सोमवार, 20 मार्च 2023

शेक्सपीयर की सात रातें (हिन्दी नाटक) लेखक- प्रो.रवीन्द्र प्रताप सिंह

निकष

(भाव,मीमांसा, पाठ एवं पुनर्पाठ )

समीक्षित पुस्तक- शेक्सपीयर की सात रातें (हिन्दी नाटक)
लेखक-
प्रो.रवीन्द्र प्रताप सिंह   

समीक्षक- डॉ.अरुण कुमार निषाद
प्रकाशक-
ओरिएण्टैलिया प्रकाशन,गाजियाबाद
संस्करण वर्ष-
2015 ई.
मूल्य- रु.
195/-
पृष्ठ संख्या-
96 

वैदिक आख्यानों, आर्ष महाकाव्यों तथा लौकिक साहित्य से लेकर अद्यतन भारतवर्ष में नाट्य लेखन और रंगमंच की परम्परा अबाध गति से प्रवाहित हो रही है | इसी नाट्य परम्परा को बढ़ाने का कार्य किया है लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर डॉ.रवीन्द्र प्रताप सिंह ने | इनके द्वारा विरचित हाल ही में ‘शेक्सपीयर की सात रातें’ नाटक ओरियंटैलिया प्रकाशन गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है | इस नाटक में दो अंक हैं | इसके पहले अंक में पूरी घटना एक ही अंक में समाप्त हो जाती है  तथा दूसरे अंक में सात दृश्य हैं |      



इस नाटक में सात प्रोफेसर (प्रो.इरशाद,प्रो.गोविल,प्रो.रेडियोवाला,प्रो.शबनम,प्रो.माशातोषी, प्रो.ओ.कॉनर,डॉ.डेवीज और एक शोधछात्र (सिकन्दर)लन्दन की एक संगोष्ठी में भाग लेने गए होते हैं | इस संगोष्ठी का विषय होता है ‘पोस्टमार्डनिज्म एण्ड शेक्सपीयर’ |   

इस नाटक में लेखक ने दिखाया है कि किस प्रकार आज के प्रोफेसर और शोधार्थी अपनी पदोन्नति के लिए शोधकार्य के साथ किस प्रकार खिलवाड़ कर रहे हैं | वर्तमान समय में हो रहे शोध पर लेखक ने चिन्ता व्यक्त की है कि किस प्रकार आज एक-दूसरे के शोध-प्रबन्धों और शोधपत्रों से काट-छांट कर शोधकार्य किया जा रहा है |

कोई प्रोफेसर अपने शोधपत्र शेक्सपीयर को यहूदी महिला सिद्ध कर रहा है,कोई उसके नाटकों को दूसरे का चुराया हुआ बता रहा है और कोई उसे समलैंगिक बता रहा है |

आज भी विदेशों में भारतीय संस्कृति को बहुत सम्मान दिया जाता है |

शेक्सपीयर – जिस देश की संस्कृति में दूर्वा को सौभाग्य और मंगल का प्रतीक माना गया हो, भला वह संस्कृति किसी के मिटाये क्यों मिटेगी? पृष्ठ 53

नाटककार ने नाटक की रोचकता को बढ़ाने के लिए प्रसंगानुसार यजुर्वेद के श्लोक को भी उद्धृत किया है |

काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती, परुष: परुषस्परि |

एवा नो दूर्वे प्रतनु सहस्रेण शतेन च |

दूसरे अंक के प्रथम दृश्य में भी शेक्सपीयर युवती से जयशंकर प्रसाद के गीत ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ सुनाने का आग्रह करता है |पृष्ठ 38-39

एरियल जब कैलिबल को पीट रहा होता है तब प्रोफेसर शबनम उससे कहती हैं |

प्रो.शबनम- अदृश्य आत्मा! कौन हो तुम? देखो, हम अन्याय नहीं सहन करते | हम भारत के लोग.... हम बराबरी में विश्वास करते हैं | हमारा संविधान समता का मूलाधिकार देता है हमें| हम अन्याय नहीं होने देंगे शोषण के विरुद्ध अधिकार है सबका- विश्व के सभी नागरिकों को | बोलो कौन हो तुम, जो पीट रहे हो कैलिबन को |पृष्ठ 16

