रचना एवं उसके शास्त्र दोनों में इन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया है। संस्कृत में छह काव्य संग्रहों, तीन उपन्यासों सहित अनके कृतियाँ देने वाले त्रिपाठी जी ने हिन्दी में भी प्रभूत, और गौर करने योग्य साहित्य सर्जन किया है। ज्ञानपीठ से प्रकाशित इनका हिंदी उपन्यास विक्रमादित्यकथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की परम्परा को आगे बढ़ाता है। सबसे महत्त्वपूर्ण तो ‘अभिनवकाव्यालंकारसूत्रम्’ नामक काव्यशास्त्र की रचना है, जिसमें वह काव्यालोचन को ऐतरेय महीदास व आचार्य भरत की आर्षदृष्टि से जोड़ते हुए पश्चिम की सर्वभक्षी व एकाधिपत्यवादी एकांगी दृष्टियों के बरक्स समग्रता, पूर्णता एवं वैकल्पिकता के मानदण्ड देते हैं।
कवि क्रान्तद्रष्टा होता है किन्तु उसका अध्येता होना आवश्यक नहीं है। राधावल्लभ त्रिपाठी गंभीर ‘अधीती’ हैं। साहित्य इस संसार के भीतर ही भीतर चलने वाला संवाद भी है, जिसमें आमने सामने उपस्थित हुए बिना सैंकडों (जो कि अन्तत: अनन्त हो जाते हैं) लोग शामिल होते हैं। बस, इसी के बल पर वह कुछ जोड़ता है और कुछ निरस्त करता है। मेरे पूर्वत: चिन्तित, निश्चित प्रश्रों का उत्तर देते हुए त्रिपाठी जी जिस व्यापक एवं उदात्त दृष्टि को लेकर उपस्थित होते हैं, वह उपयुक्त धारणा को पुष्ट करता है:

