सोमवार, 13 मार्च 2023

वेदों का रचनाकाल

 1. वेदों का रचनाकाल एवं ऋग्वेदीय संवादसूक्त

> वेदों का रचनाकाल निर्धारण वैदिक वाङ्मय की एक जटिल समस्या है। विभिन्न विद्वानों ने भाषा, रचनाशैली, धर्म एवं दर्शन, भूगर्भशास्त्र, ज्योतिष, उत्खनन में प्राप्त सामग्री, अभिलेख आदि के आधार पर वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास किया है, किन्तु इनसे अभी तक कोई सर्वमान्य रचनाकाल निर्धारित नहीं हो सका है। > भारतीय षड्दर्शन - पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा (वेदान्त), सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक एवं वेदभाष्यकारों ने वेद के अपौरुषेयत्व का कथन किया है। पूर्वमीमांसा वेद को नित्य एवं अनुत्पन्न मानती है।
> पाश्चात्त्य विद्वान् भारतीय परम्परागत 'वेद के अपौरुषेयत्व सिद्धान्त' को स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि वेद आर्यों की रचना है, मानवकृत (पौरुषेय) हैं; अतएव अपौरुषेय नहीं है।
प्रो. मैक्समूलर का मत-
> प्रो. मैक्समूलर ने सन् 1859 ई. में स्वरचित ग्रन्थ " A History of Ancient Sanskrit literature" में वेदों के काल निर्णय का सर्वप्रथम प्रयास किया।
> मैक्समूलर के अनुसार सर्वप्राचीन ऋग्वेद की रचना 1200 ई. पू. (विक्रमपूर्व) में हुई होगी, क्योंकि विक्रम से लगभग 500 वर्ष पूर्व उदित हुआ बौद्ध धर्म वैदिक वाङ्मय की सत्ता को स्वीकार करता है ।
> प्रो. मैक्समूलर ने समग्र वैदिककाल को चार विभागों में बाँटा है
1. छन्दकाल 2. मन्त्रकाल 3. ब्राह्मणकाल 4. सूत्रकाल इसमें प्रत्येक युग की विचार धारा के उदय तथा ग्रन्थ रचना के लिए उन्होंने 200 वर्षों का काल माना है।
1. सूत्रकाल
2. ब्राह्मणकाल-
3. मन्त्रकाल -
4. छन्दकाल -
600 ई. पू. से 200 ई. पू. तक
800 ई. पू. से 600 विक्रमपूर्व ( ई. पू.) 1000 से 800 विक्रमपूर्व (ई. पू.)
1200 से 1000 विक्रमपूर्व ( ई. पू.)
> सन् 1890 ई. में प्रकाशित " Physical Religion" (भौतिक धर्म) नामक अपनी पुस्तक में प्रो. मैक्समूलर ने अपनी भूल स्वीकार करते हुए लिखा है कि- " इस भूतल पर कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है, जो कभी निश्चय कर सके कि वैदिक मन्त्रों की रचना 1000 या 1500 या 2000 या 3000 विक्रमपूर्व में की गयी हो ।”
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वैदिकवाङ्मय परीक्षा दृष्टि
संस्कृतगंगा
> परन्तु हम भारतीयों का दुर्भाग्य कि वेदों के काल निर्णय के विषय में मैक्समूलर के 1200 विक्रमपूर्व को ही हम सनातन सत्य मानते आ रहे हैं, परीक्षाओं में भी यह प्रश्न प्रमुखता से पूछा जा रहा है, जबकि इस मत के प्रणेता मैक्समूलर ने स्वयं इसे अपनी भूल मानते हुए, इस मत का खण्डन कर चुके हैं।
ए. वेबर का मत
जर्मन विद्वान प्रो. ए. वेबर ने कहा है – “ वेदों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता। वे उस तिथि के बने हुए हैं, जहाँ तक पहुँचने के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नहीं है। वर्तमान प्रमाण, हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर तक पहुंचाने में असमर्थ हैं।"
प्रो. वेबर यह भी कहते हैं कि - "वेदों के समय को कम से कम 1200 ई. पू. या 1500 ई. पू. के बाद का कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता।"
> प्रो. वेबर ने अपनी पुस्तक "History of Indian literature" यहाँ तक लिख दिया
कि – “Any such of attempt of defining the relic antiquity is absolutely fruitless” अर्थात् वेदों का काल निर्धारण के लिए प्रयत्न करना सर्वथा बेकार है । डॉ. जैकोबी का मत
> जर्मन विद्वान डॉ. जैकोबी का वैदिक काल विषयक सिद्धान्त ज्योतिष की आधार शिला पर अवलम्बित है, जो बालगंगाधर तिलक के मत से मिलता-जुलता है। डॉ. जैकोबी ने कृत्तिका और बसन्तपात के आधार पर वेदमन्त्रों का रचनाकाल 4590 ई. पू. तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल 2500 ई. पू. के पश्चात् स्वीकार किया है।
इसप्रकार संक्षेप में याकोबी के अनुसार 4500 ई. पू. से 3000 ई. पू. ऋग्वेद का रचनाकाल है तथा 3000 ई. पू. से. 2000 ई.पू. ब्राह्मणों का रचनाकाल है। बालगंगाधर तिलक का मत
> लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में उपलब्ध ज्योतिष विषयक साक्ष्यों के आधार पर वेदों का काल 4000 से 6000 विक्रमपूर्व स्वीकार किया है।
तिलक जी ने वैदिक काल को चार विभागों में रखा है-
1. अदितिकाल
2. मृगशिरा काल
3. कृत्तिका का
4. अन्तिम काल
6000 ई. पू. से 4000 विक्रम पूर्व तक
4000 ई. पू. से. 2500 विक्रमपूर्व तक (ऋग्वेदसंहिता
का मन्त्रकाल )
2500 से 1400 ई. पू. विक्रमपूर्व तक ( तैत्तिरीय संहिता व ब्राह्मणकाल )
1400 से 500 विक्रमपूर्व तक (सूत्रग्रन्थों का रचनाकाल)



