“काव्यस्यात्मा ध्वनि:”
काव्यशास्त्र के इतिहास में सम्प्रदायों
की चर्चा आई है | इन स्मप्रदायों की स्थापना काव्यशास्त्र के आधारभूत तत्त्वों के
आधार पर हुई | काव्यशास्त्र में 6 सम्प्रदाय मान्य हैं | रस सम्प्रदाय अलङ्कार सम्प्रदाय
रीति सम्प्रदाय, ध्वनि सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय और औचित्य सम्प्रदाय | इन
छहों सम्प्रदायों में रस सम्प्रदाय सबसे प्राचीन है | इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक भरतमुनि
हैं | उनके अनुसार रस ही सर्वोपरि तत्त्व है |
नहि रसादृते कश्चिदर्थ: प्रवर्तते |
अग्निपुराण में सर्वप्रथम रस को काव्य
का आत्मबोध तत्त्व कहा है-
‘वाग्वैदग्धप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम् |’
इस प्रकार काव्य
में रस को काव्य की आत्मा कहा जाने लगा | अग्निपुराण के पश्चात अलङ्कार युग आता है
| इस युग के प्रमुख आचार्य भामह, उद्भट आदि आचार्य हैं | उन्होंने अलङ्कार को
काव्य का परमतत्त्व कहा है | इस समय अलङ्कारों की चकाचौंध में रस सिद्धान्त दब गया
और रस को अलङ्कारो तक ही सीमित रखा | यद्यपि भामह ने काव्य में रस की स्थिति को
आवश्यक बताया है और दण्डी ने अलङ्कारों को रस का उत्कर्षाधायक तत्त्व बताकर काव्य
में रस की प्रमुखता स्वीकार की है, फिर भी वे काव्य में अलङ्कारों को ही काव्य प्रधानता
देते हैं | इस प्रकार रस का आत्मतत्त्व पक्ष दब गया और उसका स्थान अलङ्कारों से
गुण और रीति ने ले लिया था | आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा कहकर रीति सम्प्रदाय
का प्रवर्तन किया |
ध्वनि सम्प्रदाय के आचार्य आनन्दवर्धन
ने ध्वनि सिद्धान्त की स्थापना करके रीति के स्वतन्त्र अस्तित्व को दबाकर उसे परतन्त्र
बना दिया और उन्होंने ध्वनि को काव्य का जीवितभूत तत्त्व स्वीकार किया | उनका कहना
है की जो स्थान मानव शरीर में आत्मा का है, कोई स्थान काव्य में ध्वनि का माना
जाता है | इस प्रकार ध्वनि को काव्य की आत्मा के रुप में स्वीकार किया गया –
काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्य: समाम्नातपूर्व: |
आनन्दवर्धन का कहना है कि- ‘काव्य की आत्मा ध्वनि है’, इस बात को अनेक काव्यतत्त्ववेत्ताओं
ने प्रतिपादित किया है | जिसका प्रवाह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा है | इन प्राचीन
आचार्यों में भरत ने तो रसादि तात्पर्य से इस ध्वन्यमान अर्थ का प्रतिपादन किया ही
है (एतच्च रसादितात्पर्येण काव्यनिबन्धन सुप्रसिद्धमेव) और अस्फुट
रुप से प्रतीत होने वाले इस ध्वनितत्त्व की व्याख्या करने में असमर्थ वामन ने रीतियाँ
परिवर्तित की है |
अशक्नुवद्भिव्याकर्त्तु रीतिय: सम्प्रवर्तिता: |
आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य के
आत्मा कहा है | यहाँ पर ‘आत्मा’ का अर्थ किया गया है तत्त्व और तत्त्व शब्द का
अर्थ किया है, जिसके स्वरूप का कभी बाध ना हो | अर्थात् जिस प्रकार आत्मा के
स्वरूप का कभी बाध नहीं होता है उसी प्रकार धन का स्वरूप है कभी बाधित नहीं होता
है और जिस प्रकार शरीर में आत्मा सारभूत तत्त्व है, उसी प्रकार काव्य में ध्वनि सारभूत
तत्त्व है |
‘काव्यस्यात्मा ध्वनि’ इस वाक्य में
ध्वनिकार आत्मा को अर्थ रूप स्वीकार करते हैं | काव्य का वह आत्मस्थानीय अर्थ है
प्रतीयमान अर्थात् व्यंग्यार्थ | यही प्रतिमान अर्थ (व्यंग्यार्थ) काव्य की आत्मा
है | (काव्यस्या स एवार्थ:) यह प्रतीयमान अर्थ (ध्वन्यर्थ) कुछ और ही तत्त्व
है, जो अंगना के प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न लावण्य के समान महाकवियों की वाणी में
वाच्यार्थ से भिन्न भासित होता है-
प्रतीयमानंपुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् |
यत्तत्प्रसिद्धायवातिरिक्त विभाति लावण्यमिवांगनासु ||
इस प्रकार आनन्दवर्धन के अनुसार
प्रतीयमान अर्थ ध्वन्यर्थ या व्यङ्ग्यार्थ है और यही सारभूत पदार्थ है | यह सारभूत
रूप तत्त्व ध्वन्यर्थ कहीं रसादिरूप में, कहीं अलङ्कार रूप में और कहीं वस्तु रूप में भाषित होता है –
एवं वस्त्वलङ्काररसभेदेन त्रिधा ध्वनि: |
इस प्रकार यह त्रिविध रूप ध्वनि की
काव्य की आत्मा है |
आनन्दवर्धन में ‘काव्यस्यात्मा स: एवार्थ:’
इस वाक्य में एव पद के द्वारा तीनों ध्वनियों में रसध्वनि को ही सर्वश्रेष्ठ
सारभूत काव्य की आत्मा स्वीकार करने में विशेष अभिनिवेश दिखाया है-
“काव्यस्य स एवार्थ: सारभूत:............शोक एव श्लोकतया
परिणत: |”
ध्वनिकार आनन्दवर्धन यद्यपि प्रतीयमान अर्थ के वस्तुध्वनि तथा अलंकार ध्वनि रूप अन्य भेद भी स्वीकार करते हैं किन्तु रसध्वनि को ही उन्होंने सारभूत काव्य की
आत्मा माना है | आनन्दवर्धन के अनुयायी अभिनवगुप्त, मम्मट आदि आचार्यों ने भी रसध्वनि
को ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है | अभिनवगुप्त का कथन है कि व्यञ्जना व्यापार से गम्यमान
आस्वाद रूप रस होता है | यह ब्रह्मस्वाद सहोदर कहा गया है | यही सिद्धि रूप है | अतः
रसध्वनि काव्य की आत्मा है | रसादिरूप भी
तो ध्वनि रूप ही है | रसध्वनि के साथ ही अलङ्कार और वस्तुध्वनि भी काव्य की आत्मा
सिद्ध हो जाते हैं | यद्यपि की रसध्वनि श्रेष्ठ
है | इसीलिए ध्वनिकार ने मुख्य रूप से ध्वनि को ही काव्य कहा है, जिसके अन्तर्गत
रस, वस्तु अलङ्कार रूप सभी काव्य जीवित भूत
सिद्ध हो जाते हैं | यही ‘काव्यस्यात्मा ध्वनि’ का वास्तविक स्वरुप है |