विद्याधर शास्त्री का जन्म 8 अगस्त 1901 ई. को राजस्थान के बीकानेर शहर में हुआ था | इन्होंने लगभग 25 ग्रन्थों की रचना की जिसमें से केवल एक ही प्रकाशित है |
रचना-हरनामृत महाकाव्यम् | (1954 ई. में प्रकाशित)
इस ब्लॉग पर संस्कृत, आधुनिक संस्कृत, समकालीन संस्कृत एवं 21वीं शताब्दी की नवीन संस्कृत की पुस्तकों की जानकारी तथा संस्कृत के विद्यार्थियों (शोधार्थियों),अध्येताओं के लिए आवश्यक अन्य जानकारियाँ भी पोस्ट की जाती हैं |
विद्याधर शास्त्री का जन्म 8 अगस्त 1901 ई. को राजस्थान के बीकानेर शहर में हुआ था | इन्होंने लगभग 25 ग्रन्थों की रचना की जिसमें से केवल एक ही प्रकाशित है |
रचना-हरनामृत महाकाव्यम् | (1954 ई. में प्रकाशित)
डॉ.प्रमोद कुमार नायक का जन्म 11 जनवरी 1963 ई. को उड़ीसा राज्य के कटक जनपद के मुगगहिर नामक गाँव (वाडम्बागड) में हुआ था |
रचना-परिचय (संस्कृत काव्य संग्रह)
समीक्षक- डॉ. अरुण कुमार निषाद
कृति- 'समरक्षेत्रम्’
(आधुनिक संस्कृत काव्यसंग्रह)
प्रणेता- डॉ.कौशल तिवारी
प्रथम संस्करण- 2013 ई.
मूल्य- रु. 50/-पृष्ठ- 90
प्रकाशक- हंसा प्रकाशन राजस्थान।
1.मार्गों
न
गच्छति कुत्रापि ।
2.नदी
यदा प्रवहति
सैव
केवलं न प्रवहति
प्रवहति
तया साकं
समयोऽपि
।
3.बाल्यकाले
क्रीडितामया
पुत्तलिकाक्रीडा
इदानीमहमपि
पुत्तलिकाभूता ।
‘समरक्षेत्रे’ कविता
में वे लिखते हैं कि यह दुनिया एक समरक्षेत्र है और उस उस समरक्षेत्र में मैं
अकेला हूँ।
अन्धतमसम्
एकलोऽहं
नैके
ते
समरक्षेत्रम्
।
तो कहीं-कहीं वे प्रणयी कवि के रुप में भी नजर आते
हैं ।
1.न
जानेऽहम्
उष्णतम:
प्रदेश कोऽस्ति
किन्तु
जाने
त्व
प्रणयस्योष्णताम् ।
2.प्रणयसमये
स्पृष्ट्वाऽधरं
त्वां
मदिरायसे ।
3.त्वमसि
ममैव
गङ्गा
स्नात्वा
स्नात्वा
तव
प्रणयनीरे
पवित्रो
भवामि ।
संस्कृत ग़ज़लों में
आधुनिक सोच रखने वाले कवि डॉ.कौशल तिवारी की ग़ज़लें रदीफ़ और काफ़िया की दृष्टि से
उच्चकोटि की हैं ।
1.स्ममरणं
ते मत्कृते प्रणायते।
मौनमपि
मत्कृते शब्दायते ।।
रिक्तो
भवति चषको यदा यदा
तवाधरो
मत्कृते मदिरायते।।
2.यया
कदाचित् प्रणयः कृतः
तस्या:
करेऽद्य शस्त्रं दृष्टम् ।।
इस काव्य की भाषा
बहुत ही सरस तथा सरल है । दीर्घ समासयुक्त पदों का सर्वथा अभाव है । कवि की छन्द
प्रयोग में सम्यक् गति है । सूक्ष्म अभिव्यक्ति वस्तुतः चिंतन की गहनता से उद्भूत
होती है,
तिवारी जी की प्रत्येक रचना में यह है। इस संग्रह की अधिकांश
कविताएँ छोटी एवं संवादात्मक हैं, जो अपने इसी कलेवर में
पाठक पर स्थायी प्रभाव छोड़ती हैं। सब मिलाकर यह एक पठनीय काव्य है । इस नई रचना के लिए लेखक को अशेष मंगलकामनाएँ ।
