संस्कृत
में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी निरन्तर हो रहे हैं। न केवल भारतीय भाषाओं
से अपितु विदेशी भाषाओं से भी उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद संस्कृत में होता रहा
है।
‘धनुरातनोमि’ अनुवाद संकलन दो विशेषताओं
के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रथम तो यह कि इस संकलन में सर्वप्रथम भारतीय
आदिवासी कविताओं का संस्कृत में अनुवाद किया गया है और द्वितीय विशेषता यह कि इस
संकलन में हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के साथ- ही-साथ ऐसी विभिन्न भाषाओं के साहित्य से
किया गया अनुवाद भी है जो भाषाएँ आदिवासियों द्वारा ही बोली जाती है । जैसे-मुण्डारी,
कुखुड, सन्ताली, हो,
कुंकुणा, धोडी, गामीत
इत्यादि।
अनुवाद
के विषय में श्रीनाथ पेरूर का कथन है- “हर भाषा की अपनी वाक्य संरचना होती
है और उसे अनूदित भाषा में सहजता के साथ ले जाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है ।”
इस
संकलन में 17 भाषाओं (1.मुण्डारी 2.कुडुख 3.संताली 4.खडिया 5.हो 6.नगपुरिया 7.मराठी 8.हिन्दी 9.मणिपुरी 10.ढूंढाडी 11.आङ्ग्ल 12.गुजराती
13.चौधारी 14.देहवाली 15.कुंकणा 16.धोडीआ 17.गामीत) के 33 कवियों की कविताओं का
संस्कृत अनुवाद है । परिशिष्ट भाग में हर्षदेव माधव, कौशल
तिवारी, ऋषिराज जानी की संस्कृत की मौलिक आदिवासी कविताएँ
हैं ।
हर्षदेव
माधव कहते हैं कि शहरीकरण सबको निकलता जा रहा है
अब तो वनों में भी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता नहीं है । पेड़-पौधे, नदियाँ धरती, आकाश सब औद्योगीकरण के कारण नष्ट होते
जा रहे हैं ।
कोऽयं
रोग: खलु
. .
. . .
. .
गता
नगरमायाबद्धा:?
‘अस्माकं विकास:’ कविता में वे प्रश्न करते हुए कहते
हैं कि – क्या हमारा विकास यही है आप हमारी सम्पत्तियों को
हड़प लो ।
हे
सज्जना: !
हे
महाजना: !
हे
नेतार: !
. .
. . . .
नूनं
कृतो युष्माभिर्नो विकास: ।
कौशल
तिवारी कहते हैं कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, ऋतुएँ, नदी,
पर्वत, इत्यादि सब एक दिन केवल कवि और कविता
का विषय मात्र रह जाएँगे ।
दूरदर्शनस्य
वृत्तचित्रेषु,
पाठ्यपुस्तकानां
कृष्णकर्गदेषु,
कवीनां
लेखनीषु च ।
ऋषिराज
जानी की कविता ‘वनस्य मधूका सर्वं जानन्ति’ यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हम मनुष्य
हैं । आखिर हमारी संवेदनाएँ कहाँ मर गए हैं हम इतने गिर गयी हैं । हम इतना नीचे गिर गए हैं । इतना चारित्रिक पतन हो गया है कि जिन्हें
दुनिया के छल-कपट के बारे में कुछ भी नहीं पता उनको भी हम छल रहे हैं । भोली-भाली
आदिवासी कन्या अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं ।
तदा चिकित्सकेन कथितं तद्
‘त्वं ‘एच. आई.वी.’ ग्रस्ताऽसि ।‘ इति ।
. . .
. . .
किन्तु
वनस्य मधूका: सर्वं जानन्ति ।
गामीत भाषा की कवयित्री किरण
गामीत लिखती है कि आदिवासियों को मोक्ष की इच्छा नहीं होती है ।वे हमारी तरह
जाति धर्म आदि के नाम पर भी नहीं लड़ते हैं ।
मोक्षस्य मोहो नास्ति,
धर्मं ते न जानन्ति ।
सृष्ट्या: संवर्धनं हि तेषां धर्म:,
प्रकृतौ जीवनमेव तेषां मोक्ष: ।
जीतेन्द्र
वसावा लिखते हैं कि तुम हमको सभ्य बनाने के चक्कर में हमारी संपत्तियों पर
आधिपत्य जमाकर हमें गुलाम बनाना चाहते हो । तुम स्वार्थवश हमें अपने तरफ मिलाना
चाहते हो तुम्हारे मन में कहीं-न-कहीं कपट छिपा हुआ है ।
‘चौर-लुण्ठाक-शूकर-जाल्म’
इत्यादिभि: शब्दैरतर्जयत् ।
विनोद
कुमार शुक्ल की कविता ‘विपणीदिवसोऽस्ति’
हमारे कथाकथित सभ्य समाज के सामने एक प्रश्न खड़ा कर देती है कि जिस
आदिवासी लड़की को शेर से डर नहीं लगता उसे आखिर ‘गीदम’
(छतीसगढ़ राज्य का एक नगर) के बाजार जाने से क्यों डर लगता है । क्या
इसलिए कि मनुष्य की खाल में घूम रहे शेर जंगल के शेर से अधिक खतरनाक हैं?
एकाकिनी
आदिवासिकन्या
निबिडं
वनं गन्तुं न बिभेति,
व्याघ्रसिंहेभ्यो
न बिभेति,
किन्तु
मधूकपुष्पाणि
नीत्वा ‘गीदमप्रदेशविपणीं’ गन्तुं
बिभेति ।
इस
प्रकार हम देखते हैं कि रामदयाल मुण्डा, दयालुचन्द्र
मुण्डा, अनुज लगुन, महादेव टोप्पो,
ग्रेस कुजूर, ओली मिंज, ज्योति
लकड़ा, आलोका कूजूर, निर्मला पुतुल,
शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, वंदना टेटे, सरोज केरकेट्टा, सरस्वती
गागराई, सरिता सिंह बड़ाइक, वाहरू
सोनवणे, भुजंग मेश्राम, हरिराम मीणा,
उज्ज्वला ज्योति तिग्गा, तरुण मित्तम’तारा’, इरोम चानू शर्मिला, हीरा
मीणा, तेमसुला आओ, कानजी पटेल, मानसिंह चौधरी, प्रीतेश चौधरी, रोशन चौधारी, महेन्द्र पटेल, कुलीन
पटेल, ध्रुविन पटेल आदि कवि भी इन्हीं कवियों की तरह अपनी
रचनाओं में आदिवासियों के लिए चिन्तित दिखाई देते हैं । इस संग्रह में कविताओं के साथ उनके भावों के
अनुरूप कुछ चित्र भी दिये गये हैं, जो स्वयं अनुवादक ने
बनाये हैं। ये चित्र वारली चित्रशैली में है, जो महाराष्ट्र
की वारली जनजाति में प्रचलित है । संस्कृत जगत् को आप
से अभी बहुत अपेक्षाएँ हैं | इस मनोरम काव्य के लिए हार्दिक अभिनन्दन तथा मंगलकामनाएँ ।
समीक्षक-
डॉ. अरुण कुमार निषाद
कृति- 'धनुरातनोमि’
(भारतीय-आदिवासी
कविता)
अनुवादक
व संपादक- डॉ.ऋषिराज जानी
प्रकाशन
वर्ष- प्रथम संस्करण 2020 ई.
मूल्य-
रु. 160/-पृष्ठ- 156
प्रकाशक-
गोविन्दगुरु प्रकाशन, गोधरा अहमदाबाद ।