शनिवार, 11 जुलाई 2020

सामाजिक और राजानीतिक विद्रूपताओं पर तंज कसती कविताएँ : वन्दे भारतम्

सामाजिक और राजानीतिक विद्रूपताओं पर तंज कसती कविताएँ : वन्दे भारतम्

 



समकालीन संस्कृत साहित्य में डॉ.निरंजन मिश्र का नाम बड़े ही अर्हणा (आदर)के साथ लिया जाता है । मिश्र की गणना एक विद्रोही कवि के रुप में की जाती है क्योंकि वे अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं । उनको कभी यह नहीं भय नहीं होता कि उनके बारे में कौन क्या सोचेगा । वे अपनी कविता में जनता की आवाज को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हैं । यही कारण है कि वे पाठकों के मध्य बहुत पसंद किये जाते हैं ।      

प्रगतिशील प्रकाशन दिल्ली से 2015 ई. में प्रकाशित इनका काव्य इसी प्रकार का एक काव्य संग्रह है । जिसमें 101 पद्य हैं । इसका हिन्दी अर्थ भी स्वयं डॉ.मिश्र ने लिखा है ।

विश्व विख्यात दिल्ली के दामिनी काण्ड पर कवि ने लिखा है कि किस प्रकार से लोग आज कामान्‍ध हो गए हैं । और भले बुरे को पहचाना त्याग दिये हैं । कामवासना के सामने कानून का भी भय नहीं है ।

कामान्धै: परिमर्दिताऽपि तरुणी कीर्ति गता दामिनी

दुष्टैर्यत्र बलाहकै: प्रतिदिनञ्चाच्छाद्यते चन्द्रिका ।

प्रायश्चित्तबलेन       राजभवने    मोदं   तनोतीश्वरो

वन्दे राज्यबुभुक्षितैर्विदलितं  भोगप्रियं     भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 8

डॉ. निरंजन मिश्र लिखते हैं कि जिस देश (भारतवर्ष) की स्त्रियों ने लज्जा का परित्याग कर दिया है और पश्चिमी सभ्यता को अपना लिया है ऐसे भारत को मैं प्रणाम करता हूँ ।

सर्वत्र भ्रमतीव यत्र कुमतिर्वैदेशिकानां बलात्‍

गेहोच्छेदनमेव नीतिकुशलानां कौशलं कीर्त्यते ।

लज्जा नृत्यति यत्र रङ्गभवने रोदित्यलं संस्कृति-

र्वन्दे मन्मथपण्डितस्य भवनं स्वात्मप्रियं भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 13

बढ़ते हुए देह व्यापार पर तंज करता हुआ कवि कहता है की जिस भारत की स्त्रियां अपने जौहर व्रत के लिए प्रसिद्ध है थी (विश्व विख्यात थी) उसी भारत के स्त्रियां आज वेश्यालयों में देह व्यापार कर रही है  । ऐसे भारत को मैं प्रणाम करता हूँ ।

दुर्दान्तैर्दलिता      दरिद्रतनया        मूर्तिस्वरूपा   गृहे

मथ्नाति प्रिययौवनं निजगृहे प्रीत्याद्य काचित्‍ क्वचित्‍ ।

यत्रैश्‍वर्यवतां        प्रसादनविधावाहूयते         संस्कृति-

र्वन्दे   तत्‍   श्रुतिपूतकर्णविवरं      चित्रात्मकं    भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 16

पत्रकारिता के नाम पर चाटुकारिता करने वालों को भी कवि ने नहीं छोड़ा है ।

भूपो यत्र मन्त्रसाधनपरो   नो   वाऽरिसम्मर्दको

गोप्यागोप्यविवेचने न चतुरा यत्रोचिता मन्त्रिण: ।

नित्यं   मन्त्रविभेदने    निरता  वार्ताहरा  नारदा

वन्दे तं निजताविनाशनपरं दिव्यच्छटं   भारतम्‍ ।। श्लोक संख्या 18

 

डॉ.निरंजन मिश्र का यह पद्य रामचरितमानस से काफी मेल खाता है जिसमें तुलसीदास जी कहते हैं –

झूठइ   लेना  झूठइ   देना    झूठइ    भोजन    झूठ     चबेना

 बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा खाइ महा अहि हृदय कठोरा

 

