गुरुवार, 28 अगस्त 2014

आज हमारे समाज से लोक संगीत खत्म सा हो गया है। अब त्यौहारों और धार्मिक आयोजनों  पर  गये जाने वाले  पारम्परिक लोकगीत  सुनाई नहीं देती।  उनकी जगह फ़िल्मी गीतों को बजाया  जा रहा है। आज किसी नवयुवती से कोई पारम्परिक गीत सुनिये तो वह शायद ही सुना पाये।  आज से कुछ साल पहले हमारी दादी ओ -नानीओं  के पास इस तरह के गीतों का खजाना होता था जो धीरे -२ विलुप्त होता जा रहा है। हमारे सोलह संस्कारों में अब कुछ ही मनाये जाते हैं। पाश्चात्य संस्कृति का अन्धा अनुकरण करने वाली हमारी युवा पीढ़ी  का मानना है की इस तरह के तीज -त्यौहारों का आयोजन पिछड़ेपन की निशानी है। कुछ वर्ष पहले गाँव में जो प्रेम और भाई चारा दिखता था। वह धीरे -२ समाप्त होता जा रहा है।  लोग अब घर -२ जाकर बधाई नहीं देते। वह मेल और मैसेज से बधाई देने लगे हैं। 

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