1.जन्म बन्धन है, यह वैदिक दृष्टि या उसके बाद में उपजी हमारी धारणा है।  क्या यह शून्यवाद की वह नींव नही हैं, जिसके सहारे श्रमण व वैष्णव --इन दो तटों वाली हिन्दुदृष्टि अब वर्तमान है।
- जन्म बन्धन है, यह दृष्टि वैदिक तो किसी भी तरह नहीं है। यह जीवन बन्धन है और इससे मुक्ति पानी चहिए, यह विचार वेदों में मूलत: नहीं है। धर्म, अर्थ, काम ये तीन पुरुषार्थ हैं। चौथे मोक्ष को तो त्रयी में जग़ह ही नहीं मिली। ‘उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ’ इस मन्त्र में जिस बंधन का संकेत है, वहाँ भी जीवन के बन्धन होने का तो भाव नहीं है। मौत का डर ही बंधन है, जीवन तो अमृतमय है, यहीं ऋषियों को आशय प्रतीत होता है। संन्यास नामक चौथे आश्रम की व्यवस्था भी बाद में जाकर शुरू हुई। वैदिक ऋषि तो संन्यासी ही  नहीं होते थे। उपनिषदों के ऋषि वानप्रस्थ हैं, संन्यास की तो वहाँ कथा ही शुरू नहीं हुई।
चौथे वेद अथर्ववेद में वेदान्तदर्शन निरूपित हुआ है, वहाँ भी बन्ध मोक्ष का उस तरह से विचार नहीं है, जिस तरह परवर्ती वैष्णवादि मतों में हुआ है। अत: जन्म बंधन है, यह विचार वैदिक तो नहीं है। वैदिक संस्कृति की समवर्ती/ समकालीन किसी संस्कृति में ऐसा विचार था, यह संभावना की जा सकती है। वैदिक संस्कृति के समानान्तर चलने वाली कुछ संस्कृतियाँ थीं। वैदिक व्रत, आचार, यज्ञादि में श्रद्धा न रखने वाले व्रात्य थे। वैदिक मन्त्रों में ही व्रात्यों की बड़ी महिमा की गई है। अर्थववेद में बहुत से सूक्त व्रात्यमाहाम्त्य का मण्डन करने वाले हैं। यह एक व्रात्य संस्कृति है, जो वैदिक संस्कृति से बाहर है। श्रमण संस्कृतियाँ, आर्येतर लोगों की संस्कृतियाँ, और भी संस्कृतियाँ इस देश में प्रचलित थीं। वहाँ यदि जीवन बन्धन है, यह सिद्धान्त के तौर पर माना गया हो, तो उस बारे में मैं ठीक से नहीं जानता और न साधिकार बोल सकता हूँ। यह अवश्य साधिकार कहता हूँ कि भारतीय दृष्टि एक दृष्टि, एक संस्कृति नहीं है, वह अनेक संस्कृतियों का समुच्चय है। सर्वदृष्टि स्वीकार या सर्वदृष्टिस्वातन्त्र्य से हमारी दृष्टि बनती है। इस तरह सभी संस्कृतियों के स्वीकार या सभी संस्कृतियों के निषेध के साहस में भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठित है।
भारतीय चिन्तनधारा के दो प्रवाह आनन्दवाद और दु:खवाद विद्वानों ने माने हैं। पहले प्रवाह के प्रतिनिधि इन्द्र हैं और दूसरे के वरुण, यह मत जयशंकर प्रसाद ने व्यक्त किया है।
वैदिक परम्परा में जो दर्शन या शास्त्र विकसित हुए हैं, उनमें भी ‘मनुष्य तो स्वतंत्र है किन्तु वह अपने को बद्ध सा मानता है’ यही विचार आता है। ‘तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते न वा संसरति कश्चित्। बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति:’ यह सांख्यकारिकाकार ने कहा है। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने तो ‘निवार्ण ही संसार है एवं संसार ही निर्वाण है’ का उद्घोष किया ही।
2.भारतदेश तो जम्बूद्वीप का भाग ही है न( संस्कृतधारा तो शक, प्लक्ष आदि द्वीपान्तरों में व्याप्त हुई है। हम ‘संस्कृताश्रित संस्कृति’ को ‘भारतीय संस्कृति’ कैसे कह सकते हैं? भारत शब्द ‘सप्तद्वीपा वसन्धुरा’ का वाचक तो नहीं है।
- यह प्रश्र भ्रान्ति पैदा करता है। संस्कृताश्रित संस्कृति या संस्कृतधारा क्या है, यह जब  तक स्पष्ट नहीं किया जाता, तब तक स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सकता। केवल, कोई एक संस्कृति संस्कृत के आश्रित रही, यह नहीं कहा जा सकता। और न कोई एक ही धारा संस्कृत से प्रवाहित हुई। संस्कृत अति विशाल क्षेत्र है, जिसमें नाना संस्कृतिधाराएँ प्रवाहित हुईं और हो रही हैं। यदि वैदिक संस्कृति ही संस्कृताश्रिता संस्कृति है, यह माना है तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि संस्कृत में वैदिकतेर परम्पराओं से संबद्ध बौद्ध, जैनों, चार्वकों, मुसलमानों और ईसाइयों का प्रचुर साहित्य है। संस्कृत की कोई एक संस्कृति नहीं है, एक धारा भी नहीं। संस्कृतिवैविध्य और प्रवाहवैविध्य है। वहाँ ‘जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्’ मानते हुए ऋषियों ने बहुत पहले इसकी पृष्टि कर दी थी। संस्कृताश्रित संस्कृति की कुछ धाराएँ भारत से बाहर भी फैलीं और इन धाराओं ने उन उन देशों की धाराओं के साथ संगम रचाया। ‘संस्कृतधारा तो शक प्लक्ष आदि द्वीपान्तरव्यापिनी है’ यह जो कहा गया, इसमें मेरी दो तरह की आपत्तियाँ हैं। पहली तो यह कि कोई एक धारा नहीं है जो भारतेतर देशों में व्याप्त हुई। वहाँ नाना धाराएँ व्याप्त हुई थीं। और दूसरी यह कि आपकी अवधारणा के अनुसार यह संस्कृतधारा अथवा मेरी अवधारणा के अनुसार बहुत सी संस्कृताश्रित संस्कृति की धाराओं ने ही भारतेतर देशों की संस्कृति को बनाया, यह भी मैं नही मानता। उन उन देशों की संस्कृतियों ने संस्कृताश्रित संस्कृतियों या उनके प्रवाहों के कुछ तत्त्वों को अंगीकार किया तथा संस्कृतधाराओं ने भी उन उन देशों को संस्कृतप्रवाहों के संगम से अपना विकास किया। बर्मा, थाईलैंड, मलयेशिया, जापान, इण्डोनिशिया, वियतनाम, लाओस आदि देशों की संस्कृतियाँ केवल संस्कृतमात्र या भारतीय संस्कृति मात्र की उपजीविनी नहीं हैं। उन देशों की अपनी स्थानीय परम्पराएँ, अपनेआख्यान और अपनी जीवनपद्धतियाँ हैं। इन परम्पराओं, इन आख्यानों अथवा इन जीवनपद्धतियों ने संस्कृताश्रित परम्पराओं से संगम कर उन उन देशों की संस्कृति को बनाया तो प्रत्येक देश की एक भिन्न, विशिष्ट संस्कृति बन गई। यह संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों के पारस्परिक आदान-प्रदान से विकसित हुई, जिनमें संस्कृत से निःसृत संस्कृतियाँ भी थीं और इतर संस्कृतियाँ भी। संस्कृत भाषा, संस्कृत साहित्य परम्परा, संस्कृताश्रिता संस्कृति या संस्कृतियों ने जम्बूद्वीप के मध्य गणनीय भारतेतर देशों अथवा जम्बूद्वीपेतर देशों की संस्कृतियों के निर्माण में बहुत बडा योगदान किया है, इसमें कोई संशय नहीं है।
यहाँ यह समझने की बात है कि भारत देश या एशियामहाद्वीप या संस्कृत की एक संस्कृति नहीं है, क्योकि उसमें अनके संस्कृतियाँ गुँथी हुई हैं। तथापि जाति में एक वचन के विधान के अनुसार लाघवार्थ संस्कृताश्रित संस्कृति या भारतीय संस्कृति संज्ञा के प्रयोग का अनुमोदन किया जा सकता है। एशिया महाद्वीप की एक विशिष्ट संस्कृति है। उसके निर्माण, विकास और समुल्लास में संस्कृताश्रित भारतीय संस्कृति का भी अवदान है। वह ईसाई सम्प्रदाय का आधार लेकर प्रवर्तित योरोपीय संस्कृति से अलग पड़ती है, तथापि यह संस्कृति, केवल संस्कृताश्रिता है, ऐसा कहना उचित नहीं है।
संस्कृताश्रित संस्कृति का भारतेतर देशों में भी प्रसार होने पर हम उसे भारतीय संस्कृति कैसे कह सकते है, इस प्रश्र में आपका आशय यह प्रतीत होता है कि संस्कृताश्रित संस्कृति भारतीय संस्कृति से व्यापकतर है। इसके उलट कर मैं तो यह कहता हूँ कि भारतीय संस्कृति ही संस्कृताश्रित संस्कृति की अपेक्षा अधिक व्यापक है। भारतीय संस्कृति के निर्माण, विकास एवं समुल्लास में आदिम जनजातियों, वैदिकेतर परम्पराओं, तमिलादि भाषाओं पर अवलम्बित संस्कृतियों, इस्लामपरम्पराओं, ईसाईपरम्पराओं का भी बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण अवदान है। जैसे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कपिल-कणाद गौतम आदि दर्शनिक, बुद्धमहावीर आदि महापुरुष, कालिदासादि महाकवि उसके निर्माता हैं, वैसे ही सीलप्पकादिरम् या  तोलकाप्यम् के काव्यकार, तुलसी, गालिब, सुब्रह्मण्य भारती आदि सुकवि भी उसके निर्माता हैं।
यदि भाषा आश्रय, अधिकरण या अधिष्ठान है तो वह आश्रित या आधेय से भिन्न है। संस्कृत संस्कृतियों का आश्रय है, वह संस्कृतियों से पृथक् है। भाषा व्यापक होती है और संस्कृति व्याप्य। पृथ्वी या देश अनेक भाषाओं का आश्रय स्थान है, अत: पृथ्वी या देश भाषा से व्यापक है और भाषा उससे व्याप्य है। भारतीय संस्कृतियाँ संस्कृताश्रित संस्कृतियों अतिरिक्त भी हैं, यह कह सकता हूँ।
3.संस्कृत  कैसे परम्परा से जुड़ी हुई है? क्या  वह बीते हुए घटनाचक्र का इतिवृत्त मात्र है अथवा उसके सहित या उसके बिना, उसके विशेष से विमुक्त कोई चिन्तन है ? और संस्कृति यदि परम्परा का अनुवचन ही है तो सर्जक का सर्जन क्या रहा ?
कोई एक परम्परा संस्कृत से जुड़ी हुई नहीं है। नाना परम्पराएँ अनुस्यूत हैं। केवल प्राचीन इतिवृत्त में संस्कृत का परम्पराबाहुल्य कैसे खप सकता है? वहाँ राम भी है, कृष्ण भी, बुद्ध भी, तथा मोनालिसा भी। योरोपभ्रमण की अनुभूतियाँ हैं, वहाँ  ‘भावान्तराणि जननान्तरसौहृदानि’ भी समुल्लसित है, बुद्ध के भिक्षापात्र में डूबकी लगता अणुबम्ब से जला हुआ शहर है, वहाँ विषुवियस की लपटें और वेनिस नगर की कुल्याएं भी हैं।
४.बीत चुकी वर्णाश्रमसभ्यता स्मृतिबल से संस्कृत सर्जक व सर्जन के सामने खडी है और हम युग की वर्तमान सभ्यता को जी रहे है। इस सभ्यता को पाश्चात्य कहें या पाश्चात्यप्रभाव से प्रभावित, किन्तु उसी को जीते हुए हमारी सात पीढियाँ बीत चुकी हैं। अत: क्या सर्जक के लिए क्या मार्ग है?
यह प्रश्र काफी जटिल है। वर्णव्यवस्था से क्या आशय है, यह पहले बतलाना चाहिए। जो वर्णव्यवस्था का समर्थन करते हैं, वे प्रच्छन्नरूप से जातिवाद का समर्थन करते हैं। वे बड़ी ऊँची किन्तु खोखली बातें करते हैं, वे कहते हैं: जाति, जन्म से नहीं होती है। चातुर्वर्ण्य तो भगवान ने गुणकर्मविभागश: सिरजा है। जो ज्ञानगरिमा से सम्पन्न हैं, वे ब्राह्मण हैं। जो रक्षाकर्म कुशल हैं, वे क्षत्रिय हैं, जो शिल्प व कला में कुशल हैं, वे शूद्र हैं। इस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि जन्म से नहीं होते हैं। दूसरे वर्णव्यवस्था की उससे भी गूढ गंभीर व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं- देखिये, कितनी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि यहाँ पर भारतीय चिन्तकों की है( मनुष्य की चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं-- ज्ञान, रक्षण, व्यवसाय और कला, उस अनुसार उसका वर्ण होता है। ये वचन कितने मनोरम प्रतीत होते हैं( परन्तु जो इन बातों को कहते हैं, वे व्यवहार में प्राय: जन्म से ही जाति का पोषण करते हैं। फलत: ये वचन सिद्धान्त में ही रह जाते हैं, व्यवहार में तो ब्राह्मणों के बेटे ब्राह्मण ही होते हैं और क्षत्रियों के बेटे क्षत्रिय। हमारे जीवन में सिद्धान्त व्यवहार का जैसा द्वैध है, वैसा शायद ही अन्यत्र हो। वर्णाश्रम व्यवस्था जातिवाद से जुड़ गई। अति प्राचीन काल में ही जातियों में सांकर्य उत्पन्न हो गया था। जातिगत शुद्धता का आग्रह मिथ्या हो गया। महाभारत के ‘जातिरत्र महासर्प’ इत्यादि वचनों से इसकी पृष्टि होती है। स्मृतिकारों ने वर्णाश्रमव्यवस्था की जैसी अवधारणा की है, वर्तमान में वैसी अभ्यास या व्यवहार में नही है। व्यवहार में वर्णव्यवस्था धूल चाट रही है, व्यवहार में जातियाँ उखड़ चुकी हैं। हमारे संस्कारों में जातिवाद का दुराग्रह जरूर मुँह फैलाये खड़ा है।
संस्कृत साहित्यकारों के  समाज में वर्णाश्रमव्यवस्था और जातिवाद के संस्कार जागरित हैं,  साहित्य रचते समय तो सरस्वती जागती है, वही अवांछित संस्कारों को उखाड़ फैंकती है और सर्जनोत्प्रेरक भावों या संस्कारों को उन्मीलित करती है। साहित्य रचना के लिए सारे पूर्वाग्रह, आग्रह, धारणाएँ, पूर्वनिर्मित विचार प्रत्यवाय ही हैं। उनको उपेक्षित करके ही साहित्यसाम्राज्य में स्थित होना चाहिए, वहाँ अन्य का आदेश नहीं हो।
५.पद पद पर पार्थिव मूर्ति की स्तुति करने वाले यत् किञ्चित् संस्कृतसाहित्य का सम्प्रदायगत विधि से विवश होने के कारण मुस्लिम जन निषेध क्यों कर न करें ?
प्रश्न में सारे मुस्लिम समाज का जो साधारणीकरण किया गया है, उसमें मेरी आपत्ति है। वहाँ सभी लोग मूर्तिभंजक नहीं होते हैं। उनमें सभी मूर्तिभंजक सम्प्रदाय से संबद्ध नहीं होते हैं। रहीम आदि मुसलमानों ने संस्कृत में, रसखान, नज़ीर आदि ने ब्रज या उर्दू में भक्तिभाव से तन्मय होकर कृष्णभक्ति परक अत्यन्त रमणीय काव्य रचे हैं। उससे उनका मुस्लिमत्व नष्ट नहीं हो गया। पाँच बार निष्ठा के साथ नमाज पढ़ेगेंए और कीर्तन में भी सम्मलित होंगे ऐसे लोग भी उस समाज में हैं। राजस्थान में जहाँ आप हैंए मुस्लिम समाज के कुछ पारंपरिक  कलाकार कई पीढियों से केवल रामायण गायन का काम करते रहे हैं। हमारा सांस्कृतिक वैभव और वैविध्य ऐसे लोगों की निष्ठा और खुली दृष्टि से बना है। दूसरी बात यह कि पार्थिवमूर्ति के स्तुतिपरक संस्कृत काव्यों को वर्जित करने वाले लोग मुसलमानों में ही हैं, ऐसा नहीं है। देवताओं के पार्थिव विग्रह को मन में रख यदि उनकी स्तुति में कोई कवि कविता करता है तो वहाँ सबका समान रूप से रसास्वाद नहीं हो सकेगा। ऐसे स्तुति काव्य उनके लिए समान रूप से रसनीय नहीं रह जाते जिनकी स्तुत्य देवों में आस्था नहीं है। कभी कभी भावसौन्दर्य के कारण उन काव्यों के अनुशीलन में अनास्थाशील की भी रुचि हो जाती है यह बात अलग है। अनास्थाशील होते हुए भी मैंने सौन्दर्यलहरी, स्तुतिकुसुमाञ्जलि आदि के पाठ से सौन्दर्यधारा से आप्लवित भावों साक्षात् किया है। फिर भी धार्मिक सम्प्रदायविशेष के भीतर रचे जाने वाले काव्य या साहित्य की सबके लिए समान रसनीयता नहीं हो सकती। वहाँ न तो पूर्ण साधारणीकरण होता है और न तादात्म्य। रसास्वाद की यह भी एक कोटि है। इस कोटि में अवस्थित होकर जो काव्यानुशीलन करते हैं, वे अरसिक होते हैं, यह भी नहीं मानना चाहिए। वे रसिकोत्तम हो सकते हैं। क्योंकि वे अपने विवेक को विसर्जित कर काव्यास्वादन नहीं करते हैं। यदि विवेकविसर्जन पूर्वक साहित्य का रसास्वादन किया जाता है तो सतृणाभ्यवहारिता हो जाती है अत: पुराने पण्डितों ने ठीक ही भक्ति का रसत्व अस्वीकार किया। जिसकी श्रीकृष्ण में भक्ति नहीं है, उसके लिए गौडीय भक्ति संप्रदाय के अनुगामी कवियों द्वारा रचे गए काव्य कदाचित् वैरस्यजनक हो सकते हैं। सारे श्रोता या पाठक हमारे काव्य के रसास्वाद हेतु कृष्णभक्त हों, जो नहीं होते है, वे निन्दनीय है, साहित्य में ऐसा अनुशासन कोई नहीं चला सकता, भले ही वह महाकवि हो या महान् समीक्षक ।
हमारी संस्कृति में तो जो पार्थिवमूर्तिपूजा को धिक्कारते हैं, उन दयानन्द आदि, चार्वाकों आदि का भी महनीय स्थान है। संस्कृतपरम्पराओं में, हमारी चिन्तनधाराओं में और संस्कृत साहित्य में मुसलमानों की जग़ह कैसे हो सकती है, इसके विरुद्ध में मैं कुछ अन्य कहना चाहता हूँ। जो जडबुद्धि संस्कृत परम्पराओं में मुसलमानों के लिए जग़ह नहीं है, ऐसा विचार भी मन में लाते हैं, वे वस्तुत: असंस्कृत हैं, भले ही वे कितने बड़े विद्वान् बुद्धिजीवी पण्डित या विषयविशेष के विशेषज्ञ शास्त्रज्ञ क्यों न हो। इन मन्दबुद्धियों की दुष्टता से सरस्वती क्षीण होती हैं, मुस्लिम-ईसाई मतावलम्बी संस्कृत को सम्प्रदायविशेष की भाषा मानते हुए उसके अध्ययन से विमुख हो जाते हैं। फिर भी आज भी उनमें भी अल्बेरूनी, अब्दुलरहीम खानखाना और दाराशिकोह सदृश लोग हैं ही।