उत्कोचार्चनकौशलेन विजिता    यत्राधिकारेच्छव-

स्तस्यार्थेन हि यत्र नीतिवधका दोषान्विमुक्तास्सदा ।

उत्कोचाङ्गनमित्य   भेदरहिता  दासास्तथा चेश्‍वरा

वन्दे  तत्‍  किल  वर्णभेदरहितं  द्रव्यप्रियं    भारतम्‍ ।। श्लोक संख्या 19

 विद्या के स्थान पर धन को सर्वोपरि मानने वाले समाज पर तंग कसते हुए डॉ.निरंजन मिश्र कौन कहते हैं-

विद्या यत्र नियुक्तये सुविदिता विद्यार्थिनो ग्राहका

द्रव्योपार्जनतत्पराश्च गुरव: स्वस्वप्रतिष्ठार्थिन: ।

मूर्खानां पदचुम्बने कुशलता यत्रास्ति विद्यावतां

वन्दे कल्पलताविखण्डनकलालोकप्रियं भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 21

व्याभिचार के भय से जिस भारत की स्त्रियों ने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया ऐसे भारत को मैं प्रणाम करता हूँ ।

मार्गे लुण्ठकभीतिरस्ति   नियता    शोभार्थमारक्षिण:

कामान्धस्य भयान्न याति तरुणी गेहाद्‍ बहि: सम्प्रति ।

मृष्टा     लोकविनिन्दनेन   निहता    यत्राधुना   दृश्यते

वन्दे    तन्मुखपिण्डदाननिरतं      लोकेश्वरं    भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 40

लोक मर्यादा को भंग करने वाली स्त्रियों के विषय में कवि का कथन है ।

दीनानाथसुता   स्वजीर्णवसनै:    रक्षत्यहो यौवनं

लक्ष्मीनाथसुता किरत्यविरतं लोकेषु तद्‍ यौवनम्‍ ।

लज्जारक्षणतत्परा विदलिता  वन्द्या     यत्रापरा

वन्दे तद्‍ धनदुर्मदस्य   चरितैराच्छादितं   भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 42


डॉ.निरंजन मिश्र कहते है कि जहाँ लोग गुणों की अपेक्षा धन को महत्त्व प्रदान करते हैं । ऐसे लोग धन्य हैं ।

क्रीतैर्यत्र     जनैस्सभामधुरता     नेतुर्जयोद्‍घोषणै:

पातुं भाषणमेव यान्ति जनता द्रव्यार्जनायोत्सुका: ।

प्रीतिर्यत्र धनार्जने    कथने   सर्वे   स्वलाभार्थिनो

दोषोरोपणपण्डितप्रगुणितुं   वन्दे   सदा  भारतम्‍ ॥ श्लोक संख्या 95

इस प्रकार हम देखने हैं कि –कवि ने नेता, राजा, व्याभिचार में संलिप्त नारी-पुरुष किसी को भी नहीं छोड़ा है जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं । डॉ.निरंजन मिश्र की लेखनी इसी प्रकार अबाध गति से चलती रहे है और वह माँ वीणापाणि की सेवा में इसी प्रकार संलग्न रहें तथा जनमानस को अपनी कलम से जाग्रत करते हैं ।  

समीक्षक- डॉ.अरुण कुमार निषाद

पुस्तक- वन्दे भारतम्‍ (संस्कृत काव्यसंग्रह)

लेखक- डॉ.निरंजन मिश्र

प्रकाशन- प्रगतिशील प्रकाशन दिल्ली ।

मूल्य-100 रुपया

पृष्ठ संख्या-38

 


सोमवार, 29 जून 2020

संस्कृत-दलित-साहित्य

संस्कृत -दलित- साहित्य
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१.हीरालाल शुक्ल- दलितोदय महाकाव्य, 
२.मिथिला प्रसाद त्रिपाठी- गुरु घासीदास महाकाव्य 
३.श्री जोशी- भीमायनम् ४.डॉ.ऋषिराज जानी-सूर्यगेहे तमिस्रा(विभिन्न भाषाओं की दलित कविताओं का संस्कृत अनुवाद)।

रविवार, 28 जून 2020

नर्मदा (डॉ.प्रशस्य मित्र शास्त्री)