जब शायलॉक एक युवती को शेक्सपीयर के दरबार में पकड़ करा लाता है जोकि अपनी मकान मालकिन को इसलिए पीट देती है कि मकान मालकिन उस पर जातिगत टिप्पणी करती है | और वह युवती शायलॉक को भैया बोलती है जब वह माँफी माँगने के लिए युवती के चरण पकड़ लेता है तो सभी सदस्यों को आश्चर्य होता है |   

मंच पर बैठे हुए सभी का समवेत स्वर-भय्या |

शेक्सपीयर –हाँ मेरे बच्चों –इसमें क्या आश्चर्य, महान देश की सन्तति है, सन्मुख |पृष्ठ 37  

मित्रता में हँसी-मजाक भी खूब होता है | एक-दूसरे की टाँग खीचने में खूब मजा आता है |भले ही वे प्रोफेसर हो या और कोई | अपनों के समूह में ये सब चलता रहता है |

प्रो.इरशाद-.....वाह,वाह! दिल आपका दरिया है भई,दिल दरिया | समन्दर भी कह सकते हैं | अभी बेहोश हुई थीं, ....अच्छा अब मैं समझा | तो ये थी –रोमांटिक बेहोशी... |पृष्ठ 17

आज के गुरू-शिष्य की असलियत भी इस नाटक में देखने को मिल जाती है | गुरू-शिष्य पर कीचड़ उछालने पीछे नहीं है तो शिष्य भी गुरू से चार कदम आगे है |        

प्रो.इरशाद-याँ,यू शुड फील | क्या अधिकार है तुम्हें, हमारे बीच बोलने का ?दो  टके का रिसर्च स्कालर, ....नेशनल फण्डिंग क्या हो गयी-चले आये विदेश घूमने ....|पृष्ठ 20

सिकन्दर-सर इट्स टू मच! भाड़ में जाए पी-एचडी., आगे किसी ने जुबान निकाली तो खींच कर गले में लपेट दूँगा |....मुझे नहीं मालूम है तेरी असलियत ? मुंह न खोलावाना मेरा, पलीते कहीं के ! पृष्ठ 21-22     

अपनी बात को तोड़-मरोड़ कर सिद्ध करने वाले प्रोफेसरों के विषय में लेखक का कथन है |

शेक्सपीयर – असभ्य और मिथ्या भाषण ! मुझे आश्चर्य होता है | आप प्रोफेसर जैसे गरिमामय पद पर कार्यरत हैं और आपके ऐसे उच्छृंखल कृत्य |पृष्ठ 58

यत्र-तत्र भूत-प्रेत जादू-टोने का भी वर्णन है |

शेक्सपीयर –क्राश कृ मो गौ म मू अ स दे औ अ स ध के ई शान्ति-शान्ति-शान्ति |पृष्ठ 47   

चुड़ैले अपने वस्त्र निकाल-निकाल कर फेंकने लगती हैं, आकाशीय बिजली चमकती है, आकाश से रक्त की वर्षा होती है | चुड़ैले अधिक उर्जान्वित होकर पावस नृत्य करती हैं | प्रोफेसरगण मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं | अब और घना अन्धकार हो गया है, यदा कदा बरसते हुए रक्त की बूँदे चमक जाती हैं | चुड़ैलों के स्वर सुनाई देते हैं |पृष्ठ 26-27

नाटककार  ने जीवन दर्शन को भी समझाया है |

जीवन की यदि कला ज्ञात हो,

क्रूर रात भी सुखद प्रात हो |

नील व्योम से आकर खुशियाँ

चरणों में गिर

बने दासियाँ

सुखद प्राप्त हो-

जीवन की यदि,

कला ज्ञात हो |पृष्ठ 35

भारतीय नाट्य परम्परा के अनुसार प्रो.सिंह ने भी इस नाटक का अन्त भरतवाक्य से किया है |

स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता !

दैत्य हो,मनुष्य हो, और चाहे देवताजीव-तत्त्व से विशद,

गूढ़ इसकी सत्ता,

स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता, स्वतन्त्रता ! पृष्ठ 96

समकालीन काव्य जगत में प्रो.रवीन्द्र प्रताप सिंह एक प्रयोगधर्मी, युगद्रष्टा, नव्यशैली के प्रवर्तक विश्व कविता के प्रवाहों को हिन्दी  में प्रवाहित करने वाले सशक्त अंगुल्यग्रगण्य एवं एक महिमामंडित स्थान पाने वाले 21वीं शताब्दी के प्रतिनिधि विलक्षण रचनाकार हैं | उनके इस संग्रह के लिए अनेकश: बधाईयाँ |     

 

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