सोमवार, 20 मार्च 2023

‘स्मर्तव्योऽहं तदा’ डॉ.कौशल तिवारी (संस्कृत ग़ज़ल संग्रह)

संवेदनाओं  का कोलाज रचती कौशल की कवितायें

(स्मर्तव्योऽहं तदा’  के आलोक में)


जीवन पथ के हर पग को जीवन्तता से जीते हुएअपने भावोंअनुभवों और संवेदनाओं का कलम और कूँची से सुन्दर कोलाज बनाने वालेराजस्थान के एक छोटे से गाँव बारा में जन्म लेने वालेसंस्कृत और हिन्दी भाषा में समान अधिकार रखने वाले, (स्वन्त: सुखाय कभी-कभी फेसबुक पर उर्दूअरबी और फारसी में भी लिखते हैं) मित्रवर डॉ.कौशल तिवारी के ग़ज़ल संग्रह  ‘स्मर्तव्योऽहं तदा’  काव्यसंग्रह के प्रकाशनावसर पर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । डॉ.तिवारी जी किशोरावस्था से ही गद्य पद्य में रचनायें कर रहे हैं । उनकी रचनायें संस्कृत और हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं । कवि और कथाकार के साथ-ही-साथ इनकी पहचान एक समीक्षक और आलोचक की भी है ।

 

डॉ.तिवारी रूढ़िवादी और पुरातनपंथी विचारधारा का पुरजोर विरोध करते हैं । चाहे वह काव्य का क्षेत्र हो या जीवन का । यह विरोध उनके काव्य और जिन्दगी दोनों में स्पष्ट दिखलाई देता है । 

 डॉ.कौशल तिवारी लिखते हैं की अब गाँव प्राचीन समय के गाँव जैसा नहीं रहा । अब गाँवो से भाईचारा, मेल-मिलाप समाप्त हो गया है ।  मोबाइल दूरदर्शन आदि ने लोगों में दरार पैदा कर दिया है ।

नगरीय रहन-सहन का वर्णन करते हुए डॉ.तिवारी लिखते हैं कि- नगरीय संस्कृति में किसी से किसी को कोई मतलब नहीं है । कौन मर रहा है, कौन जी रहा है ।

एक: स्कन्धस्तु.....नगरेऽस्मिन्।

इस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद बरबस ही मुनव्वर राना का यह शेर जेहन में उभर आता है ।

तुम्हारे शहर में सब मय्यत को काँधा नहीं देते ।

हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं ॥

कार्येषु निर्गते तैरहोमें वे लिखते हैं कि मन साफ होगा चाहिए गंगा नहाने से कोई पाप नहीं धुलता ।

नवपापाय तत्परोऽस्मि

गंगाजलेन स्नातोऽहम् 

 अद्यापिमें वे लिखते हैं कि आप सारे संसार में घूम लो पर जो आनन्द और सुख घर में प्राप्त होता है वह दुनिया के किसी कोने में नहीं मिल सकता ।

प्रेमपूरित लोचनयो: प्रिये

तिवारिणा लब्धं जीवनमद्यापि ॥

 कालोऽयम्कविता में तिवारी लिखते हैं कि समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है । इस पर किसी का वश नहीं है । इसकी गति अबाध है ।

अग्यातलिप्यां मनुजललाटे

किं किं तत्  यन्न कालोऽयम् ।

आज की गंदी राजनीति से कवि कितना आहत है । वह उसकी कविता से जाना जा सकता है ।

राजनीतिकूपे भंगा मिलिता सर्वत्र

कोऽपि शकुनिस्तु कोऽपि धृतराष्ट्रो दृश्यते ॥

अपनी कोऽपि नास्तिग़ज़ल में आज के बनावटी और स्वार्थी समाज का बड़ा ही सुन्दर चित्रण इन्होंने किया है।