समकालीन संस्कृत साहित्य के रचनाकारों में डॉ.प्रशस्य मित्र शास्त्री (संस्कृत व्यंग्यकार के रुप में) का नाम बड़े ही  सम्मान के साथ लिया जाता है । आपको साहित्य अकादमी और राष्ट्रपति सम्मान भी प्राप्त हुआ है । आपका जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन सन्‍ 1947 ई. को हुआ था । आपने सन्‍ 1973 ई. से 2011 ई. तक रायबरेली के फिरोज गाँधी पी.जी. कालेज में अध्यापमन कार्य किया है ।


रचनायें- अभिनव-संस्कृत गीतमाला-1975, आचार्य महीधर एवं स्वामी दयानन्द का माध्यन्दिन-भास्य1984, हासविलास:(पद्य रचना)-1986, (उ.प्र.संस्कृत संस्थान का विशेष पुरस्कार प्राप्त) व्यंग्यविलास:, (संस्कृत-भाषा में सर्वप्रथम सचित्र व्यंग्यनिबन्‍ध)-1989,  कोमलकण्टकावलि:(संस्कृत व्यंग्य काव्य रचना, हिन्दी पद्यानुवाद सहित)-1990, अनाघ्रातं पुष्पम् (कथा संग्रह)-1994,(दिल्ली संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार) नर्मदा(संस्कृत काव्यसंग्रह)-1997, , (उ.प्र.संस्कृत संस्थान का विशेष पुरस्कार प्राप्त) आषाढ़स्य प्रथम दिवसे,(कथा-संग्रह)-2000  हास्यं-सुध्युपास्यम् (हिन्दी पद्यानुवाद सहित 2013), (राजस्थान संस्कृत अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त) अनभीप्सित्म`(आधुनिक कथासंग्रह), (साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत), व्यंग्यार्थकौमुदी (हिन्दी पद्यानुवास सहित-2008(म.प्र.शासन द्वारा अखिल भारतीय कालिदास –पुरस्कारसे पुरस्कृत) आदि आप की प्रमुख रचनाएँ हैं ।


काव्यकमलाञ्जलि : एक समीक्षाणात्मक अध्ययन







डॉ. राका जैन

एटा जनपदस्थ अलीगञ्ज ग्रामवासी इतिहासविद डॉ. कामता प्रसाद की सुपौत्री एवं संस्कृत प्रेमी वीरेन्द्र कुमार जैन के यहाँ 15 जनवरी सन् 1960 ई. में  आपका जन्म पुत्रीरत्न के रुप में हुआ | आपकी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में हुई | आगरा विश्वविद्यालय ने आपने पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की | आपका शोध शीर्षक था-जीवन्धरचम्पू एक समीक्षात्मक अध्ययन”| आप अपने पति प्रो. विजय कुमार जैन के साथ लेखन में संलग्न हैं | आप सन् 1987 ई. से सन् 2003 ई. तक स्वशासी छ्त्रशाल शासकीय महाविद्यालय पन्ना (म.प्र.) में असिस्टेण्ट प्रोफेसर के रुप में कार्य किया | तीन वर्ष तक राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान लखनऊ में अंशकालिक प्रवक्ता के रुप में कार्य किया | संस्कृति मन्त्रालय भारत सरकार से आपको दो वर्ष सीनियर फेलोशिप भी प्राप्त हुई | आपको दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा को वावर: नरो वा वानरो वापुरस्कार प्राप्त हो चुका है |आप लखनऊ से प्रकाशित श्रुतसंवर्धनीमासिक पत्रिका की सहसम्पादिका भी हैं | आपके शताधिक निबन्ध,कविताएँ ,आलेख, समीक्षाएँ आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं| समय-समय पर आपकी कविताएँ आकाशवाणी से प्रसारित होती रहती हैं | आपने अनेक पालि प्राकृत तथा हिन्दी नाटक का निर्देशन भी किया है |     

रचनायें-

1.       काव्यकमलाञ्जलि, संस्कृत कवितासङ्ग्रह, महावीर प्रकाशन लखनऊ,1990 ई. |इसमें 21 गीत हैं |

डॉ. राका जैन के मधुर भावपूर्ण ललित गीतों की पंक्तियाँ अधोलिखित हैं-

(क)           साधय   मात: ! वीणा     तारम् |

उज्झय   मञ्जुल    मृदुझङ्कारम् ||

विक्षिप्ततारान्        साधय त्वम् |

पूरय     नवनूतनरागं        त्वम् ||

कुरु मां  स्ववीणाया: प्रियस्त्वम् ||

 