संवेदनाओं का कोलाज रचती कौशल की कवितायें
(‘स्मर्तव्योऽहं तदा’ के आलोक में)
डॉ.तिवारी रूढ़िवादी और पुरातनपंथी विचारधारा का पुरजोर विरोध करते हैं । चाहे वह काव्य का क्षेत्र हो या जीवन का । यह विरोध उनके काव्य और जिन्दगी दोनों में स्पष्ट दिखलाई देता है ।
डॉ.कौशल तिवारी लिखते हैं की अब गाँव प्राचीन
समय के गाँव जैसा नहीं रहा । अब गाँवो से भाईचारा, मेल-मिलाप समाप्त हो गया है । मोबाइल दूरदर्शन आदि ने लोगों में दरार पैदा कर
दिया है ।
नगरीय रहन-सहन का वर्णन करते हुए डॉ.तिवारी
लिखते हैं कि- नगरीय संस्कृति में किसी से किसी को कोई मतलब नहीं है । कौन मर रहा
है, कौन
जी रहा है ।
एक: स्कन्धस्तु.....नगरेऽस्मिन्।
इस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद बरबस ही मुनव्वर राना
का यह शेर जेहन में उभर आता है ।
तुम्हारे शहर में सब मय्यत को काँधा नहीं देते
।
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं ॥
‘कार्येषु निर्गते तैरहो’
में वे लिखते हैं कि मन साफ
होगा चाहिए गंगा नहाने से कोई पाप नहीं धुलता ।
नवपापाय तत्परोऽस्मि
गंगाजलेन स्नातोऽहम् ॥
‘अद्यापि’
में वे लिखते हैं कि आप सारे
संसार में घूम लो पर जो आनन्द और सुख घर में प्राप्त होता है वह दुनिया के किसी
कोने में नहीं मिल सकता ।
प्रेमपूरित लोचनयो: प्रिये
तिवारिणा लब्धं जीवनमद्यापि ॥
‘कालोऽयम्’
कविता में तिवारी लिखते हैं
कि समय का चक्र अपनी गति से चलता रहता है । इस पर किसी का वश नहीं है । इसकी गति
अबाध है ।
अग्यातलिप्यां मनुजललाटे
किं किं तत्
यन्न कालोऽयम् ।
आज की गंदी राजनीति से कवि कितना आहत है । वह
उसकी कविता से जाना जा सकता है ।
राजनीतिकूपे भंगा मिलिता सर्वत्र
कोऽपि शकुनिस्तु कोऽपि धृतराष्ट्रो दृश्यते ॥
अपनी ‘कोऽपि नास्ति’ ग़ज़ल में आज के बनावटी और स्वार्थी समाज का बड़ा
ही सुन्दर चित्रण इन्होंने किया है।
रचनाकार अपनी रचना में किसी-न-किसी बहाने से
अपना रोष प्रकट कर ही देता है ।
कौशल
जी का मानना है कि ढ़ोंग और दिखावा करने की कोई आवश्यकता नहीं है । सही क्या है गलत
क्या है यह सबको पता है ।
गंगा जलं तु.....।
आज के
ऐसे समय में डॉ.कौशल तिवारी ने किसान की सुधि ली है, जब कथाकथित धनाढ्य लोग खुद को खुदा मान बैठे
हैं । ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में बसने वाले लोगों को क्या पता कि किस प्रकार से
अनाज कैसे उत्पन्न किया जाता है ।अपने
परिवार तथा खुद के लिए दो वक्त की रोटी न
जुटा पाने वाला किसान, मँहगी-मँहगी पार्टियों में रईसी दिखाने वाले तथा सड़कों और