शुक्रस्मृति में बत्तीस विद्याएँ गिनाई गई  हैं। उन बत्तीस विद्याओं में एक विद्या के रूप में यवनदर्शन भी गिना गया है। नवमी शताब्दी में तुर्कों, मुसलमानों का भारत में आक्रान्ता के रूप में आगमन नहीं हुआ था। परन्तु इस्लाम की उस काल में संस्कृत विद्याओं में जग़ह है। ताजिक विद्या का अध्यययन करने के लिए उसी काल में नीलकण्ठ काश्मीर गए थे।
धर्म के नाम पर आतंक पुष्ट किया जाता है। उस के कारण इस तरह की विडम्बना खड़ी हो जाती है। साहित्य तो इस प्रकार के आंतकवाद का प्रतिरोधी है।
6.सहस्राब्दियों पहले रचे गए,चाहे वह लैटिन का हो या यहूदी का अथवा संस्कृत का, साहित्य का इस युग के सर्जकों के  कैसा संबंध हो सकता है? उन युगों का तात्कालिक और इस युग का एतत्कालिक समाज समाकारिता कैसे हो सकती है? यह सही है तो फिर कैसी संस्कृतिसंरक्षा संस्कृत लेखन से अथवा तो तदानीन्तन युगदृष्टि की पृष्टि अधुनातन सर्जन से क्यों कर होगी।
ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं के प्राचीन साहित्य से आजकल के योरोपीय साहित्यकारों का कदाचित् दृढ संबंध नहीं है। परन्तु संस्कृत के पुरातन साहित्य से वर्तमान संस्कृत सर्जकों का गहरा संबंध है। कहीं कहीं तो आवश्यकता से भी ज्यादा संबंध है, यह हम देखते हैं। इसका खास कारण है। ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं का जो प्राचीन स्वरूप था, वह अब बदल चुका है। उन भाषाओं का पुरातन साहित्य आधुनिक काल के साहित्य सर्जन से नहीं जुड़ेगा। संस्कृतभाषा पाणिनि से लगाकर आज तक अपने स्वरूप में मौजूद है। उसका साहित्य अधुनातन संस्कृत सर्जकों के मानस के साथ संशिष्ट हो जाता है। इस संश्लेष के नाना रूप हैं। वाल्मीकि कालिदास आदि के काव्य अब भी हमारे लिए सहज बोधगम्य हैं, किन्तु उनका अनुसरण करते हुए या उनके अनुरूप संस्कृत में नयी रचना करनी चाहिए, ऐसी बात नहीं है। उनका अतिक्रमण करके अथवा उनसे आगे जाकर हम रच सकते हैं, यह संभावना बनती है।
7.हिन्दुत्व के साथ संस्कृत की अन्विति कितनी है? है अथवा नहीं  है?  उसका हिन्दुत्व से भिन्न स्वरूप है?  समकालिक रचनाओं से क्या तथ्य प्रकट होता है?
जिस संस्कृत भाषा में मैं काव्य करता हूँ या रचता हूँ,  जिस संस्कृतभाषा के साहित्य को पढ़ कर मैं परितोष प्राप्त करता हूँ, उस संस्कृत भाषा और उसके साहित्य का हिन्दुत्व के साथ कोई संबंध नहीं है। वहाँ तो सब कुछ हिन्दुत्व से व्यतिरिक्त ही है। वेदों से लेकर, व्यास-वाल्मीकि से लेकर, पुराणों से लेकर, कालिदास से लेकर, भवभूति से लेकर, राधावल्लभ से लेकर आज तक के संस्कृत साहित्य में तथाकथित हिन्दुत्व भावना से हिन्दू शब्द का ही प्रयोग नहीं है। हिन्दू शब्द ही संस्कृत शब्द नहीं है। संस्कृत साहित्य में उसके प्रयोग  का अवकाश या कारण भी नहीं था, अत: उसका प्रयोग नहीं है। अरबदेशीयों या विदेशियों ने सिन्धुतट प्रदेशों में निवास के कारण भारतीयों के लिए ‘ये हिन्दू हैं’ ऐसा निरादर पूर्वक हिन्दू शब्द का प्रयोग किया था। उन विदेशियों द्वारा जूठे के रूप में उगले हुए हिन्दू शब्द को हमने अङ्गीकृत कर लिया। बाद में योरोपीय संस्कृतिविदों, जिन्होनें संस्कृत साहित्य का अनुशीलन किया, संस्कृत साहित्य को प्राय: हिन्दूसाहित्य कह कर निर्दिष्ट किया। यह कैसी दुरभिन्सन्धि या मतिमान्द्य है कि वात्स्यायन के कामसूत्र को भी ‘ए हिन्दू बुक आफ सेक्स’ कहा जाता है। सभी मानव इस शास्त्र का अभ्यास कर सुखी हों, इस बुद्धि से यह शास्त्र रचा गया था। जिसने इस शास्त्र का प्रणयन किया, वह तो हिन्दू इस नाम को भी नहीं जानता था।
यह हिन्दू शब्द नानाविध अभिप्रायों से नाना अर्थों में आजकल प्रयुक्त होता है। इसका अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असम्भव-- इन तीन दोषों से रहित लक्षण भी सभव नहीं है। मुस्लिम, ईसाई, यहूदी आदि शब्दों में वैसा नहीं है। उनका लक्षण किया जा सकता है। जो कुरान और मोहम्मद साहब के पैगम्बरत्व में विश्वास करता है, वह मुसलमान है। जो बाईबिल और ईसामसीह के ईश्वरपुत्र होने में आस्था रखता है, वह ईसाई है, ऐसा सुगमलक्षण हो सकता है। इस तरह यहूदी आदि शब्दों में भी है। परन्तु हिन्दू कौन, इस प्रश्न का क्या उत्तर है? कहा जाय कि जो वेद में श्रद्धा रखता है, वह,  तो किस वेद में? वेद तो विविध हैं। शैवागम भी वेद हैं। यदि जो भारत में रहता है वह हिन्दू है तो भारत में रहने वाला भारतीय है, ऐसा सीधा कहिए, इतना घुमा फिर क्यों कहा जाए। भारत को हमारे संविधान में परिभाषित किया गया है, वह सुविदित ही है। भारत को हमारे पुराणकार ऋषियों ने परिभाषित किया है, वह भी सब जानते हैं।
इस प्रकार विदेशियों में कुछ ने अनादर भावना से और दूसरे कुछ ने दुरभिसन्धि, दुष्टतापूर्ण मूर्खता या विशुद्ध मूर्खता से हिन्दू संज्ञा का प्रयोग हम भारतीयों के लिये किया। इस शब्द को हमने अपने जात्यभिमान के साथ स्वीकार और महिमा मण्डित किया। यह हमारी विवशता हो सकती है। क्योंकि मुसलमानों, तुर्कों, ईसाईयों के समाज में सांगठनिक रूप से रिलीजन अर्थ में जैसा धर्म था, वैसा कोई एक धर्म भारतीय समाज में नहीं था। हमारे समाज में तो अनेक वेद, अनेक स्मृतियाँ, बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि अनेक मत, वैष्णव शैव, शाक्त आदि सैकड़ों संप्रदाय थे। एक पैगम्बर, एक मसीहा हमारे समाज में नहीं था। हमारे तो सैकड़ों पैगम्बर, हजारों मसीहा होगें। यह विविधता, यह बहुलता और सर्वस्वीकार ही हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व  और धर्मपरम्पराओं का वैशिष्ट्य था। परन्तु मुस्लिमों, यहूदियों या ईसाइयों द्वारा ‘तुम्हारा धर्म क्या है’, यह पूछने पर ‘क्या कहें’ की ऊहापोह में ‘हिन्दू धर्म’  ऐसा सरल समाधान हम ने स्वीकार लिया। हिन्दुत्व उपाधि को हमने स्वयं आरोपित किया, यह हमारा सहज धर्म नहीं है। एक तो करैला, और नीम चढ़ा, इस तर्ज पर इस आरोपित उपाधि को राजनैतिक प्रपञ्च/ पचड़े में संकीर्णबुद्धियों द्वारा बहुत बड़ा वितण्डावाद खड़ा करने हेतु बार बार दोहराया जाता है। अज्ञानता और विदेशियों के अन्धानुकरण करते हुए हम हमारी उदार और प्रातिस्विक परम्पराओं को भूल रहे हैं, यह विडम्बना है।
मैं ऋषियों के कुल में जन्मा हूँ। मैंने भी तप तपा है। विदेशियों के जूठे को मैं कैसे अकारण निगल जाऊँ? मैं हिन्दुस्थान में नहीं रहता हूँ। हिन्दुस्थान मेरा देश है, ऐसा उपदेश किसी भारतीय ऋषि, दार्शनिक या तत्त्वचिन्तक ने मुझे नहीं दिया। मैं भारत देश में रहता हूँ और उस कारण भारतीय हूँ। यही उपदेश भी मेरे ऋषियों ने बार बार मुझे दिया है -
‘उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती तत्र सन्तति:।।, ऐसा कहते हुए।
मेरी रचनाओं में कोई हिन्दुत्वभाव स्फूर्त नहीं होता है, वहाँ भारतीयता का भाव प्रकट होता है, यह मैं साहित्यकार के स्वभाव से कह सकता हूँ। अन्य साहित्यकार भी परास्वादन इच्छा से विरत होकर अपने स्वभाव का अनुशीलन करें।
८.वेदों से लेकर अब तक संस्कृत रचनाकारों का विचारगत कोई परिवर्तन क्रम है अथवा नहीं।
परिर्वतन तो नियति का विधान है। वेदों या उपनिषदों में ही परिवर्तमान संसार स्फूर्त  हेता है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विचारकोश अलग पड़ता है, जीवनदर्शन में बदलाव आता है। मेरे अपने साहित्य में परिवर्तन दिखलायी पडता है। साहित्य यात्रा के कितने कितने पथ परिवर्त नहीं हुए, तथापि कोई सनातनता यहाँ अनुस्यूत है। वैदिकों ने इसे ‘ऋत’ नाम से कहा है। प्रकारान्तर से ‘ऋत’ की भावना हम सबके अच्छे साहित्य में चली आ रही है। बाहरी  दूनियाँ मे जो बदलाव होते हैं, उनसे हमारी रचनाएँ अछूती नहीं रह पाती हैं।
९.तथाकथित सवर्णों से भिन्न संस्कृत लेखकों को गिनाया जा सकता है?
आधुनिक संस्कृत साहित्य में ‘ये सवर्ण और ये असवर्ण’ ऐसा भेद दिखलायी नहीं पड़ता है। यह उचित भी है। मैं तो उन पण्डितों और महाकवियों को जानता हूँ और बहुत मानता हूँ जिन्होनें वर्णव्यवस्था की तीखी निन्दा की है, उसे धिक्कारा है। छात्रपतिसाम्राज्य जैसे सर्वांग रमणीय महाकाव्य के लेखक, काशी के पण्डित, उमाशंकरशर्मा त्रिपाठी का काव्य ‘अस्पृश्यान्तर्निवेदितम्’ को देखिए। वहाँ किस तरह अंगारों-से भमभते और वेदना से सने शब्दों के माध्यम से वर्णव्यवस्था को धिक्कारा गया है। साहित्यकार जब साहित्य रचता है तो वह उस समय सवर्ण या असवर्ण नहीं होता है। वह विश्वजनीन कारुण्य में डूबता है। संस्कृत में असवर्ण साहित्यकार अब हैं या नहीं, इसका मैंने नोटिस नहीं लिया। कदाचित् न भी हों। प्राय: जाति या जन्म से संस्कृत साहित्यकार ब्राह्मण होते हैं। उनमें जो विप्रकुल में नहीं जन्मे हैं, वे भी संस्कृत जानने के अभिमान से अपने को ब्राह्मण घोषित कर देतें हैं तथा ब्राह्मणवाद का पोषण करते हैं। जबकि दूसरी तरफ़ उमाशंकर शर्मा, राधावल्लभ, महाराजदीन पाण्डेय आदि विप्रकुल में जन्म लेकर भी साहित्य में दलितों, असवर्णों, अन्त्यजों की व्यथा प्रकट करते हैं।
वैदिक ऋषियों  में ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऐतरेय महीदास इतरा नामक दासी के बेटे थे। जबाला  दासी का बेटा सत्यकाम जाबाल ऋषि हुआ था। इसी तरह कवष, ऐलूष आदि, और अन्य भी अन्त्यजकुल में जन्मे ऋषि और कवि  तब हुए थे। राजा श्रीहर्ष के दरबार में धावक धोबी जाति और मातंग दिवाकर चाण्डाल कुल में जन्मे थे। ये दोनों महाकवि थे। हमारे पाँच हजार वर्षों के इतिहास में ये चार या पाँच उदाहरण अन्त्यज ऋषियों या कवियों के हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य में भी बाद में अध्ययन करने पर उल्लेखार्ह चार या पाँच उदाहरण मिल ही जायेंगे।
10.धर्मशास्त्र अपने युग का नियामक होता है। प्रत्येक युग अपना धर्मशास्त्र संविधान उस समय की प्रतिष्ठित भाषा में रचता है, जैसा कि इस समय हम भारतीयों का धर्मशास्त्र अँगरेजी में लिखा हुआ है। संविधान व काव्य एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, किन्तु उतने ही एक दूसरे के आमने सामने भी होते हैं। संस्कृत में लिखे गए धर्मशास्त्र संविधानों का तत्कालीन या उत्तरवर्ती काल में काव्य द्वारा प्रतिरोध कोई परम्परा दिखाई देती है।
भवभूति प्रतिष्ठित मीमांसक कुल में जन्मे। नाटकादि की रचना में लगे होने से धर्मशास्त्रियों ने उनकी उपेक्षा करने पर आक्रोश में भर कर उन्होंने ʻये नाम केचिददिह न: प्रथयन्त्वज्ञाम्ʼ – यह श्लोक लिखा, यह तत्त्वप्रदीपकार के प्रामाण्य से कह सकते हैं। शंकराचार्य को धर्मशास्त्रानुरोध से अपनी माँ का और्ध्वदैहिक कर्म करने से रोका गया, परन्तु उन्होनें धर्मशास्त्रावलम्बी ब्राह्मणों के मत का अनादर करके स्वेच्छानुसार अपनी माँ का अन्तिम संस्कार किया। धर्मशास्त्रों में कहीं पर दी गई विधवा विवाह, समुद्र यात्रादि के निषेध इत्यादि अनेक व्यवस्थाओं का विरोध आधुनिक संस्कृत साहित्य में हुआ है। ईश्वरचंद विद्यासागर ने विधवाविवाह के समर्थन में संस्कृत में निबन्ध लिखा और छपाया। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री आदि साहित्यकारों ने विधवा जीवन के बारे में उपन्यास, कहानियों की रचना की है। वहाँ भी प्रकारान्तर से परोक्ष रूप से संकीर्ण धर्मशास्त्रियों का विरोध है ही। महिलाओं में संस्कृत विदुषी पण्डिता रमा देवी ने मनुस्मृति का प्रखर विरोध किया। क्षमा देवी के साहित्य में विरोध के स्वर गुंजायमान हैं।
११.संस्कृत समाज के लिए आधुनिकता, युगीनता क्या संरचना के क्षेत्र में नवोत्कर्ष ही हैं कि विधाप्रवर्तक भट्ट मथुरानाथ शास्त्री को जो संमान दिया, वह विचारप्रवर्तक क्षमा देवी राव को नहीं मिल सका। हर्षदेव माधव की वैचारिकता की अपेक्षा उनके तान्का, हाइकु आदि की चर्चा अधिक की जाती है?
संस्कृत पण्डितों के समाज में जितना श्रम शास्त्रों में किया जाता है, उतना चिन्तन का प्रकर्ष साधने में नहीं। और नयी विचारधाराओं का अवबोध-अभ्यास भी नहीं होता है। अत एव कवि की रीति, शैली या उसके द्वारा स्वीकृत विधा की जैसी चर्चा होती है, वैसी चर्चा उसकी वैचारिकी की नहीं हो पाती है। तथापि आशा के लिए अवकाश है। मैं संस्कृत में बहुत से उदीयमान विद्वानों और विदुषियों को देख रहा हूँ जो संरचनावाद को एक तरफ कर तत्त्वदृष्टि से साहित्यानुशीलन के लिए जुटे हुए हैं।
१२. आपके ‘अन्यच्च’ और ‘ताण्डवम्’ दोनों उपन्यासों में वस्तुतत्त्व विगतकालिक है। लहरीदशक की वसन्त, निदाघ आदि लहरियों में वर्तमान अप्रकृत है। विद्यमान देश और काल आपके साहित्य में सुदृढ गृहीत होने के बावजूद अप्रस्तुत है। अप्रकृत-अप्रस्तुत में सुरसामुख-से विस्तीर्ण देश-काल को निक्षिप्त कर रचना करना क्या प्रत्यक्ष से आमने-सामने की टकराहट से पलायन तो नहीं है?
प्रस्तुत, प्रकृत और वर्तमान का साक्षात् ग्रहण भी मैंने किया है। मेरे पहले काव्यसंग्रह ‘सन्धानम्’ की ‘धर्माचार्य:’ , ‘कविगोष्ठी’ इत्यादि कविताओं का उदाहरण दिया जा सकता है। ‘स्मितरेखा’ में संकलित मेरी समस्त कहानियाँ सीधे वर्तमान को विषय बनाती है। इसी तरह ‘प्रेक्षणकसप्तकम्’ में संकलित सभी रूपक भी। उपाख्यानमालिका और अभिनवशुकसारिका में तो पुराकाल और सांप्रतकाल --दोनों को एकसाथ उभारा गया है। आपका जानकीजीवनमहाकाव्य विषयक लेख मैंने पढ़ा है। सीता के चरित्र के उपस्थान में अभिराज राजेंद्र मिश्र ने महान् साहस और क्रान्तदर्शित्व प्रदर्शित कया, यह उसे पढ़ कर ही जाना। रामायण को आधार बना कर लिखे काव्य में यदि पलायन नहीं माना जाता है तो अन्यच्च, ताण्डवम् आदि के बारे में भी उस दृष्टि से विचार कीजिए। कश्मीर में जो दुःखद स्थिति  आज दिखलायी पड़ती है, उसके स्पष्ट संकेत दोनों उपन्यासों में हैं। वस्तुत: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर  इन उपन्यासों की रचना का मेरे लिए एक कारण यह भी था कि आज की विसंगतियों का बोध मर्म को छूने वाला हो। भवभूति ने उत्तररामचरित, भारवि ने किरातार्जुनीय और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में पुराकालिक वस्तु को लेकर भी अपने देश-काल के जो संकेत किये हैं, वे मर्म को अधिक छूते हैं।
कहीं  वर्तमान से, अथवा टी. एस. इलियट् के अनुसार अपने अन्त:पुरुष से पलायन करके और ज्यादा साहसिक कटाक्ष वर्तमान पर किया जा सकता है। फिर भी यह प्रश्र विचारणीय है। सांप्रतिक संस्कृत साहित्य में कितना सांप्रतिकत्व है और कितना रामायणादि की वस्तु के बहाने पलायन, यह गवेषणा करनी चाहिए। आपके जैसे युवा अधीती इस काम को करें।