> परन्तु हम भारतीयों का दुर्भाग्य कि वेदों के काल निर्णय के विषय में मैक्समूलर के 1200 विक्रमपूर्व को ही हम सनातन सत्य मानते आ रहे हैं, परीक्षाओं में भी यह प्रश्न प्रमुखता से पूछा जा रहा है, जबकि इस मत के प्रणेता मैक्समूलर ने स्वयं इसे अपनी भूल मानते हुए, इस मत का खण्डन कर चुके हैं।
ए. वेबर का मत
जर्मन विद्वान प्रो. ए. वेबर ने कहा है – “ वेदों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता। वे उस तिथि के बने हुए हैं, जहाँ तक पहुँचने के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नहीं है। वर्तमान प्रमाण, हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर तक पहुंचाने में असमर्थ हैं।"
प्रो. वेबर यह भी कहते हैं कि - "वेदों के समय को कम से कम 1200 ई. पू. या 1500 ई. पू. के बाद का कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता।"
> प्रो. वेबर ने अपनी पुस्तक "History of Indian literature" यहाँ तक लिख दिया
कि – “Any such of attempt of defining the relic antiquity is absolutely fruitless” अर्थात् वेदों का काल निर्धारण के लिए प्रयत्न करना सर्वथा बेकार है । डॉ. जैकोबी का मत
> जर्मन विद्वान डॉ. जैकोबी का वैदिक काल विषयक सिद्धान्त ज्योतिष की आधार शिला पर अवलम्बित है, जो बालगंगाधर तिलक के मत से मिलता-जुलता है। डॉ. जैकोबी ने कृत्तिका और बसन्तपात के आधार पर वेदमन्त्रों का रचनाकाल 4590 ई. पू. तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल 2500 ई. पू. के पश्चात् स्वीकार किया है।
इसप्रकार संक्षेप में याकोबी के अनुसार 4500 ई. पू. से 3000 ई. पू. ऋग्वेद का रचनाकाल है तथा 3000 ई. पू. से. 2000 ई.पू. ब्राह्मणों का रचनाकाल है। बालगंगाधर तिलक का मत
> लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में उपलब्ध ज्योतिष विषयक साक्ष्यों के आधार पर वेदों का काल 4000 से 6000 विक्रमपूर्व स्वीकार किया है।
तिलक जी ने वैदिक काल को चार विभागों में रखा है-
1. अदितिकाल
2. मृगशिरा काल
3. कृत्तिका का
4. अन्तिम काल
6000 ई. पू. से 4000 विक्रम पूर्व तक
4000 ई. पू. से. 2500 विक्रमपूर्व तक (ऋग्वेदसंहिता
का मन्त्रकाल )
2500 से 1400 ई. पू. विक्रमपूर्व तक ( तैत्तिरीय संहिता व ब्राह्मणकाल )
1400 से 500 विक्रमपूर्व तक (सूत्रग्रन्थों का रचनाकाल)