कचरों में खाना फेंकने वालों के लिए अन्न पैदा करता है । इनकी यह गज़ल पढ़ने के बाद
अदम गोंडवी जी की दो गजलें याद आती हैं कि-
(१.) तुम्हारी
फाइलों में गॉँव का मौसम गुलाबी है ।
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये वादा किताबी है ॥
(२.) वो
जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है ।
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है ॥
कोई भी आज के समय में किसी से बिना स्वार्थ के
नहीं जुड़ता है । अगर कोई आप को चाह रहा है तो अवश्य उसका कोई-न-कोई काम आपके
द्वारा सिद्ध होना है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है-
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
‘स्मर्तव्योऽहं तदा’
गजल तो संवेदना की पराकाष्ठा
को भी पार भी पार कर जाती है । इस गजल में जितना सुन्दर भाव इन्होंने निरुपित किया
है वह अवर्णनीय है । इस ग़ज़ल का मतला, शेर, मकता सब अपने आप में कबील-ए-तरीफ है ।
रोदनाय स्कन्धो न मिलेत् स्मर्तव्योऽहं तदा ।
‘तव कृते’ में
कौशल तिवारी अपनी प्रेयसी को लिखते हैं कि हे प्रिये! तुम्हारे लिए मैं
क्या-क्या नहीं करता । मैं रात-दिन तुम्हारा इन्तजार किया करता हूँ ।
नक्तं दिवं ननु सुजागर्ति तव कृते ।
इसके
अतिरिक्त कार्येषु निर्गते तैरहो, जनोघौ वर्तते मार्गेषु, गृहेपूजितपितृणचरणानुपेक्षीकृत्य,
सर्वमस्ति खलु दिल्ल्याम्,
राजनीत्याम्,
लोकोऽयम्,
गृहमेव मत्कृते लोकायते,
उपदेशक! सुखं नास्ति यदि
तत्र तर्हि, मम
नास्ति, कोऽपि
पराय परीयति स्वम्, चंचा, दु:खद स सुखीयति, जलम्, विस्मयोऽयम्, तव नेत्राभ्यां वंचितेन, आदि
गजलों, मुक्तछन्द
की कविताओं (युद्धम्, राष्ट्रभक्ति:, कृषका:, सेल्फीजना:, कविता, पुस्तकम्) तथा त्रिपदिकाओं (इस विधा के जनक
स्वयं तिवारी जी हैं) में यह भाव देखने को
मिलता है ।
जीवंतता की खुशबू बिखेरती इन कविताओं में
मानवीय रिश्तों का हृदयस्पर्शी चित्रण है तो कहीं भेदभाव की आड़ में होने वाले
ऊंच-नीच, अमीर-गरीब,
दुराचार और अकर्मण्यता के
प्रति तंज भी है । जीवन के विविध रंगों चाहे वह रुचिकर हो अथवा अरुचिकर डा.तिवारी
ने अपनी सृजनशीलता से बखूबी निभाया है ।
उनकी कवितायें पाठकों,
पथिकों को उचित राह
दिखायेंगी, मंजिल
तक पहुंचाने में सहायक होंगी तथा अपनी रसानुभुति से सबको सरबोर करेंगी इसी विश्वास
एवं अनेक शुभकामनाओं सहित....॥
।
अभिनव अभिव्यञ्जनाओं की अभिनव अनुभूतियाँ :
उज्जयिनीवीरम्
समीक्षित पुस्तक- उज्जयिनीवीरम् (रूपक संग्रह)
लेखक- डॉ.प्रवीण पण्ड्या
समीक्षक- डॉ.अरुण
कुमार निषाद
प्रकाशक- रचना प्रकाशन, जयपुर
संस्करण वर्ष- 2022 ई.