Pro.Radhavallbh Tripathi
Address: 21, Land mark city,
(Near Bhel Sangam Society
Bhopal-462 026

डाॅ प्रवीण पंड्या
शास्त्रीनगर सांचौर
जिला जालौर राज 343041
मो 9602081280

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

ऋषिका दक्षिणा

ऋषिका दक्षिणा
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आत्मरूप का वर्णन करने वाली दक्षिणा,रात्रि, श्रद्धा तथा शची नाम कि ऋषिकाएं हैं ।इन ऋषिकाओंक्षके द्वारा अपने ही चरित का गान किए जाने से वह अपने द्वारा दृष्ट सूक्तों की देवता भी हैं ।इन्हीं में दक्षिणा ने दिव्य नामक अंगिरस् ऋषि के साथ दशम मंडल के 10 7 वें सूक्त का दर्शन किया है ।
वस्तुतः दक्षिणा आदर पूर्वक किया गया कार्य का पारिश्रमिक है । इसमें कार्य संपादक व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता तथा कार्य के प्रति सम्मान आदर व्यक्त होता है । आदर्श समाज के लिए कर्म कराने  तथा कर्म करने वाला दोनों ही पूज्य हैं।

बुधवार, 23 अगस्त 2017

वदतु संस्कृतम्



१  लिड़्गभेदज्ञापनम्
   
#  सः सुधाखण्डः
    सः चषकः
    सः चमषः

# सा कुञ्चिका
    सा ध्वनिमुद्रिका
    सा जलकुपी

# तद् फलम्
   तद् पुष्पम्
   तद् शिलाखण्डम्


२ वहुवचन

# बालकः--बालकाः
    लेखकः--लेखकाः
   सैनिकः--सैनिकाः

# बालिका--बालिकाः
    लेखिका--लेखिकाः
    नायिका--नायिकाः

#  पुष्पम्--पुष्पाणि
     फलम्--फलानि
     मित्रम्--मित्राणि

३  ते के ?/ ताः काः ?/ तानि कानि ?

#  ते बालकाः/शिक्षकाः/नायकाः

# ताः बालिकाः/छात्राः/नायिकाः

# तानि फलानि/पुष्पाणि/मित्राणि



४  एते के ?/ एताः काः ?/एतानि  कानि ?

# एते शिक्षकाः/चषकाः/चमषाः

# एताः लेखन्यः/शाटिकाः/शिटिकाः

# एतानि परिचयपत्राणि/दन्तफेनकानि/स्नानफेनकानि


५ भवन्तः/भवत्यः/वयम्

# भवन्तः बालकाः/शिक्षकाः/राष्टसेवकाः

# भवत्यः नायिकाः/गायिकाः/पाचिकाः

# वयं राष्टसेवकाः/नायकाः/लेखकाः


६  सन्ति/कति ?

 # अत्र दश मृगाः सन्ति ।
    अत्र कति मृगाः सन्ति ?
   
   अत्र दश शिक्षकाः सन्ति ।
   अत्र कति शिक्षकाः सन्ति ?


