अनुभव की मिट्टी पर उपजी लघुकथाएँ ‘शेष:कथांश:’
समीक्षित पुस्तक: शेष:
कथांश: (लघुकथा संग्रह)
लेखक: डॉ.प्रवीण पण्ड्या
जैसे-जैसे समय बीतता जाता है वैसे-वैसे मनुष्य की
संवेदनाएँ बदलती चली जाती हैं तथा जैसे-जैसे संवेदनाएँ बदलती है वैसे-वैसे साहित्य
का स्वरूप भी बदलता चला जाता है। जैसे-जैसे साहित्य का स्वरूप बदलता है वैसे-वैसे
कथानक का स्वरूप भी बदलता है। दरअसल कथानक मनुष्य की संस्कारात्मक अनुभूतियों का
साहित्यिक रचाव है। आज साहित्य का स्वरूप एकरेखीय नहीं है। विधाओं की रेखाएँ
ध्वस्त हो रही हैं। एक विधा में कई विधाओं के गुण संचरण करते हुए दिखाई दे रहे
हैं। लघुकथा का आकार छोटा होने के कारण इसका शीर्षक उपन्यास व कहानी के शीर्षक
से भी अधिक महत्व रखता है। पाठक सबसे पहले लघुकथा का नाम पढ़ता है अतः लघुकथा का
शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को लघुकथा को पढ़ने के लिए उत्साहित करे। इस क्षेत्र में पुस्तक
के लेखक डॉ.प्रवीण पण्ड्या जी सफल सिद्ध हुए हैं।
समकालीन संस्कृत साहित्य के गम्भीर अध्येता, कवि तथा
आलोचक डॉ.प्रवीण पण्ड्या का सद्य प्रकाशित लघुकथा संग्रह “शेष:कथांश:” एक महत्वपूर्ण संग्रह है। शीर्षक
अतिरोचक है जो ग्रन्थ को पढ़ने के लिए उत्सुकता जगाती है जो अपने आप में बहुत कुछ
कहती है। संग्रह में 16 उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं (इसमें 11कहानियाँ की स्वयं की हैं और अन्तिम 5 अन्य
भाषाओं से लेखक द्वारा अनूदित हैं)जो “रचना प्रकाशन जयपुर” से
प्रकाशित हुआ है। डॉ.प्रवीण पण्ड्या जी की लघुकथाओं
में युगबोध है सृजनरत होते समय वे अपने युग के साथ, परिवेश के साथ पूरी तरह से जुड़े रहते
हैं। उनकी लघुकथाओं में वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष दिखाई देता है। उन्होंने इस
संग्रह की अधिकांशतः कथाओं में असमर्थता और बेचारगी का अभिशाप झेल रहे लोगों की
भावनाओं को अपनी क़लम के द्वारा बख़ूबी उकेरा है।
पहली कहानी ‘चोर:’ देव नामक ऐसे बच्चे
की कहानी है (जिसका पिता शराबी है)जो अपनी गरीबी के कारण स्कूल में चोरी करता है |
उस निर्धन बस्ती का बड़ा ही सजीव वर्णन लेखक ने किया है –“नगरस्य एकस्मिन्
कोणेऽस्ति निर्धनानां वस्ति: न तत्र
विद्युत: प्रकाश: | न वा शिक्षाया: प्रकाश: ......|पृष्ठ 20 यह कहानी पाठक
को सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हम स्वतन्त्र भारत में जी रहे हैं जहाँ एक
तरफ लोग पार्टियों में भोजन बर्बाद कर रहें वहीं दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा भी है जिसे
अपना पेट पालने के लिए चोरी करना पड़ता है |...कर्णयो चिरपरिचित: स ध्वनि:
समागत:-“गुरो अहं चोर:” |पृष्ठ 22 यहाँ मृच्छकटिकम् की यह सूक्ति याद आती
है, जब चारुदत्त कहता है कि –निर्धनता प्रकामपरं षष्ठं महापातकम् (1/37)
अर्थात् निर्धनता छठा महापातक है |
‘अकथा’कहानी पाठक के समक्ष कई सारे
प्रश्न छोड़ जाती है | सा का? नाम न जाने तस्या:, परं तां जाने | सा
पृथिव्यस्ति सिव पृथिवी, परं शातयिता रावणनामा न| सा क्रन्दति| ऋषयो म्रियन्ते |
क्वास्ति ? क्षात्रतेजो विलयं जातम्?विभीषणा: किं भ्रातृमोहं न त्यक्षन्ति? ते न
वदिष्यन्ति रहस्यम्?.....|हां !बन्धो! किं वच्मि ?इदानीं भण | किमियं कथा वा? न वा