मूल्य- रु. 100/-
पृष्ठ संख्या- 64
डॉ.प्रवीण पण्ड्या हमारे
समय के प्रख्यात कवि,आलोचक और नाटककार हैं |आप राजस्थान के एक इण्टर कालेज में
प्राचार्य पद को सुशोभित कर रहे हैं | अभी हाल ही में आप द्वारा लिखित रूपक संग्रह
“उज्जयिनीवीरम्” प्रकाशित हुआ है | इस संग्रह में तीन एकाकियाँ हैं- 1.बलिदानम्
2.का ममाभिज्ञा का च तव सत्ता 3.उज्जयिनीवीरम्|
बलिदानम्
–यह पौराणिक आख्यान पर आधारित एकांकी है | इसमें
महाराज बलि की दानशीलता का निरूपण किया गया है | इस एकांकी में कुल 9 दृश्य हैं |
प्रथम दृश्य में बलि का जन्म, द्वितीय में बाल्यावस्था में ही
दानशीलता, तृतीय में माता-पिता (विरोचन) और बलि का संवाद, चतुर्थ में बलि आदि के
शिक्षा समाप्ति का वर्णन,पञ्चम में भारतभूमि की महिमा का वर्णन,पष्ठ दृश्य में
बतलाया गया है कि राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए, सप्तम दृश्य में दो व्यक्तियों
के वार्तालाप से बलि के प्रजाहित के विषय में जानकारी मिलती है, अष्टम दृश्य में
बलि के गुरू शुक्राचार द्वारा वामन भगवान का परिचय दिया गया है, और अन्तिम नवम
दृश्य में भगवान वामन द्वारा बलि के आशीष का वर्णन है |
इस एकांकी में दान की
महत्ता को दिखाया गया है |
पय:
पीयते तैर्यजनन्या न बालै –
र्जनन्य:
कृशाङ्गा यदा दु:खिताश्च |
ऋतूनां
प्रकोपे न वै सन्त्युपाया
दयाभावनाऽत्लास्ति
तेषां कृते वा ||पृष्ठ 25
x x x
मम
द्वारे जगन्नाथो हस्तौ प्रसार्य संस्थित: |
भवेत्तदावायो:
कस्य दानेऽत्र हि पराजय: ||22||पृष्ठ 32
डॉ.प्रवीण पण्ड्या ने
भारतभूमि की महिमा का भी गान किया है-
योगभूमिर्महाभूमि:
सदा जयतु भारती |
वेदभूमि:
स्मृतेर्भूमि: सदा जयतु भारती ||14||
ऋषिभिरुच्यते
यत्र सदा जयतु भारती
सदा
जयतु संसारे भारत्यान्वितभारती ||15||पृष्ठ 27
कवि ने राष्ट्र हित को
सर्वोपरि माना है |
नश्यन्तु
केवलं दुष्टा:, जना जीवन्तु निर्भया: |
चिन्ता
राजजनानां न यद्भाव्यं तद्भवेत्खलु ||15||पृष्ठ 30
मनुष्य का यश ही होता है
जो जन्म जन्मान्तर तक रहता है | बाक़ी इस संसार में सब नाशवान है|
न
देहेन न राज्यं, न लक्ष्म्या स्थीयते सदा |
प्रापत्व्या
कीर्तिरेकात्र, जगति चिरजीविनी ||21||पृष्ठ 31
अहंकार के दुष्परिणाम को
भी इस एकांकी में बताया गया है कि अहंकार होता तो सूक्ष्म है किन्तु गड्ढे में
गिरा देता है- ‘‘सूक्ष्मोऽप्यहंकारो गर्ते पातयति |’’ पृष्ठ 33
इस एकांकी में श्लोकों
के क्रम संख्या में टंकण की गलती नजर आती है |
एक स्थान पर शुक्राचार्य के कथन में ‘‘श्रुतं स्यात्
- स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, किरांगना यत्र गिरो गिरन्ति’’
यह उक्ति खटकती है क्योंकि यह उक्ति आदि शंकराचार्य और मण्डनमिश्र
विवाद से जुडी हुई है जो बहुत काल बाद के हैं।
का
ममाभिज्ञा का च तव सत्ता –यह एकांकी रूपक पाश्चात्य “मोनो
एक्ट” शैली में लिखित है । बांग्ला रंगमंच में एकल अभिनय की परम्परा बहुत पुरानी