७  सप्तमी विभक्ति ।

 #  हस्तः--हस्ते
     बिद्यालयः--बिद्यालये
     हस्ते कलमः अस्ति
 
# पेटिका--पेटिकायाम्
    खातिका--खातिकायाम्
    पेटिकायां धनं सन्ति ।
    खातिकायां कर्गजानि सन्ति

८  वासराणां नामानि
   
# सोमवासरः/मंगलवासरः/वुधवासरः/गुरूवासरः/शुक्रवासरः/शनिवासरः/रविवासरः

९  अद्य/श्वः/परश्वः/प्रपरश्वः

 # अद्य--अद्य सोमवासरः
     श्वः--श्वः मंगलवासरः
     परश्वः-परश्वः वुधवासरः
     प्रपरश्वः--प्रपरश्वः गुरूवासरः

#  अद्य/ह्यः/परह्यः/प्रपरह्यः
   
     अद्य--अद्य सोमवासरः
     ह्यः--ह्यः रविवासरः
     परह्यः--परह्यः शनिवासरः
    प्रपरह्यः--प्रपरह्यः शुक्रवासरः

१० गच्छन्ति/गच्छन्तु/गच्छामः

# बालकाः गच्छन्ति/धावन्ति/ खादन्ति

#  भवन्तः पिवन्तु/लिखन्तु/आगच्छन्तु

# वयं क्रिडामः/पश्यामः/कुर्मः


११ शिष्टाचारः--नमस्ते/सुप्रभातम्/शुभरात्री/सुसायम्/सुमध्यानम्/क्षम्यताम्/चिन्तामास्तु


१२  प्रातः विधि--मुखप्रक्षालनम्/दन्तधावनम्/शौचम्/स्नानम्/देवपुजनम्/भोजनम्


१३  संख्याः--१•••••••५०


१४  समयः--
      ०५•०५--पञ्चाधिक पञ्चवादनम्
      ०५•१०--पञ्चाधिक दशवादनम्
      ०५•५५--पञ्चोन षड् वादनम्
      ०५•५०--दशोन षड् वादनम्


        समाप्तम्


शनिवार, 5 अगस्त 2017

आधुनिक संस्कृत साहित्य में डॉक्टर राजेन्द्र त्रिपाठी'रसराज' क्या योगदान

परिचायिका—
* नाम : डॉ.राजेन्द्र त्रिपाठी 'रसराज '
*पिता : श्री राम निहोर त्रिपाठी
*माता : श्रीमती कमला त्रिपाठी
*भार्या: श्रीमती डॉ.रेखा त्रिपाठी
*पुत्री : कु.माधवी त्रिपाठी
*पुत्र : तुषित त्रिपाठी
*जन्मतिथि : 12. 03.1962
*जन्मभूमि : ग्राम -दरबेशपुर, पत्रालय -भरवारी, जनपद -कौशाम्बी, पूर्व - (इलाहाबाद) *वर्तमान निवास - 'रसराज निवास ' 2 A/1 मिन्टोरोड, इलाहाबाद, पिन -211001 मो.09415645722
*email:  rasrajkaushambi@ gmail.com
*सम्प्रति : अध्यक्ष -संस्कृत विभाग इलाहाबाद डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
*शैक्षिक योग्यता : प्रारम्भिक शिक्षा से एम.ए. पर्यन्त समस्त परीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण. एम.ए. (संस्कृत, हिन्दी) डी.फिल् (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
*शोधकार्य : रूप गोस्वामी की नाट्यकृतियों का आलोचनात्मक अध्ययन
*शोधनिर्देशक : गुरुवर्य प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र (पूर्व कुलपति, सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि.वि.वाराणसी)
*अभिरुचि : कविता, कहानी, वार्ता, लेखन, आदि का प्रकाशन एवं प्रसारण,
*सस्वर काव्यपाठ, मंच प्रस्तुति, नाट्य अभिनय,रेडियो, टेलीविज़न से कार्यक्रमों की प्रस्तुति एवं प्रसारण ।सांस्कृतिक कार्यक्रमों, कवि सम्मेलनों,
*संगोष्ठियों, रितिक परेड जैसे अन्यान्य क्षेत्रों में उद्घोषक एवं मंच संचालन।
*सहभागिता : राष्ट्रीय एवं अन्ताराष्ट्रिय संस्कृत एवं हिन्दी कविसम्मेलनों, संगोष्ठियों/ सम्मेलनों में सहभागिता, शोधपत्र प्रस्तुति,
*शैक्षणिक गतिविधियों में विषय विशेषज्ञ और शिक्षाविद् सदस्य के रूप में सहभागिता। *प्रकाशन : 88 से अधिक शोधपरक निबन्धों, आलेखों, एवं शोधपत्रों का विविध पत्र, पत्रिकाओं तथा जर्नल्स में प्रकाशन।
* 67 से अधिक राष्ट्रीय एवं अन्ताराष्ट्रिय संगोष्ठियों में प्रतिभागिता एवं शोधपत्र प्रस्तुति। * संस्कृत, हिन्दी कविताओं का अन्यान्य पत्रिकाओं में प्रकाशन ।
*प्रकाशित पुस्तकें : 1. रूपगोस्वामी का नाट्यशिल्प (शोधप्रबन्ध)
2.रसराज तरङ्गिणी (हिन्दी गीत संग्रह) 3.रसराज -मञ्जूषा (आलेख संग्रह) उत्तर प्रदेश संस्थान, लखनऊ से पुरस्कृत, 2013 4.रसराज-स्वर -लहरी (सस्वर हिन्दी गीत- आडियो सी.डी.) कुम्भ प्रयाग 2013 के अवसर पर रिलीज हुई!
 5. कौशाम्बी -महिमा -हिन्दी एकांकी
6.रसराजतोषिणी- संस्कृत-गीत-संग्रह
*प्रकाशनोन्मुख : संस्कृत ग्रन्थों में कौशाम्बी -अतीत और वर्तमान, संस्कृत ग्रन्थों में संगीत,  *विशेष : कौशाम्बी शोध संस्थान के निदेशक रूप में शोधकार्य तथा तत्सम्बन्धित प्रकाशन । *प्रशस्ति एवं पुरस्कार : उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी, लखनऊ से पुरस्कृत, अनेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं, प्रशासनिक विभागों, अनेक सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों से सम्मानित एवं पुरस्कृत । *विदेश यात्रा ***********
* नेपाल (काठमाण्डू) के भारतीय दूतावास में आयोजित हिन्दी काव्यगोष्ठी में काव्यपाठ **********************
*विश्वसंस्कृत सम्मेलन बैंगकॉक (28 जून से 02 जुलाई, 2015) में प्रतिभागिता , शोधपत्र-प्रस्तुति एवं संस्कृत-कवि -सम्मेलन में काव्यपाठ। *******************************************
* हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से संस्कृत महामहोपाध्याय की मानद उपाधि, 27 मई 2016
*48thऑल इण्डिया ओरियण्टल कॉन्फ्रेंस, 2016 उत्तराखण्ड संस्कृत वि.वि.हरिद्वार में कार्यकारिणी समिति (एक्जीकयूटिव कमेटी)  में सदस्य के रूप में निर्वाचित।
* दिल्ली दूरदर्शन पर संस्कृत कार्यक्रम  'वार्तावली ' में प्रसारित साक्षात्कार   - 01 व 02 अक्टूबर (शनिवार व रविवार ) 2016 .
* आकाशवाणी इलाहाबाद से 51 से अधिक संस्कृत एवं हिन्दी में गीतों का सस्वर
 काव्यपाठ, कहानी,वार्ता, आदि का प्रसारण।
*इलाहाबाद/ लखनऊ दूरदर्शन संस्कृत/ हिन्दी कार्यक्रमों में प्रसारण।
*राष्ट्रीय एवं अन्ताराष्ट्रिय दूरदर्शन के विविध चैनलों से काव्यपाठ, एपीसोड एवं डॉक्यूमेट्री फिल्मों में कार्यक्रम प्रस्तुति एवं सहभागिता।
* पीस ऑफ माइण्ड चैनेल पर प्रसारित काव्य सरिता के 6 एपीसोड में काव्यपाठ प्रसारित।आस्था आदि चैनेलों पर प्रसारण!
* विश्वविद्यालयीय एवं महाविद्यालय के राष्ट्रीय सेवा योजना में, स्वयंसेवक, कार्यक्रम अधिकारी, पत्रिका सम्पादन, उद्घोषक, काव्यपाठ, आदि विविध कार्यक्रम में सोत्साह सहभागिता , श्रमदान और योगदान ।
* साक्षरता अभियान जैसे कार्यक्रमों में प्रशिक्षण प्राप्त रिसोर्स पर्सन (सन्दर्भ दाता) के रूप में योगदान।इलाहाबाद एवं कौशाम्बी जनपद की जिला साक्षरता समितियों में शिक्षाविद् सदस्य के रूप में योगदान।
*दिल्ली दूरदर्शन से साक्षारता से सम्बन्धित रूँगटा संस्था द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंटरी फिल्म में कथा-प्रस्तुति।
* जिला प्रशासन इलाहाबाद व कौशाम्बी की अनेक समितियों में शिक्षाविद् सदस्य के रूप में सहभागिता।

सोमवार, 24 जुलाई 2017

आधुनिक संस्कृत साहित्य में आचार्य दीपक घोष काम योगदान

आचार्य दीपक घोष
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आधुनिक संस्कृत के कवियों में आचार्य दीपक घोष का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। इनका जन्म 24 जनवरी सन् 1941 ई.को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुआ । ये (कलकत्ता) कोलकाता विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष भी रहे हैं ।नई संस्कृत विधा को अपनाते हुए आचार्य दीपक घोष ने कई विलाप काव्य संस्कृत में लिखे हैं ।
जिसमें विलापंचिका, मेघविलापम्, सुरवाग्विलापम्, अमरविलापम्, उज्जयिनीविलापम्, तथा अलकाविलापम् प्रमुख हैं।

रविवार, 23 जुलाई 2017

आनन्दमन्दिरस्तोत्र

आनन्दमन्दिरस्तोत्र एक स्तुतिकाव्य है ।इसमें मां भवानी की 103 पद्मो में स्तुति की गई है ।इसके रचनाकार लल्ला दीक्षित हैं।इनके पिता का नाम लक्ष्मण दीक्षित था। इनका जन्म अठारहवीं​ शताब्दी काल उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है।

पादत्राणदूतम्

'पादत्राणदूतम्'काव्य के रचनाकार रुद्रदेव त्रिपाठी हैं।इस मैं एक प्रेमिका के द्वारा अपने प्रेमी को पादत्राण भेजिए जाने का वर्णन है।