रचनाकार अपनी रचना में किसी-न-किसी बहाने से अपना रोष प्रकट कर ही देता है ।

 कौशल जी का मानना है कि ढ़ोंग और दिखावा करने की कोई आवश्यकता नहीं है । सही क्या है गलत क्या है यह सबको पता है ।

गंगा जलं तु.....।

 आज के ऐसे समय में डॉ.कौशल तिवारी ने किसान की सुधि ली है, जब कथाकथित धनाढ्य लोग खुद को खुदा मान बैठे हैं । ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में बसने वाले लोगों को क्या पता कि किस प्रकार से अनाज कैसे  उत्पन्न किया जाता है ।अपने परिवार तथा खुद के लिए दो वक्त की रोटी न  जुटा पाने वाला किसान, मँहगी-मँहगी पार्टियों में रईसी दिखाने वाले तथा सड़कों और कचरों में खाना फेंकने वालों के लिए अन्न पैदा करता है । इनकी यह गज़ल पढ़ने के बाद अदम गोंडवी जी की दो गजलें याद आती हैं कि-

(१.)    तुम्हारी फाइलों में गॉँव का मौसम गुलाबी है ।

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये वादा किताबी है ॥

(२.)    वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है ।

उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है ॥

कोई भी आज के समय में किसी से बिना स्वार्थ के नहीं जुड़ता है । अगर कोई आप को चाह रहा है तो अवश्य उसका कोई-न-कोई काम आपके द्वारा सिद्ध होना है ।

गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है-

सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।

स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥

स्मर्तव्योऽहं तदागजल तो संवेदना की पराकाष्ठा को भी पार भी पार कर जाती है । इस गजल में जितना सुन्दर भाव इन्होंने निरुपित किया है वह अवर्णनीय है । इस ग़ज़ल का मतला, शेर, मकता सब अपने आप में कबील-ए-तरीफ है ।

रोदनाय स्कन्धो न मिलेत्  स्मर्तव्योऽहं तदा ।

तव कृतेमें  कौशल तिवारी अपनी प्रेयसी को लिखते हैं कि हे प्रिये! तुम्हारे लिए मैं क्या-क्या नहीं करता । मैं रात-दिन तुम्हारा इन्तजार किया करता हूँ ।

नक्तं दिवं ननु सुजागर्ति तव कृते ।

 इसके अतिरिक्त कार्येषु निर्गते तैरहो, जनोघौ वर्तते मार्गेषु, गृहेपूजितपितृणचरणानुपेक्षीकृत्य, सर्वमस्ति खलु दिल्ल्याम्, राजनीत्याम्, लोकोऽयम्, गृहमेव मत्कृते लोकायते, उपदेशक! सुखं नास्ति यदि तत्र तर्हि, मम नास्ति, कोऽपि पराय परीयति स्वम्, चंचा, दु:खद स सुखीयति, जलम्‍, विस्मयोऽयम्, तव नेत्राभ्यां वंचितेन,  आदि गजलों, मुक्तछन्द की कविताओं (युद्धम्, राष्ट्रभक्ति:, कृषका:, सेल्फीजना:, कविता, पुस्तकम्) तथा त्रिपदिकाओं (इस विधा के जनक स्वयं तिवारी जी हैं) में  यह भाव देखने को मिलता है ।

जीवंतता की खुशबू बिखेरती इन कविताओं में मानवीय रिश्तों का हृदयस्पर्शी चित्रण है तो कहीं भेदभाव की आड़ में होने वाले ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, दुराचार और अकर्मण्यता के प्रति तंज भी है । जीवन के विविध रंगों चाहे वह रुचिकर हो अथवा अरुचिकर डा.तिवारी ने अपनी सृजनशीलता से बखूबी निभाया है ।

उनकी कवितायें पाठकों, पथिकों को उचित राह दिखायेंगी, मंजिल तक पहुंचाने में सहायक होंगी तथा अपनी रसानुभुति से सबको सरबोर करेंगी इसी विश्वास एवं अनेक शुभकामनाओं सहित....॥ 

 

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