है | ‘बाऊल’ एक तरह से एकल नाट्य ही है | प्राचीन रूपक भेद भाण से भी इसका कुछ-कुछ
साम्य कहा जा सकता है| इसमें केवल एक पात्र ही दर्शकों के समक्ष आकर सम्पूर्ण
नाट्य का अभिनय करता है |
इस एकांकी में मतदान के
महत्त्व को बतलाया गया है | रूपककार का कहना है कि जनता को धर्म-जाति इत्यादि से
ऊपर उठकर राष्ट्रहित के लिए वोट (मत) देना चाहिए |
“.....स्वपादयो:
परशुं न प्रहरिष्यामि |.....” पृष्ठ 42
जब मत का केवल दान होगा, उसको बेचा नहीं जायेगा तभी तो सहीं अर्थों में चुनाव होगा-
‘‘दानं करिष्यति चेद् विजेष्यति। विक्रयं विधास्यति
चेत्त्वं पराजयं प्राप्स्यति, ते जयं लप्स्यन्ते।’’पृष्ठ 41
डॉ.प्रवीण पण्ड्या कहते
ही कि हे राजनेताओं ! हम तुमसे न धन,शराब आदि तो माँग नहीं रहे, हम तो तुमसे केवल मूलभूत
आवश्यकता की वस्तुओं की इच्छा करते हैं जो जनता के लिए जरुरी है |
“.....नाहं याचे सुरां नाहं याचे यवागूम् | याचेऽहं कुल्यासु जलं
कृषिकर्मणे .......|”पृष्ठ 42
यहाँ अवधी की एक कहावत
याद आती है –“कच्ची (महुए की शराब) दारू कच्चा वोट, मुर्गा दारू पक्का
वोट|”
उज्जयिनीवीरम्-उज्जयिनीवीरम् आठ दृश्यों की एक एकांकी है | यह एकांकी
फ्लैशबैक शैली में लिखित है | इसमें राजेश परमार, नरेन्द्र और नीरज निषाद तीन
प्रोफेसर मित्र एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने जाते हैं | जहाँ रात्रि
विश्राम के समय प्रो.राजेश प्रो.नरेन्द्र और प्रो.नीरज को एक कहानी सुनाते है |
जिस कहानी का नाम होता है-“उज्जयिनीवीरम्” | पूरी एकांकी का घटनाक्रम इसी कहानी के
आसपास घूमता है |
इसमें
ग्रामीण परिवेश में फैले जादू-टोने, तन्त्र-मन्त्र आदि का भी वर्णन किया गया है |
सूत्रधार:-अहो, ध्वनिरियं तु देवपटहस्य|आर्ये,
अन्तर्हितौ भवेव | महाकालपुरीयं वर्तते कापालिकानां क्रियास्थाली |पृष्ठ 46
वीरम:-तिष्ठ,तिष्ठ, मा मा विलप,एष हन्मि पापान्,
(विकारालोग्रतया)-देहि मे चषकं परिचरा: |देहि मे चषकम् |
(एकेन हस्तेन चषकं गृहीत्वा गट्गटागट्ध्वनिना
पिबति,अपरेण च माषकणान् प्रहर्तुं गृह्णाति |सहसैव धरमकुम्हारस्य पत्नी मस्तकं
घूर्णन्ती भयानकध्वनिना पूर्वं रोदिति, पश्चाच्च भीषणप्रतिवादमुद्रया स्वयं
माषकणान् गृहीत्वा वीरस्य पुरतो युद्धाय करोति आह्वानम् |पृष्ठ48
इन
एकांकियों में लेखक ने स्थान-स्थान पर प्रसंगानुसार सुन्दर सूक्तियों और मुहावरों
को भी स्थान प्रदान किया है |
स्वपादयो: परशु: न प्रहरिष्यामि | अर्थात् अपने पीरों पर
कुल्हाड़ी नहीं मारूँगा |
अहो कालस्य कुटिला गति; |पृष्ठ 28
गणिका कामोपभोगं ददाति, न तु प्रेम |पृष्ठ 58
पापं तु गुप्तं तिष्ठति,प्रकाशस्तु तद्विपाकस्य भवति
|पृष्ठ 59
इसी
भावभूमि से मिलता –जुलता एक नाटक हिन्दी में प्रोफेसर रवीन्द्र प्रताप सिंह
(प्रोफेसर अंग्रेजी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय) ने ‘शेक्सपीयर की सात रातें’