गुरुवार, 6 जुलाई 2017

यश्तिलकचम्पू

यश्तिलकचम्पू
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इस चम्पूकाव्य के रचयिता सुप्रसिद्ध जैन कवि श्री सोमदेव या सोमप्रभ सूरि हैं । यह चालुक्यराज अरिकेशन (द्वितीय) के बड़े पुत्र द्वारा संरक्षित कवि थे। राष्ट्रकूट के राजा कृष्णराजदेव के समकालीन होने के कारण, सोमदेव ने इस चम्पूकाव्य की रचना लगभग 959 ईसवी के आसपास की है । जैनों का उत्तरपुराण इसका मूल उत्स है । इसमें अवंती के राजा यशोधर का चरित्र जैन सिद्धांतों को लक्ष्य बनाकर वर्णित है । कथानक अधिकांश काल्पनिक पुनर्जन्म के विश्वास पर आधारित है। प्रथम चार आश्वासों में कथा अविच्छिन्न गति से आगे बढ़ती है। पर अंतिम तीनों आश्वास जैन धर्म के उपासकाध्ययन का वर्णन करते हैं ।इस कृति द्वारा सोमदेव के गहन अध्ययन, प्रगाढ पांडित्य, भाषा पर स्वच्छन्द प्रभुत्व एवं काव्य क्षेत्र में उनकी नए नए प्रयोगों की अभिरुचि का परिचय मिलता है ।सोमदेव ने कई अन्य कवियों के नामोल्लेख सहित, उनकी मुक्तक कृतियों को इस चम्पू काव्य उद्धृत किया है। इस चम्पूकाव्य पर श्रुतसागर सूरि की सुंदर व्याख्या है।

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

काव्यस्यात्मा ध्वनि:

                        “काव्यस्यात्मा ध्वनि:

 काव्यशास्त्र के इतिहास में सम्प्रदायों की चर्चा आई है | इन स्मप्रदायों की स्थापना काव्यशास्त्र के आधारभूत तत्त्वों के आधार पर हुई | काव्यशास्त्र में 6 सम्प्रदाय मान्य हैं | रस सम्प्रदाय अलङ्कार सम्प्रदाय रीति सम्प्रदाय, ध्वनि सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय और औचित्य सम्प्रदाय | इन छहों सम्प्रदायों में रस सम्प्रदाय सबसे प्राचीन है | इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक भरतमुनि हैं | उनके अनुसार रस ही सर्वोपरि तत्त्व है |
नहि रसादृते कश्चिदर्थ: प्रवर्तते |            
 अग्निपुराण में सर्वप्रथम रस को काव्य का आत्मबोध तत्त्व कहा है-
‘वाग्वैदग्धप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम् |’
       इस प्रकार काव्य में रस को काव्य की आत्मा कहा जाने लगा | अग्निपुराण के पश्चात अलङ्कार युग आता है | इस युग के प्रमुख आचार्य भामह, उद्भट आदि आचार्य हैं | उन्होंने अलङ्कार को काव्य का परमतत्त्व कहा है | इस समय अलङ्कारों की चकाचौंध में रस सिद्धान्त दब गया और रस को अलङ्कारो तक ही सीमित रखा | यद्यपि भामह ने काव्य में रस की स्थिति को आवश्यक बताया है और दण्डी ने अलङ्कारों को रस का उत्कर्षाधायक तत्त्व बताकर काव्य में रस की प्रमुखता स्वीकार की है, फिर भी वे काव्य में अलङ्कारों को ही काव्य प्रधानता देते हैं | इस प्रकार रस का आत्मतत्त्व पक्ष दब गया और उसका स्थान अलङ्कारों से गुण और रीति ने ले लिया था | आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा कहकर रीति सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया |
 ध्वनि सम्प्रदाय के आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि सिद्धान्त की स्थापना करके रीति के स्वतन्त्र अस्तित्व को दबाकर उसे परतन्त्र बना दिया और उन्होंने ध्वनि को काव्य का जीवितभूत तत्त्व स्वीकार किया | उनका कहना है की जो स्थान मानव शरीर में आत्मा का है, कोई स्थान काव्य में ध्वनि का माना जाता है | इस प्रकार ध्वनि को काव्य की आत्मा के रुप में स्वीकार किया गया –
काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्य: समाम्नातपूर्व: |         
आनन्दवर्धन का कहना है कि- ‘काव्य की आत्मा ध्वनि है’, इस बात को अनेक काव्यतत्त्ववेत्ताओं ने प्रतिपादित किया है | जिसका प्रवाह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा है | इन प्राचीन आचार्यों में भरत ने तो रसादि तात्पर्य से इस ध्वन्यमान अर्थ का प्रतिपादन किया ही है (एतच्च रसादितात्पर्येण काव्यनिबन्धन सुप्रसिद्धमेव) और अस्फुट रुप से प्रतीत होने वाले इस ध्वनितत्त्व की व्याख्या करने में असमर्थ वामन ने रीतियाँ परिवर्तित की है |
अशक्नुवद्भिव्याकर्त्तु रीतिय: सम्प्रवर्तिता: |       
 आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य के आत्मा कहा है | यहाँ पर ‘आत्मा’ का अर्थ किया गया है तत्त्व और तत्त्व शब्द का अर्थ किया है, जिसके स्वरूप का कभी बाध ना हो | अर्थात् जिस प्रकार आत्मा के स्वरूप का कभी बाध नहीं होता है उसी प्रकार धन का स्वरूप है कभी बाधित नहीं होता है और जिस प्रकार शरीर में आत्मा सारभूत तत्त्व है, उसी प्रकार काव्य में ध्वनि सारभूत तत्त्व है |
 ‘काव्यस्यात्मा ध्वनि’ इस वाक्य में ध्वनिकार आत्मा को अर्थ रूप स्वीकार करते हैं | काव्य का वह आत्मस्थानीय अर्थ है प्रतीयमान अर्थात् व्यंग्यार्थ | यही प्रतिमान अर्थ (व्यंग्यार्थ) काव्य की आत्मा है | (काव्यस्या स एवार्थ:)  यह प्रतीयमान अर्थ (ध्वन्यर्थ) कुछ और ही तत्त्व है, जो अंगना के प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न लावण्य के समान महाकवियों की वाणी में वाच्यार्थ से भिन्न भासित होता है-
प्रतीयमानंपुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् |
यत्तत्प्रसिद्धायवातिरिक्त विभाति लावण्यमिवांगनासु ||              
 इस प्रकार आनन्दवर्धन के अनुसार प्रतीयमान अर्थ ध्वन्यर्थ या व्यङ्ग्यार्थ है और यही सारभूत पदार्थ है | यह सारभूत रूप तत्त्व ध्वन्यर्थ कहीं रसादिरूप में, कहीं अलङ्कार रूप में और कहीं वस्तु  रूप में भाषित होता है –
एवं वस्त्वलङ्काररसभेदेन त्रिधा ध्वनि: |    
 इस प्रकार यह त्रिविध रूप ध्वनि की काव्य की आत्मा है |
 आनन्दवर्धन में ‘काव्यस्यात्मा स: एवार्थ:’ इस वाक्य में एव पद के द्वारा तीनों ध्वनियों में रसध्वनि को ही सर्वश्रेष्ठ सारभूत काव्य की आत्मा स्वीकार करने में विशेष अभिनिवेश दिखाया है-
“काव्यस्य स एवार्थ: सारभूत:............शोक एव श्लोकतया परिणत: |”   

ध्वनिकार आनन्दवर्धन यद्यपि प्रतीयमान अर्थ के वस्तुध्वनि तथा अलंकार ध्वनि  रूप अन्य भेद भी स्वीकार करते हैं  किन्तु रसध्वनि को ही उन्होंने सारभूत काव्य की आत्मा माना है | आनन्दवर्धन के अनुयायी अभिनवगुप्त, मम्मट आदि आचार्यों ने भी रसध्वनि को ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है | अभिनवगुप्त का कथन है कि व्यञ्जना व्यापार से गम्यमान आस्वाद रूप रस होता है | यह ब्रह्मस्वाद सहोदर कहा गया है | यही सिद्धि रूप है | अतः रसध्वनि काव्य की आत्मा है |  रसादिरूप भी तो ध्वनि रूप ही है | रसध्वनि के साथ ही अलङ्कार और वस्तुध्वनि भी काव्य की आत्मा सिद्ध हो जाते हैं | यद्यपि की रसध्वनि  श्रेष्ठ है | इसीलिए ध्वनिकार ने मुख्य रूप से ध्वनि को ही काव्य कहा है, जिसके अन्तर्गत रस, वस्तु अलङ्कार रूप सभी काव्य जीवित भूत सिद्ध हो जाते हैं | यही ‘काव्यस्यात्मा ध्वनि’ का वास्तविक स्वरुप है | 

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

    संगणक-विषयक-शब्दावली

(1)ID.— परिचयपत्रम्
(2)Data – टंकितांश:
(3) Edit – सम्पादनम्
(4)Keyboard – कुंचिपटलम्
(5) Timeline – समयरेखा
(6) Login – प्रवेश:
(7)Share - वितरणम्, प्रसारणम्
(8) Laptop – अंकसंगणकम्
(9) Search - अन्वेषणम्
(10)Default - पूर्वनिविष्ठम्
(11)Input – निवेश:
(12)Output - फलितम्
(13)Block – अवरोध:
(14)Display – प्रदर्शनम् / विन्यास:
(15)Wallpaper - भीत्तिचित्रम्
(16)Theme – विषयवस्तु:
(17)User – उपभोक्ता
(18) Smart phone - कुशलदूरवाणी
(19)Tag - चिह्नम्
(20)Setup – प्रतिष्ठितम्
(21)Install - प्रस्थापना / प्रतिस्थापनम्
(22)Privacy - गोपनीयता
(23)Manual – हस्तक्रिया
(24)Accessibility - अभिगम्यता
(25)Error – त्रुटि:
(26)Pass word – गूढशब्द:
(27) Code no. - कूटसंख्या
(28) Pen drive - स्मृतिशलाका