> लोकमान्य तिलक जी ने "Orion" ( ओरायन) के पश्चात् लिखे गये अपने ग्रन्थ “Arctic Home in the Vedas” में वेदकाल को 10000 ( दस हजार ) ई. पू. बतलाया। उन्होंने विज्ञान तथा ज्योतिष के आधार पर यह सिद्ध किया कि भारत में आने से पूर्व आर्य लोग उत्तरी ध्रुव में रहते थे, और वहाँ पर भी वे वैदिक धर्म को ही मानते थे ।
एम. विण्टरनित्स का मत
> विण्टरनित्स ने ब्राह्मणग्रन्थों, पाणिनि व्याकरण की संस्कृत भाषा तथा अशोक के शिलालेखों की भाषा – इन सबका वैदिक भाषा से साम्य को ध्यान में रखते हुए, ऋग्वेद का काल जैकोबी तथा तिलक द्वारा निर्धारत तिथि ( 4500 से 6000 ई. पू.) के बीच में स्वीकार किया है।
भारतीय परम्परागत विचार
> भारतीय परम्परावादी विद्वानों के
नहीं बल्कि असम्भव है।
मतानुसार वेदों का काल निर्धारण करना मूर्खता ही
> भारतीय परम्परागत विद्वानों का विचार है कि - 'वेद नित्य हैं, और सृष्टि के प्रारम्भ से ही वेदों का आविर्भाव हुआ है, ऋग्वेद का पुरुष सूक्त वेदों की उत्पत्ति के लिए स्वयं प्रमाण हैं-
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत: ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस्मादजायत॥
→ भारतीय मत में जिस परमात्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति की उसी ने सृष्टि के पूर्व वेदों की रचना की होगी, इसीलिए वेद अपौरुषेय हैं।
→ भारतीय परम्परावादी विद्वानों का कहना है कि सृष्टिकर्ता विधाता ने सृष्ट्युत्पत्ति के पूर्व जिस विचारधारा की सर्वप्रथम कल्पना अपनी बुद्धि में की, वही आम्नाय या वेद हैं। > ऋग्वेद का ही कथन है- " तस्मादृचो पातक्षन् यजुस्तस्मादपाकयन् । सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम्॥"
→ आदि शङ्कराचार्य ने वेदों का सर्वज्ञानमयत्व मानते हुए कहते हैं- महतः ऋग्वेदादेः
शास्त्रस्य अनेक विद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः... अर्थात् ऋग्वेदादि महान् शास्त्र अनेक विद्यास्थानों से विकसित हुआ है, और यह प्रदीपवत् समस्त विषयों को प्रकाशित करता है । इसप्रकार के सर्वज्ञान सम्पन्न शास्त्र का उत्पत्ति स्थान ब्रह्म ही हो सकता है, क्योंकि सर्वज्ञ परब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी से ऋग्वेदादि सर्वज्ञानसम्पन्न शास्त्र की उत्पत्ति नहीं हो सकती । > " ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।" के अनुसार सर्वज्ञानमय पूर्णवेद की उत्पत्ति पूर्णब्रह्म से ही सम्भव है।


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