नाम से लिखा है | इसमें भी सात प्रोफेसर (प्रो.इरशाद,प्रो.गोविल,प्रो.रेडियोवाला,प्रो.शबनम,प्रो.माशातोषी, प्रो.ओ.कॉनर,डॉ.डेवीज
और एक शोधछात्र (सिकन्दर)लन्दन की एक संगोष्ठी में भाग लेने गए होते हैं | इस
संगोष्ठी का विषय होता है ‘पोस्टमार्डनिज्म एण्ड शेक्सपीयर’ |
इस
नाटक में भी यत्र-तत्र भूत-प्रेत जादू-टोने का वर्णन है |
चुड़ैले अपने
वस्त्र निकाल-निकाल कर फेंकने लगती हैं, आकाशीय
बिजली चमकती है, आकाश से रक्त की वर्षा होती है | चुड़ैले अधिक उर्जान्वित होकर पावस नृत्य करती हैं | प्रोफेसरगण मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं | अब और घना अन्धकार हो गया है, यदा कदा बरसते हुए रक्त की बूँदे चमक जाती हैं | चुड़ैलों के स्वर सुनाई देते हैं |पृष्ठ 26-27
मृत
उज्जयिनी वीर की तरफ ही शेक्सपीयर की आत्मा को भी अजर अमर अविनाशी दिखाया गया है |
किसी अज्ञात द्वीप पर शेक्सपीयर का दरबार लगा है | पीछे
समुद्र की गर्जन सुनाई देती है |
समय : रात 1:30 बजे
शेस्पीयर ने काला गाउन पहन रखा है | वह कंकाल के सिंहासन
पर बैठे हैं | वातावरण में तीक्ष्ण गन्ध है | मंच पर पीला प्रकाश है.... |पृष्ठ 45
‘बलिदानम्’
एकांकी में भारतीय भारतीय संस्कृति की
महत्ता दिखाई गयी है और ‘शेक्सपीयर की सात रातें’ में भी |
शेक्सपीयर – जिस
देश की संस्कृति में दूर्वा को सौभाग्य और मंगल का प्रतीक माना गया हो, भला वह संस्कृति किसी के मिटाये क्यों मिटेगी? पृष्ठ 53
एरियल
जब कैलिबल को पीट रहा होता है तब प्रोफेसर शबनम उससे कहती हैं |
प्रो.शबनम- अदृश्य आत्मा! कौन हो तुम? देखो,
हम अन्याय नहीं सहन करते | हम भारत के लोग.... हम बराबरी में विश्वास करते हैं | हमारा संविधान समता का मूलाधिकार देता है हमें| हम अन्याय नहीं होने देंगे शोषण के विरुद्ध अधिकार है
सबका- विश्व के सभी नागरिकों को |
बोलो कौन हो तुम, जो पीट रहे हो कैलिबन को |पृष्ठ 16
रुपककार
डॉ.पण्ड्या जी संगीत शास्त्र से भी परिचित हैं |
दूरतो झल्लरीनाद: श्रूयते |पृष्ठ 22
सूत्रधार-अहो,ध्वनिरयं तू देवपटहस्य |पृष्ठ 46
समकालीन
संस्कृत जगत में डॉ.प्रवीण पण्ड्या एक प्रयोगधर्मी, युगद्रष्टा, नव्यशैली के
प्रवर्तक विश्व कविता के प्रवाहों को संस्कृत में प्रवाहित करने वाले सशक्त
‘अंगुल्यग्रगण्य एवं एक महिमामंडित स्थान पाने वाले 21वीं शताब्दी के प्रतिनिधि
विलक्षण रचनाकार हैं | उनके इस संग्रह के लिए अनेकश: बधाईयाँ |
अनुभव की मिट्टी पर उपजी लघुकथाएँ ‘शेष:कथांश:’
समीक्षित पुस्तक: शेष:
कथांश: (लघुकथा संग्रह)
लेखक: डॉ.प्रवीण पण्ड्या
जैसे-जैसे समय बीतता जाता है वैसे-वैसे मनुष्य की
संवेदनाएँ बदलती चली जाती हैं तथा जैसे-जैसे संवेदनाएँ बदलती है वैसे-वैसे साहित्य
का स्वरूप भी बदलता चला जाता है। जैसे-जैसे साहित्य का स्वरूप बदलता है वैसे-वैसे
कथानक का स्वरूप भी बदलता है। दरअसल कथानक मनुष्य की संस्कारात्मक अनुभूतियों का
साहित्यिक रचाव है। आज साहित्य का स्वरूप एकरेखीय नहीं है। विधाओं की रेखाएँ