(ख)          वादयत्वं शमवीणातारम् |

उज्झय मञ्जुलमृदुझङ्कारं  |

दुराशाया: मनसि सञ्चार: |

निराशाया:   नूतन-श्रृङ्गार |

पिपासाया:  विप्लवसार:

ननु हे वेदि ! प्राप्स्यसि अवतारम् |

वादय .....................................||

 

(ग)             रे जय भारत ! पुन: पुन: तुभ्यं प्रणाम: |

त्वदीयं मस्तकं हिमगिरेरिव उन्नतम्,

सागर: तव चरणानां करोति चुम्बनम्,

भवति शरीरे वेद-ऋचानां हि श्वसनम्,

अस्ति ननु वाण्यां गीताया: स्वरगुञ्जनम् |

देव ! संस्कृतेरादितपस्वी, अभिराम: |

रे जय भारत ! पुन: पुन: तुभ्यं प्रणाम: ||

(घ)     कोटियुता चित्त चञ्चलता  |

चञ्चलता न गता न गता ||

हितवाणी मया न श्रुता |

अज्ञानाधीनता भूता |

चञ्चलता आगता आगता ||

कोटि ..............................||

(ङ) क: उद्दीपकरसानां छन्दोविधान: त्वम् |

केषामपनानां कोऽसि, शरद् विहङ्ग: त्वम् ||

प्रतिक्षणं प्रिय: प्राण: त्वम् ||

ननु स्वप्नस्य व्योम्न: अव तीर्य त्वम्

कीदृशमागतोऽसि, स्वच्छन्द-भूतले त्वम् |

न जाने, कस्मिन् मानसे निरन्तरं त्वम् |

प्रदानं करोषि, त्वं विशिष्ट ज्ञानम् ||

क:...........................................||

(च)     कियन्मधुरं प्रियस्य पत्रम्

प्रियस्य प्रियं काल्पनिक पत्रम्

प्रिय ! शब्दे शब्दे तव रूपम्,

अभूत अर्थो सम्वाद: नूनम् ,

सम्बोधनस्याक्षरं –अक्षरं ,

चेतस: मृदुप्रसादो जातम् |

कियत् ........................||

पंक्त्यां भूतो मृदुसञ्चार: |

पदं पदं झञ्कृत: झंकार: |

तव मोहकपत्रस्य विचार: |

मनस: हारं भूतं नूनम्  |

कियत् .....................||

अन्तिमशब्दद्वयं  मधुसिक्तम् |

वपुषि झटिति  सञ्चरति हि रक्तम् |

मन: भूतमुन्माद-पूरितम् |

अनुभवामीदं  नेह पवित्रम् |

कियत् ........................||

रोम्णि- रोम्णि प्रीति: त्वदीया |

जाता रुपानुरागि –प्रिया

चन्दनतुल्यं स्मृति: त्वदीया

श्वासे-श्वासे काव्यं रचितम्  ||

कियत् .. ........................||

(छ)अहमास्मि !

अथ किम् ?

ग्रहा: विलसन्ति नभसि

परम

ध्यायति पातालपर्यन्तम्

ज्ञायते

अनन्तं विपुलम्

विमलं सागरम्

समाप्नोति

यत्नेन

अहंकारस्य (मे) लघु: कलश:

अन्तरिक्षस्य प्रांशुवत्म्

माति प्रकाशवर्ष:

परम्

मनो-नभ:

कोऽपि  स्पृशति न

किं कारणम्

अहम् अहम् |

अर्थात्

अस्ति

किम् ?

अमकारस्य बाहुल्यम् |

 

(ज)शिशुवन्निश्छलं निजजीवनम् |

भवेत् सहजं वै प्रतिक्षणम् ||

दुर्बलं प्रति सवलेन पीडनम्,

परेषामेव हि प्राण- हननम् ,

चित्ते आगत कुविचारघनम्,

निवारय त्वं, अस्ति महापतनम् |

शिशु .................................||

(झ)    किं नाम व्रतम् ?