हृदयस्य काचिदकथा, शब्दानां वा काचित् कथा? |पृष्ठ 27
‘पुरस्कार:’ कथा में आज के समय और समाज को दिखाया गया है | सत्य आज
दर-दर की ठोकरें खाने परा मजबूर है, इसके विपरीत झूठे और मक्कार लोग मौज कररहे हैं
| यह भगवद्दत नामक शिक्षक की कथा है जो स्कूल में गलत कार्यों के विरोध करने के
कारण निलम्बित कर दिया जाता है |
“आम्” इति कथमपि उक्त्वा
स्वप्रकोष्ठं गत्वा पत्रम् उद्घाटितम् | तत्र लिखितम् आसीत् –“चरित्रहीनताया
अनुशासनहीनताया; च कारणात् भवान् सर्वकारीयसेवात: निष्कासितोऽस्ति इति सविषादं
सूच्यते ....|” पृष्ठ 31
“श्राद्धम्”, “जीवनस्य मेरु:”,
“वैरावैरम्”, “समय:”, “गृहम्”, “कौतुकम्” आदि लघुकथाएँ एक अलग दृष्टिकोण से
रची गई हैं जो कि संवेदनशीलता से भरी होने पर भी बेहद जीवंतता, बेबाकीपन और साथ-ही-साथ
व्यंग्य की भंगिमा से भरी है।
“अहिंसा परमो धर्म:”, और “स्नातं स्नातं पुन:
स्नातम्” बाल मनोविज्ञान पर आधारित कहानियाँ हैं | एतां घटनां बालस्य
अहिंसामनोभावं च स्मृत्वा इदानीमपि अहं सन्तोषम् अनुभवामि |”पृष्ठ 45
“धिक् त्वां सत्यवादिनम्” कथा मौलिक अधिकारों के हनन की ओर
संकेत करती है जहाँ पर सत्येन्द्र नामक व्यक्ति को इसलिए गोली मार दी जाती है कि
वह भ्रष्टाचारी को भ्रष्टाचारी बोल देता है | डॉ.प्रवीण पण्ड्याजी लिखते
हैं कि आज समय में सही को सही कहना कितना मुश्किल है |अहा! अहा! अनन्तरं किं
जातं नाहं जाने किन्तु मित्रै: ज्ञातं यत्तदा तेन आग्नेयास्त्रधाराकेन प्रहार:
कृत: | तदैव सौभाग्याद् दौर्भाग्याद् वा भूमि: कम्पं कृतवती .....|पृष्ठ 38
एक रचनाकार जिस समय में रहता है उसी समय को अपनी
कृतियों के माध्यम से लाने और दिखाने का प्रयास करता है जिसमें अपने समय के साथ
उसकी आत्मा भी किसी –न- किसी रूप और स्तर पर दिख जाती है। डॉ.प्रवीण पण्ड्या के रचनात्मक जीवन में
परिवेश का बहुत बड़ा योगदान रहा, हर क्षेत्र में उनकी एक सक्रिय और सजग उपस्थिति, जो इस कृति की प्रमुख वस्तु है। इन लघुकथाओं के माध्यम से हम यह साफ़-साफ़
देख सकते हैं कि कितने कष्टों-मुश्किलों और अभावों-असुविधाओं में न केवल लेखक की
दृष्टि अपने लेखन का विषय ढूँढ़ लेती है और हमारे समक्ष समाज का एक चित्र प्रस्तुत
करती है, बल्कि कहीं-कहीं स्पष्टीकरण का प्रयास भी करती है।
यह डॉ.प्रवीण पण्ड्या जी के लेखन
की विशेषता है। दरअसल इस तरह की सच्चाई या बयान करने का
साहस और जोख़िम उठाना किसी भी रचनाकार के लिए आसान नहीं होता। कमोबेश इन लघुकथाओं
का फ़ॉर्म नया-सा है। कला की चेतना भी तनी हुई दिखाई देती है। संग्रह की लघुकथाओं
में दुख-दर्द से भरी मानव की चीख़ ही नहीं है, हम सभी के लिए
एक बड़ी चेतावनी भी है।
संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं को उकेरने में सफल रही हैं, जिससे पाठक विषय
पर सोचने को मजबूर हो जाता है। भाषा-शैली सहज-सरल एवं पूर्णतः संप्रेषणीय है। कम
शब्दों में ध्येय स्पष्ट करने के लिए जो तराश और क़रीना अपरिहार्य है उसे डॉ.प्रवीण
पण्ड्या जी अच्छी तरह से समझते हैं। यह उनका अपना ढंग है अपनी व्याख्या है।
कामना है कि इसी तरह से साहित्य-जगत को अपनी लेखनी से आलोकित करते रहें।
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