ध्वस्त हो रही हैं। एक विधा में कई विधाओं के गुण संचरण करते हुए दिखाई दे रहे
हैं। लघुकथा का आकार छोटा होने के कारण इसका शीर्षक उपन्यास व कहानी के शीर्षक
से भी अधिक महत्व रखता है। पाठक सबसे पहले लघुकथा का नाम पढ़ता है अतः लघुकथा का
शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को लघुकथा को पढ़ने के लिए उत्साहित करे। इस क्षेत्र में पुस्तक
के लेखक डॉ.प्रवीण पण्ड्या जी सफल सिद्ध हुए हैं।
समकालीन संस्कृत साहित्य के गम्भीर अध्येता, कवि तथा
आलोचक डॉ.प्रवीण पण्ड्या का सद्य प्रकाशित लघुकथा संग्रह “शेष:कथांश:” एक महत्वपूर्ण संग्रह है। शीर्षक
अतिरोचक है जो ग्रन्थ को पढ़ने के लिए उत्सुकता जगाती है जो अपने आप में बहुत कुछ
कहती है। संग्रह में 16 उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं (इसमें 11कहानियाँ की स्वयं की हैं और अन्तिम 5 अन्य
भाषाओं से लेखक द्वारा अनूदित हैं)जो “रचना प्रकाशन जयपुर” से
प्रकाशित हुआ है। डॉ.प्रवीण पण्ड्या जी की लघुकथाओं
में युगबोध है सृजनरत होते समय वे अपने युग के साथ, परिवेश के साथ पूरी तरह से जुड़े रहते
हैं। उनकी लघुकथाओं में वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष दिखाई देता है। उन्होंने इस
संग्रह की अधिकांशतः कथाओं में असमर्थता और बेचारगी का अभिशाप झेल रहे लोगों की
भावनाओं को अपनी क़लम के द्वारा बख़ूबी उकेरा है।
पहली कहानी ‘चोर:’ देव नामक ऐसे बच्चे
की कहानी है (जिसका पिता शराबी है)जो अपनी गरीबी के कारण स्कूल में चोरी करता है |
उस निर्धन बस्ती का बड़ा ही सजीव वर्णन लेखक ने किया है –“नगरस्य एकस्मिन्
कोणेऽस्ति निर्धनानां वस्ति: न तत्र
विद्युत: प्रकाश: | न वा शिक्षाया: प्रकाश: ......|पृष्ठ 20 यह कहानी पाठक
को सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हम स्वतन्त्र भारत में जी रहे हैं जहाँ एक
तरफ लोग पार्टियों में भोजन बर्बाद कर रहें वहीं दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा भी है जिसे
अपना पेट पालने के लिए चोरी करना पड़ता है |...कर्णयो चिरपरिचित: स ध्वनि:
समागत:-“गुरो अहं चोर:” |पृष्ठ 22 यहाँ मृच्छकटिकम् की यह सूक्ति याद आती
है, जब चारुदत्त कहता है कि –निर्धनता प्रकामपरं षष्ठं महापातकम् (1/37)
अर्थात् निर्धनता छठा महापातक है |
‘अकथा’कहानी पाठक के समक्ष कई सारे
प्रश्न छोड़ जाती है | सा का? नाम न जाने तस्या:, परं तां जाने | सा
पृथिव्यस्ति सिव पृथिवी, परं शातयिता रावणनामा न| सा क्रन्दति| ऋषयो म्रियन्ते |
क्वास्ति ? क्षात्रतेजो विलयं जातम्?विभीषणा: किं भ्रातृमोहं न त्यक्षन्ति? ते न
वदिष्यन्ति रहस्यम्?.....|हां !बन्धो! किं वच्मि ?इदानीं भण | किमियं कथा वा? न वा
हृदयस्य काचिदकथा, शब्दानां वा काचित् कथा? |पृष्ठ 27
‘पुरस्कार:’ कथा में आज के समय और समाज को दिखाया गया है | सत्य आज
दर-दर की ठोकरें खाने परा मजबूर है, इसके विपरीत झूठे और मक्कार लोग मौज कररहे हैं