पापेभ्य: विरति:

व्रतं इति निगद्यते |

व्रतस्य भवन्ति

त्रिस्रावस्था:

प्रथमा तु

श्रद्धाया: जागरणम् |

 

(ञ)     जीवनम्

एक टङ्कणयन्त्रम्

कर्मण: कीबोर्ड:

सुखदुःखयो:

रचयतीतिहासम्

गति: तस्य

बोधयति –

जीवनमेकं प्रपञ्चम्

भोजयति यं निश्चलेन

मैकेनिक –सर्जनो (सुधारक:)

कार्मिकरोगस्य

करोति निनादम्

उपचारात्पूर्वम्

जीवन-दर्शनस्य

नूतनपेक्ष्यते

किम् ?

अधिज्ञानम्   |

सम्मान/पुरस्कार -

1.      संस्कृत-सूक्ति-समुच्चय (जैनदर्शन खण्ड), पर उ. प्र. संस्कृत अकादमी द्वारा विविध पुरस्कार, 2003 ई. |

2.       जीवन्धरचम्पू सौरभ (शोधप्रबन्ध), पर गुरुगोपालदास बरैया सम्मान, (अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वत परिषद् द्वारा) 2003 ई. |

3.       विग्रहव्यावर्तनी पर उ.प्र. संस्कृत अकादमी द्वारा विविध पुरस्कार, 2009 ई. |

4.       शिक्षासमुच्चयकारिका पर उ.प्र. संस्कृत अकादमी द्वारा विविध पुरस्कार, 2012 ई. |

5.       प्राकृत-सूक्तिकोश पर उ.प्र. संस्कृत अकादमी द्वारा विशेष पुरस्कार, 2013 ई. |

                                                  

                                        





मामकीनं गृहम् : समय का सार्थक स्वर







मामकीनं गृहम् : समय का सार्थक स्वर

डॉ.अरुण कुमार निषाद

 

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समकालीन संस्कृत साहित्य के रचनाकारों में डॉ.प्रशस्य मित्र शास्त्री (संस्कृत व्यंग्यकार के रुप में) का नाम बड़े ही  सम्मान के साथ लिया जाता है । आपको साहित्य अकादमी और राष्ट्रपति सम्मान भी प्राप्त हुआ है । आपका जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन सन्‍ 1947 ई. को हुआ था । आपने सन्‍ 1973 ई. से 2011 ई. तक रायबरेली के फिरोज गाँधी पी.जी. कालेज में अध्यापमन कार्य किया है ।

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रचनायें- अभिनव-संस्कृत गीतमाला-1975, आचार्य महीधर एवं स्वामी दयानन्द का माध्यन्दिन-भास्य1984, हासविलास:(पद्य रचना)-1986, (उ.प्र.संस्कृत संस्थान का विशेष पुरस्कार प्राप्त) व्यंग्यविलास:, (संस्कृत-भाषा में सर्वप्रथम सचित्र व्यंग्यनिबन्‍ध)-1989,  कोमलकण्टकावलि:(संस्कृत व्यंग्य काव्य रचना, हिन्दी पद्यानुवाद सहित)-1990, अनाघ्रातं पुष्पम्‍ (कथा संग्रह)-1994,(दिल्ली संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार) नर्मदा(संस्कृत काव्यसंग्रह)-1997, , (उ.प्र.संस्कृत संस्थान का विशेष पुरस्कार प्राप्त) आषाढ़स्य प्रथम दिवसे,(कथा-संग्रह)-2000  हास्यं-सुध्युपास्यम्‍ (हिन्दी पद्यानुवाद सहित 2013) , (राजस्थान संस्कृत अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त) अनभीप्सित्म`(आधुनिक कथासंग्रह), (साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत), व्यंग्यार्थकौमुदी (हिन्दी पद्यानुवास सहित-2008(म.प्र.शासन द्वारा अखिल भारतीय कालिदास –पुरस्कारसे पुरस्कृत) आदि आप की प्रमुख रचनाएँ हैं ।

  1.                    