(1.) क्लास रूमः--कक्ष्या
(2.) बेंच (पुस्तक रखने की)---दीर्घोत्पीठिका,
(3.) बेंच (बैठने की)---दीर्घपीठिका,
(4.) मेज---उत्पीठिका,
(5.) कुर्सीः--आसन्दः,
(6.) बैगः--स्यूतः,
(7.) किताब--पुस्तकम्,
(8.) कलम--लेखनी (कलमः),
(9.) लडकी--बाला या बालिका,
(10.) लडका--बालः,
(11.) छाता---छत्रम्,
(12.) टीचर (पुरुष)---शिक्षकः,
(13.) टीचर (लेडी) शिक्षिका,
(14.) अलमारी--काष्ठमञ्जूषा,
(15.) आरामकुर्सी---सुखासन्दिका,
(16.) इंक पेंसिल, डॉट पेन--मसितूलिका,
(17.) शूज--उपानह्,
(18.) ड्रेस---परिधानम्,
(19.) ओढनी--प्रच्छदपटः,
(20.) ओवरकोट---बृहतिका,
(21.) कंघी---प्रसाधनी,
(22.) कक्षा का साथी---सतीर्थ्यः, सहपाठी,
(23.) कमरा---कक्षः,
(24.) खिडकी---गवाक्षः,
(25.) पंखा---व्यजनम्,
(26.) एसी---वातायनम्,
(27.) डेस्टर--मार्जकः,
(28.) इन्स्पेक्टर---निरीक्षकः,
(29.) कम्प्यूटर---संगणकः,
(30.) कागज---कर्गदः, (कागदः) (कर्गलम्)
(31.) रिफिल---मसियष्टिः,
(32.) कॉपी---सञ्चिका,
(33.) रजिस्टर---पञ्जिका,
(34.) कार्टुन--उपहासचित्रम्,
(35.) ड्रॉइंग---रेखाचित्रम्,
(36.) कॉलेज--महाविद्यालयः,
(37.) स्कूल---विद्यालयः,
(38.) यूनीवर्सिटी--विश्वविद्यालयः,
(39.) किवाड--कपाटम्,
(40.) गेट--द्वारम्,
(41.) मेन गेट---मुख्यद्वारम्,
(42.) दीवार---भित्तिका,
(43.) दीवारघडी---भित्तिघटिका,
(44.) घडी---घटिका,
(45.) दवात का ढक्कन--कुप्पी,
(46.) कुर्ता--कञ्चुकः,
(47.) कैंची---कर्तरी,
(48.) कोठरी---लघुकक्षः,
(49.) गेटकीपर--द्वारपालः,
(50.) पिअन--सेवकः,
(51.) क्लर्क--लिपिकारः, करणिकः,
(52.) मैदान---क्षेत्रम्,
(53.) खेल का मैदान--क्रीडाक्षेत्रम्,
(54.) स्पोर्ट्स--क्रीडा,
(55.) गेन्द---कन्दुकः,गेन्दुकम्,
(56.) फुटबॉल---पादकन्दुकम्,
(57.) घण्टा--होरा,
(58.) चपरासी---लेखहारकः, प्रेष्यः,
(59.) चप्पल---पादुका, पादुुः,
(60.) चॉक--कठिनी,
(61.) चांसलर--कुलपतिः,
(62.) चारों ओर मुडने वाली कुर्सी---पर्पः,
(63.) रंग---वर्णः,
(64.) चिह्न-अंकः,
(65.) चोटी---शिखा. सानुः,
(66.) रिसिस---जलपानवेला,
(67.) जिल्द--प्रावरणम्,
(68.) झाडू--मार्जनी,
(69.) टाइम टेबल--समय-सारणी,
(70.) कैरीकुलम्---पाठ्यक्रमः,
(71.) टेनिस का खेल--प्रक्षिप्तकन्दुकक्रीडा,
(72.) एजुकेशन टाइरेक्टर---शिक्षासञ्चालकः,
(73.) डिप्टी डाइरेक्टर (शिक्षा)--उपशिक्षासञ्चालकः,
(74.) डेस्क--लेखनपीठम्,
(75.) ड्रॉइंग रूप---उपवेशगृहम्,
(76.) दरी--आस्तरणम्,
(77.) दस्ता (कागज का)--दस्तकः,
(78.) निब---लेखनीमुखम्,
(79.) नेट --जालम्,
(80.) नेलकटर---नखनिकृन्तनम्,
(81.) नेलपॉलिश--नखरञ्जनम्,
(82.) पायजामा--पादयामः,
(83.) पॉलिश---पादुरञ्जनम्, पादुरञ्जकः,
(84.) पेंसिल--तूलिका,
(85.) पैण्ट--आप्रपदीनम्,
(86.) पोर्टिको (बरामदा)---प्रकोष्ठः,
(87.) प्रिंसिपल---(पु.) प्रधानाचार्यः, प्रधानाध्यापकः प्राचार्यः,
(स्त्री) प्रधानाचार्या, प्रधानाध्यापिका, प्राचार्या,
(88.) प्रोफेसर--प्राध्यापकः,
(89.) फर्श---कुट्टिमम्,
(90.) फाउण्टेन पेन---धारालेखनी,
(91.) फाइल--पत्रसञ्चयिनी,
(92.) फीस--शुल्कः,
(93.) बरामदा--वरण्डः,
(94.) बाथरूम---स्नानागारः,
(95.) बेंच--काष्ठासनम्,
(96.) बैंड---वादित्रगणः,
(97.) बैडमिण्टन---पत्रिक्रीडा,
(98.) मेज--फलकम्,
(99.) पढाई की मेज--लेखनफलकम्,
(100.) यूनिफॉर्म---एकपरिधानम्, एकवेषः,

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

सुल्तानपुर के संस्कृत विद्वान

आचार्य रमाकान्त उपाध्याय
इनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद में झौआरा में सन् 1915 ई. में हुआ था | इनके पिता का नाम श्री नागेश्वर उपाध्याय तथा माता का नाम श्रीमती दिलराजी देवी था | इनकी मृत्यु 8 जुलाई सन् 1970 ई. को हुई |
रचनायें-

1.    श्री दयानन्दचरितं महाकाव्यम् (20 सर्ग ) |

कविता क्या है?

कविता क्या है
बतलाओ न
क्यों छुपाते हो
कवि जी
डरते किससे
अपनो से?
समाज से?
जानते हैं सभी
क्या है मन में
हम सबके
बस कहता नहीं
तुमसे कोई
होता है सब में
एक कवि
बस कहता नहीं
हर कोई
©अरुण निषाद

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

भगवान शंकर (भोलेनाथ) के 108 रूपों के नाम और उनके अर्थ

भगवान शंकर (भोलेनाथ) के 108 रूपों के नाम और उनके अर्थ

1. शिव - कल्याण स्वरूप 2. महेश्वर - माया के अधीश्वर 3. शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले 4. पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले 5. शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले 6. वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले 7. विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले 8. कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले 9. नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले 10. शंकर - सबका कल्याण करने वाले 11. शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले 12. खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले 13. विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी 14. शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले 15. अंबिकानाथ - भगवति के पति 16. श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले 17. भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले 18. भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले 19. शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले 20. त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी 21. शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले 22. शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय 23. उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले 24. कपाली - कपाल धारण करने वाले 25. कामारी - कामदेव के शत्रु 26. अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले 27. गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले 28. ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले 29. कालकाल - काल के भी काल 30. कृपानिधि - करूणा की खान 31. भीम - भयंकर रूप वाले 32. परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले 33. मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले 34. जटाधर - जटा रखने वाले 35. कैलाशवासी - कैलाश के निवासी 36. कवची - कवच धारण करने वाले 37. कठोर - अत्यन्त मज़बूत देह वाले 38. त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले 39. वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले 40. वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले 41. भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले 42. सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले 43. स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले 44. त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले 45. अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है 46. सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले 47. परमात्मा - सबका अपना आपा 48. सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले 49. हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले 50. यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले 51. सोम - उमा के सहित रूप वाले 52. पंचवक्त्र - पांच मुख वाले 53. सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले 54. विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर 55. वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले 56. गणनाथ - गणों के स्वामी 57. प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले 58. हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले 59. दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले 60. गिरीश - पहाड़ों के मालिक 61. गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले 62. अनघ - पापरहित 63. भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले 64. भर्ग - पापों को भूंज देने वाले 65. गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले 66. गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी 67. कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले 68. पुराराति - पुरों का नाश करने वाले 69. भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न 70. प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति 71. मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले 72. सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले 73. जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले 74. जगद्गुरु - जगत् के गुरु 75. व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले 76. महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता 77. चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले 78. रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले 79. भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी 80. स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले 81. अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले 82. दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले 83. अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले 84. अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले 85. सात्त्विक - सत्व गुण वाले 86. शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले 87. शाश्वत - नित्य रहने वाले 88. खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले 89. अज - जन्म रहित 90. पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले 91. मृड - सुखस्वरूप वाले 92. पशुपति - पशुओं के मालिक 93. देव - स्वयं प्रकाश रूप 94. महादेव - देवों के भी देव 95. अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले 96. हरि - विष्णुस्वरूप 97. पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले 98. अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले 99. दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले 100. हर - पापों व तापों को हरने वाले 101. भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले 102. अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले 103. सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले 104. सहस्रपाद - अनंत पैर वाले 105. अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले 106. अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित 107. तारक - सबको तारने वाला 108. परमेश्वर - सबसे परे ईश्वभ |

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

विभिन्न संस्थाओं के संस्कृत ध्येय वाक्य



भारत सरकार- - सत्यमेव जयते
लोक सभा- - धर्मचक्र प्रवर्तनाय
उच्चतम न्यायालय- - यतो धर्मस्ततो जयः
आल इंडिया रेडियो -सर्वजन हिताय सर्वजनसुखाय

दूरदर्शन - सत्यं शिवम् सुन्दरम
गोवा राज्य सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।
भारतीय जीवन बीमा निगम- - योगक्षेमं वहाम्यहम्

डाक तार विभाग - अहर्निशं सेवामहे
श्रम मंत्रालय- - श्रम एव जयते
भारतीय सांख्यिकी संस्थान- - भिन्नेष्वेकस्य दर्शनम्

थल सेना- - सेवा अस्माकं धर्मः
वायु सेना- - नभःस्पृशं दीप्तम्
जल सेना- - शं नो वरुणः
मुंबई पुलिस- - सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय

हिंदी अकादमी - अहम् राष्ट्री संगमनी वसूनाम
भारतीय राष्ट्रीय विज्ञानं अकादमी -हव्याभिर्भगः सवितुर्वरेण्यं
भारतीय प्रशासनिक सेवा अकादमी- - योगः कर्मसु कौशलं
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग- - ज्ञान-विज्ञानं विमुक्तये
-नेशनल कौंसिल फॉर टीचर एजुकेशन - गुरुः गुरुतामो धामः
-गुरुकुल काङ्गडी विश्वविद्यालय-ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत
इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय - ज्योतिर्व्रणीततमसो विजानन
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय- : विद्ययाऽमृतमश्नुते
आन्ध्र विश्वविद्यालय- - तेजस्विनावधीतमस्तु

बंगाल अभियांत्रिकी एवं विज्ञान विश्वविद्यालय,
शिवपुर- - उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत
गुजरात राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय -आ
-नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः
संपूणानंद संस्कृत विश्वविद्यालय- - श्रुतं मे गोपय
श्री वैंकटेश्वर विश्वविद्यालय- - ज्ञानं सम्यग् वेक्षणम्
कालीकट विश्वविद्यालय- - निर्मय कर्मणा श्री
दिल्ली विश्वविद्यालय- - निष्ठा धृति: सत्यम्
केरल विश्वविद्यालय- - कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा
राजस्थान विश्वविद्यालय- - धर्मो विश्वस्यजगतः प्रतिष्ठा

पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय न्यायिक विज्ञान विश्वविद्यालय- - युक्तिहीने विचारे तु धर्महानि: प्रजायते
वनस्थली विद्यापीठ- सा विद्या या विमुक्तये।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्-विद्याsमृतमश्नुते।
केन्द्रीय विद्यालय- - तत् त्वं पूषन् अपावृणु
केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड - असतो मा सद् गमय
-प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, त्रिवेन्द्रम - कर्मज्यायो हि अकर्मण:
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर -धियो यो नः प्रचोदयात्
गोविंद बल्लभ पंत अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पौड़ी -तमसो मा ज्योतिर्गमय
मदन मोहन मालवीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय,गोरखपुर- - योगः कर्मसु कौशलम्
भारतीय प्रशासनिक कर्मचारी महाविद्यालय, हैदराबाद- संगच्छध्वं संवदध्वम्
इंडिया विश्वविद्यालय का राष्ट्रीय विधि विद्यालय- धर्मो रक्षति रक्षितः
संत स्टीफन महाविद्यालय, दिल्ली - सत्यमेव विजयते नानृतम्
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान- - शरीरमाद्यं खलुधर्मसाधनम्
विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नागपुर -योग: कर्मसु कौशलम्
मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान,इलाहाबाद- - सिद्धिर्भवति कर्मजा
बिरला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, पिलानी -ज्ञानं परमं बलम्
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर - योगः कर्मसुकौशलम्
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई - ज्ञानं परमं ध्येयम्
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर -तमसो मा ज्योतिर्गमय
-भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान चेन्नई -सिद्धिर्भवति कर्मजा
-भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की - श्रमं विना नकिमपि साध्यम्
भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद -विद्या विनियोगाद्विकास:
भारतीय प्रबंधन संस्थान बंगलौर- - तेजस्वि नावधीतमस्तु
भारतीय प्रबंधन संस्थान कोझीकोड - योगः कर्मसु कौशलम्
सेना ई एम ई कोर - कर्मह हि धर्मह
सेना राजपूताना राजफल- -- वीर भोग्या वसुन्धरा
सेना मेडिकल कोर- --सर्वे संतु निरामया ..
सेना शिक्षा कोर- -- विदैव बलम
सेना एयर डिफेन्स- -- आकाशेय शत्रुन जहि
सेना ग्रेनेडियर रेजिमेन्ट- -- सर्वदा शक्तिशालिं
सेना राजपूत बटालियन- -- सर्वत्र विजये
सेना डोगरा रेजिमेन्ट -- कर्तव्यम अन्वात्मा
सेना गढवाल रायफल- -- युद्धया कृत निश्चया
सेना कुमायू रेजिमेन्ट- -- पराक्रमो विजयते
सेना महार रेजिमेन्ट- -- यश सिद्धि
सेना जम्मू काश्मीर रायफल- - प्रस्थ रणवीरता
सेना कश्मीर लाइट इंफैन्ट्री- -- बलिदानं वीर लक्षयं
सेना इंजीनियर रेजिमेन्ट- - सर्वत्र
भारतीय तट रक्षक-वयम् रक्षामः
सैन्य विद्यालय -- युद्धं प्र्गायय
सैन्य अनुसंधान केंद्र- -- बालस्य मूलं विज्ञानम
- - - - - - - - - -
सिलसिला यहीं खतम नही होता,
विदेशी भी हमारे कायल हैं-- देखिये

नेपाल सरकार- - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
इंडोनेशिया-जलसेना - जलेष्वेव जयामहेअसेह राज्य (इंडोनेशिया) -
पञ्चचित
कोलंबो विश्वविद्यालय- (श्रीलंका) - बुद्धि: सर्वत्र भ्राजते
मोराटुवा विश्वविद्यालय (श्रीलंका) - विद्यैव सर्वधनम्
पेरादेनिया विश्वविद्यालय - सर्वस्य लोचनशास्त्रम्

रविवार, 12 फ़रवरी 2017

आधुनिक संस्कृतसाहित्ये डॉ.(श्रीमती) मीरा द्विवेदी योगदनम्

आधुनिक संस्कृतसाहित्ये डॉ.(श्रीमती) मीरा द्विवेदी योगदनम्   
अरुण कुमार निषाद
शोधछात्र
संस्कृत तथा प्राकृत भाषा विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ |

समकालिक-संस्कृत-साहित्य-प्रसंगे समर्थ-सर्जकस्य डॉ. (श्रीमती) मीरा द्विवेदी उत्तरप्रदेशस्य जालौनजनपदे हुसेरापुरासमीपस्थिते टीहर नामके ग्रामे चतु:षष्ट्यधिकैकोनविंशतिशततमे वर्षे अक्तूबर मासस्य पञ्चदशदिनाड़्के (15.10.1964 ई.) अजायत | अस्या: पिता वैद्य श्री प्रयाग नारायणदीक्षित: माता च श्रीमती चन्द्रप्रभा | वृन्दावने मानवसेवासंघ-बालमंदिरे अस्या: प्रारम्भिकी शिक्षा, तत: तत्रैव बालिका माध्यमिकविद्यालये अधीत्य इयं माध्यमिक शिक्षापरिषद: हाईस्कूल परीक्षां प्रथमश्रेण्यां समुदतरत् | तदनन्तरं राजस्थानस्य वनस्थलीविद्यापीठे अन्तेवासिनी भूत्वा श्रीमती द्विवेदी संस्कृते स्नातकोत्तरोपाधिं पी-एच.डी. इति शोधोपाधिं च लब्धवती | अथच इयं तत्रैव प्राचीनपद्धत्या अधीत्य शास्त्रि- आचार्योपाधिमपि अलभत |
अध्ययनं परिसमाप्य डॉ. मीरा द्विवेदी तत्रैव वनस्थली विद्यापीठे द्वाविंशतिवर्षाणि अध्यापितवती | तस्मिन्नवधौ च तत्र व्याख्याता-प्रवाचक-विभागाध्यक्षपदानि अलंकृतवती | सम्प्रति दशाधिकद्विसहस्रतमाब्दात् दिल्ली विश्वविद्यालयस्य संस्कृत विभागे सहाचार्य नियुक्ता सती संस्कृतमध्यापयति |
डॉ. (श्रीमती) मीरा द्विवेदी समये-समये विविधपुरस्कारै: सम्मानैश्च सभाजिता | यथा- उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानस्य संस्कृत साहित्य विशेष पुरस्कारम्, दिल्ली संस्कृत अकादमी प्रदत्तं नाट्यलेखन पुरस्कारम्, विक्रम कालिदास पुरस्कारं चेयं प्राप्तवती |
डॉ. द्विवेदी द्वारा प्रणीतानि, सम्पादितानि नैकानि पुस्तकानि सन्ति प्रकाशितानि यथा- आधुनिक संस्कृत महिला नाटककार, शब्द संवाद, चिन्तनालोक, चन्द्रापीड कथा, संस्कृतनाट्यनिर्झरम्, अभिनवचिन्तनम्, काश्मीरक्रन्दनम् | अस्या: बहूनि शोधपत्राणि प्रकाशितानि | एवञ्चेयं द्विवेदी विभिन्नसंस्थासु संस्कृत साहित्यविषये व्याख्या द्वारा आकाशवाणीदूरदर्शनमाध्यमेन च सततं संस्कृतसाहित्यस्य संवर्धने तस्य प्रचार प्रसारे निरता सती सारस्वत साधनां करोति |              
                         

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

भारतीय ऋषियों मुनियों का संक्षिप्त परिचय

1. महर्षि दधीचि

महातपोबलि और शिव भक्त ऋषि थे। वे संसार के लिए कल्याण व त्याग की भावना रख वृत्तासुर का नाश करने के लिए अपनी अस्थियों का दान करने की वजह से महर्षि दधीचि बड़े पूजनीय हुए। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि
एक बार देवराज इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए। अहंकार से चूर इंद्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर चले गए। देवताओं ने विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाना पड़ा, किंतु विश्वरूप देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे देता था। इंद्र ने उस पर आवेशित होकर उसका सिर काट दिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए महाबली वृत्रासुर को पैदा किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ इधर-उधर भटकने लगे।
ब्रह्मादेव ने वृत्तासुर को मारने के लिए वज्र बनाने के लिए देवराज इंद्र को तपोबली महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिये भेजा। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए तीनों लोकों की भलाई के लिए अपनी हड्डियां दान में मांगी। महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपना शरीर दान कर दिया। महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बना और वृत्रासुर मारा गया। इस तरह एक महान ऋषि के अतुलनीय त्याग से देवराज इंद्र बचे और तीनों लोक सुखी हो गए।

2. आचार्य कणाद

कणाद परमाणुशास्त्र के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले आचार्य कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।

3. भास्कराचार्य

आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

4. आचार्य चरक

‘चरकसंहिता’ जैसा महत्तवपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीरविज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर की सबसे ज्यादा होने वाली डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग जैसी बीमारियों के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर की।

5. भारद्वाज

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।

6. कण्व

वैदिक कालीन ऋषियों में कण्व का नाम प्रमुख है। इनके आश्रम में ही राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। माना जाता है कि उसके नाम पर देश का नाम भारत हुआ। सोमयज्ञ परंपरा भी कण्व की देन मानी जाती है।

7. कपिल मुनि

भगवान विष्णु का पांचवां अवतार माने जाते हैं। इनके पिता कर्दम ऋषि थे। इनकी माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र चाहा। इसलिए भगवान विष्णु खुद उनके गर्भ से पैदा हुए। कपिल मुनि ‘सांख्य दर्शन’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इससे जुड़ा प्रसंग है कि जब उनके पिता कर्दम संन्यासी बन जंगल में जाने लगे तो देवहूती ने खुद अकेले रह जाने की स्थिति पर दुःख जताया। इस पर ऋषि कर्दम देवहूती को इस बारे में पुत्र से ज्ञान मिलने की बात कही। वक्त आने पर कपिल मुनि ने जो ज्ञान माता को दिया, वही ‘सांख्य दर्शन’ कहलाता है।
इसी तरह पावन गंगा के स्वर्ग से धरती पर उतरने के पीछे भी कपिल मुनि का शाप भी संसार के लिए कल्याणकारी बना। इससे जुड़ा प्रसंग है कि भगवान राम के पूर्वज राजा सगर ने द्वारा किए गए यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के करीब छोड़ दिया। तब घोड़े को खोजते हुआ वहां पहुंचे राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इससे कुपित होकर मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। बाद के कालों में राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर स्वर्ग से गंगा को जमीन पर उतारा और पूर्वजों को शापमुक्त किया।

8. पतंजलि

आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।

9. शौनक

वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।

10. महर्षि सुश्रुत

ये शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।
जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।

11. वशिष्ठ

वशिष्ठ ऋषि राजा दशरथ के कुलगुरु थे। दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय वशिष्ठ ऋषि के पास ही थी।

12. विश्वामित्र

ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी।
ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

13. महर्षि अगस्त्य

वैदिक मान्यता के मुताबिक मित्र और वरुण देवताओं का दिव्य तेज यज्ञ कलश में मिलने से उसी कलश के बीच से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य प्रकट हुए। महर्षि अगस्त्य घोर तपस्वी ऋषि थे। उनके तपोबल से जुड़ी पौराणिक कथा है कि एक बार जब समुद्री राक्षसों से प्रताड़ित होकर देवता महर्षि अगस्त्य के पास सहायता के लिए पहुंचे तो महर्षि ने देवताओं के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र का सारा जल पी लिया। इससे सारे राक्षसों का अंत हुआ।

14. गर्गमुनि

गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के के बारे नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

15. बौद्धयन

भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बौद्धयन ने आसान तरीकोसे दिया।।

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

छन्दोमञ्मजरीकार गड्.गादास

इनका समय ईसा की 18वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है.इनके पिता का नाम वैद्यगोपालदास तथा माता का नाम सन्तोषा था. ये वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे. इनकी छन्दोमञ्जरी मेम 6 स्तबक हैं.
रचनायें-
1.अच्युतचरित-महाकाव्य
2.कृष्णशतक-खण्डकाव्य
3.सूर्यशतक-खण्डकाव्य