| यह भगवद्दत नामक शिक्षक की कथा है जो स्कूल में गलत कार्यों के विरोध करने के
कारण निलम्बित कर दिया जाता है |
“आम्” इति कथमपि उक्त्वा
स्वप्रकोष्ठं गत्वा पत्रम् उद्घाटितम् | तत्र लिखितम् आसीत् –“चरित्रहीनताया
अनुशासनहीनताया; च कारणात् भवान् सर्वकारीयसेवात: निष्कासितोऽस्ति इति सविषादं
सूच्यते ....|” पृष्ठ 31
“श्राद्धम्”, “जीवनस्य मेरु:”,
“वैरावैरम्”, “समय:”, “गृहम्”, “कौतुकम्” आदि लघुकथाएँ एक अलग दृष्टिकोण से
रची गई हैं जो कि संवेदनशीलता से भरी होने पर भी बेहद जीवंतता, बेबाकीपन और साथ-ही-साथ
व्यंग्य की भंगिमा से भरी है।
“अहिंसा परमो धर्म:”, और “स्नातं स्नातं पुन:
स्नातम्” बाल मनोविज्ञान पर आधारित कहानियाँ हैं | एतां घटनां बालस्य
अहिंसामनोभावं च स्मृत्वा इदानीमपि अहं सन्तोषम् अनुभवामि |”पृष्ठ 45
“धिक् त्वां सत्यवादिनम्” कथा मौलिक अधिकारों के हनन की ओर
संकेत करती है जहाँ पर सत्येन्द्र नामक व्यक्ति को इसलिए गोली मार दी जाती है कि
वह भ्रष्टाचारी को भ्रष्टाचारी बोल देता है | डॉ.प्रवीण पण्ड्याजी लिखते
हैं कि आज समय में सही को सही कहना कितना मुश्किल है |अहा! अहा! अनन्तरं किं
जातं नाहं जाने किन्तु मित्रै: ज्ञातं यत्तदा तेन आग्नेयास्त्रधाराकेन प्रहार:
कृत: | तदैव सौभाग्याद् दौर्भाग्याद् वा भूमि: कम्पं कृतवती .....|पृष्ठ 38
एक रचनाकार जिस समय में रहता है उसी समय को अपनी
कृतियों के माध्यम से लाने और दिखाने का प्रयास करता है जिसमें अपने समय के साथ
उसकी आत्मा भी किसी –न- किसी रूप और स्तर पर दिख जाती है। डॉ.प्रवीण पण्ड्या के रचनात्मक जीवन में
परिवेश का बहुत बड़ा योगदान रहा, हर क्षेत्र में उनकी एक सक्रिय और सजग उपस्थिति, जो इस कृति की प्रमुख वस्तु है। इन लघुकथाओं के माध्यम से हम यह साफ़-साफ़
देख सकते हैं कि कितने कष्टों-मुश्किलों और अभावों-असुविधाओं में न केवल लेखक की
दृष्टि अपने लेखन का विषय ढूँढ़ लेती है और हमारे समक्ष समाज का एक चित्र प्रस्तुत
करती है, बल्कि कहीं-कहीं स्पष्टीकरण का प्रयास भी करती है।
यह डॉ.प्रवीण पण्ड्या जी के लेखन
की विशेषता है। दरअसल इस तरह की सच्चाई या बयान करने का
साहस और जोख़िम उठाना किसी भी रचनाकार के लिए आसान नहीं होता। कमोबेश इन लघुकथाओं
का फ़ॉर्म नया-सा है। कला की चेतना भी तनी हुई दिखाई देती है। संग्रह की लघुकथाओं
में दुख-दर्द से भरी मानव की चीख़ ही नहीं है, हम सभी के लिए
एक बड़ी चेतावनी भी है।
संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं को उकेरने में सफल रही हैं, जिससे पाठक विषय
पर सोचने को मजबूर हो जाता है। भाषा-शैली सहज-सरल एवं पूर्णतः संप्रेषणीय है। कम
शब्दों में ध्येय स्पष्ट करने के लिए जो तराश और क़रीना अपरिहार्य है उसे डॉ.प्रवीण
पण्ड्या जी अच्छी तरह से समझते हैं। यह उनका अपना ढंग है अपनी व्याख्या है।
कामना है कि इसी तरह से साहित्य-जगत को अपनी लेखनी से आलोकित करते रहें।