  1. इस संग्रह में दो खण्ड है- क.दीर्घकथा ख.लघुकथा ।

 दीर्घकथा खण्ड में – 1.मामकीनं गृहम्‍ 2.ओह शुचिते! 3.स्वप्नभङ्ग: 4.रावणत्वं हतम्‍ 5.पितृ-ऋणाद्‍ विमुक्ति: 6.सुखदो नववत्सर: 7.एष एव ममौरस्व: 8.विज्ञाने भोक्तारम्‍ 9.केवलम्‍ प्रश्ना एव 10.अतिसौमनस्यम्‍ 11.विंशतिसहस्रं रूप्याणि 12.आलस्यमापि सौख्यदम्‍ 13. रहस्यपूर्णा कुञ्जिका ।

लघुखण्ड में- 1.एतवान्‍ विलम्ब:? 2.आस्तिको रामाश्रयसिंह: 3.आस्तिको नास्तिकोश्‍च 4.वञ्चकोऽपि न पापिष्ठ: 5.सप्तदशोऽध्याय: 6.लुब्धो रमेश: सुवर्ण्मुद्राश्‍च 7.पारस्परिको व्यापार: ।


पहली कहानी में एक विधवा की समस्या को दिखाया गया है कि किस प्रकार समाज की सोच आज भी दकियानूसी परम्‍परा को अपना रही है । आज भी लोग ससुराल को ही लड़कियों का वास्तविक घर बताते हैं ।

श्‍वशुरालय: एव तदीयं वास्तविकं गृहम्‍ ।

दूसरी कथा एक सुन्‍दर युवती की कथा है जिसे अपने सौन्‍दर्य पर बहुत गर्व है ।

तीसरी कहानी एक मां अपने बेटे के पास रहने के लिए शहर आती है । उसके समक्ष जो-जो कठिनाई आती है । जिस-जिस कठिनाई का सामना उस्रे करना पड़ता उन सभी का वर्णन इस कथा में है ।

चौथी कहानी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है । जिसमें मानव मनोविज्ञान को दिखाया गया है ।

पाँचवी कहानी में पुत्री की उपेक्षा करने वालों को शिक्षा दी गई है कि किस प्रकार से एक पुत्री पुत्र के भी कर्तव्य का निर्वहन करती है ।

छठी कहानी में दिखाया गया है कि किस प्रकार से कभी-कभी परिवार में बिना बात के बतगड़ हो जाता है ।

कभी-कभी अपनों से अधिक दूसरे हमारे जीवन में बहुत सहयोग करते हैं । यह बातें सातवीं कथा में वर्णित है ।

आठवीं कथा युवा मनोविज्ञान पर आधारित है ।

नवीं कहानी विवाहेतर सम्‍बन्‍ध पर आधारित हैं कि किस प्रकार एक विवाहिता अनेकों कष्ट झेलते हुए भी लोक-लज्जा के भय के मानसिक रुप से पिसती है ।

ग्यारहवीं कहानी में आदमी की शंकालु प्रवृत्ति को दिखाया गया है ।

बारहवीं कथा सुख के पीछे भागने वालों के विषय में है ।

तेरहवीं कथा में धन की लोलुपता को दिखाया गया है ।

चौदहवीं कहानी अमीरी और गरीबी को दिखाया गया है कि किस तरह लोग समाज में गरीब और गरीबी का मजाक उड़ाते हैं ।

इस प्रकार इस संग्रह को पढ़ने पर स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि कथाकार शास्त्री जी ने आज की समस्या को अपने कथाओं का वर्ण्यविषय बनाया है । शास्त्री जी की कथाओं की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनका कथानक सुना या पढ़ा नहीं अपितु देखा और जिया है । एक सफल रचनाकार के लिए यह आवश्यक है कि आकाश पुष्प तोड़ने के स्थान पर वह अपनी जमीन से जुड़ा हो । पाठक तभी उसे पढ़ना पसंद करेगा । आज का पाठक चाँद-तारे, राजा-रानी, परियों आदि की कहानी से ऊब चुका है । उसे रचनाओं में नयापन चाहिए । जोकि शास्त्री जी की कथाओं में दृष्टिगोचर होता है । छोटे-छोटे समासिक पदों से युक्त तथा प्रसाद गुण से रचित यह एक पठनीय और संग्रहणीय ग्रन्‍थ है । जिसकी भाषा-शैली किसी भी पाठक को अपनी तरफ आकषित करने में पूर्णरुपेण समर्थ है ।

समीक्षक- डॉ.अरुण कुमार निषाद

पुस्तक- मामकीनं गृहम्‍  (संस्कृत कहानी संग्रह)

लेखक- डॉ.प्रशस्य मित्र शास्त्री

प्रकाशन- अक्षयवट  प्रकाशन इलाहाबाद ।

प्रथम संस्करण-2016 ई.

मूल्य-300 रुपया

पृष्ठ संख्या-144