शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

डा.बलदेवानन्द सागर से डा.अरुण कुमार निषाद की बातचीत

डॉ॰बलदेवानन्द सागर के साथ अनौपचारिक बातचीत
[डॉ॰ अरुणकुमार निषाद के प्रश्न] 
प्रश्न-[१] सर्वप्रथम आप अपने बारे में बतायें ?  बहुत सारे ऐसे तथ्य होंगे जो अभी तक आपके पाठकों/श्रोताओं को ज्ञात नहीं होंगे ?
उत्तर-[१] इस बात से मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मेरा कुटुम्ब [गुजरात, जि-भावनगर, जन्मगाँव-चमारडी] शांकर-परम्पराओं से जुड़ा है और मेरे कुलगुरु पूज्य तपोमूर्त्ति स्वामी शिवोsहं सागर जी महाराज से दीक्षा पाकर उनकी अनुकम्पा से संस्कृत पढ़ने के लिए काशी पहुँच पाया और बहुत सारे ऐसे तथ्य हैं जो समय आने पर अपने सुधी पाठकों/श्रोताओं को अवश्य बतलाऊंगा |   
प्रश्न-[२] आपके सृजन का परिवेश क्या है ?
उत्तर-[२] काशी मेँ [गदौलिया,मिश्र-पोखरा] श्रीदक्षिणामूर्त्ति संस्कृत महाविद्यालय मेँ १९६५ मेँ प्रथमा परीक्षा से आरम्भ हुयी मेरी संस्कृत-साधना की यह यात्रा बाबा विश्वनाथ की करुणा, भगवती गंगा के दुलार, सद्गुरु भगवान् के अनुग्रह और माता-पिता के आशीर्वाद से धीरे-धीरे आगे बढ़ती चली | इन्हीं दिनों मेहसूस होता रहा कि अन्दर से कोई प्रेरित कर रहा है कि मैं कविता और गीत लिखने के लिए कागज़ और कलम के साथ भी गहरी दोस्ती रक्खूँ | यह परिवेश दिल्ली [१९७२-७३] आने पर बदल गया और कुछ समय तक तो कुछ भी नहीं लिख पाया, शायद महानगर मेँ अपने अस्त्तित्व-रक्षण [survive] के संघर्ष के कारण !     
प्रश्न-[३] आप अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?
उत्तर-[३] आकाशवाणी-दूरदर्शन से संस्कृत-समाचारों के प्रसारण, अनुवाद और सम्पादन का काम तो आजीविका का दायित्व था किन्तु इसके साथ-साथ संस्कृत-कविता और संस्कृत-रंगकर्म का जुनून तो आत्म-सन्तोष के लिए था, अब भी है और जीवन-पर्यन्त रहेगा | गद्य-पद्य विधा द्वारा जो सहजरूप से सर्जित कर पाता हूँ, कर रहा हूँ | समाज जो सन्देश लेना चाहे, उनका आभार !     
प्रश्न-[४] आज के आधुनिक संस्कृत-साहित्य के लेखकों और कवियों में आप किसकी रचना बार-बार पढ़ना पसन्द करेंगे और क्यों?                                                     उत्तर-[४] बहुत-सारे कवि-लेखकों को पढ़ता हूँ | कुछेक का नाम गिनाऊँ तो जिनका नाम नहीं दिया उनके साथ अन्याय होगा | रचना जो सहज-सरल हो और पढ़ते-सुनते ही दिल को छू जाय | ऐसी रचना के सन्दर्भ मेँ पण्डितराज जगन्नाथ का ये श्लोक याद आ रहा है जिसमें उन्हों रचना [कविता]  कैसी होनी चाहिए, इस बात का उल्लेख किया है –
नान्ध्री-पयोधर इवातितरां प्रकाशः,
नो गुर्जरी-स्तन इवातितरां निगूढः |
अर्थो गिरामपिहितः पिहितश्च शश्वत्,
सौभाग्यमेति मरहठ्ठ-वधू-कुचाभः || 
प्रश्न- [५] आप आजकल के संस्कृत के युवा लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?
उत्तर-[५] आजकल के संस्कृत के युवा लेखक, कवि और साहित्यकार बहुत जागरूक, युगबोधक, युगप्रबोधक और युगशोधक हैं | जितनी भी सारस्वत-साधना करेंगे, उतनी ही उनकी रचना प्रभावी और चिरस्थायिनी होगी |     
प्रश्न-[६] कहा जाता है कि रचनाकार की रचनाओं के पीछे कोई-न-कोई अमूर्त्त प्रेरणा अवश्य होती है | आपको प्रेरणा कहाँ से मिलती रही है?
उत्तर-[६] ये सच है कि प्रत्येक रचनाकार की रचनाओं के पीछे कोई-न-कोई अमूर्त्त प्रेरणा अवश्य होती है | मैं तो मेहसूस करता रहा हूँ और अब समय के साथ और भी तीव्रता से अनुभव कर रहा हूँ कि संस्कृत-विद्या ही मुख्यरूप से मेरी प्रेरणा है | 
प्रश्न-[७] कुछ ऐसे भी आपके काव्य-सखा होंगे जो निरन्तर आपको रचना के लिए प्रोत्साहित करते होंगे और उन्हें आप अपनी रचना सुनाते होंगे | कृपया बतलाएँ |
उत्तर-[७] इस सर्जन यात्रा के आरम्भ के दिनों में ऐसा कुछ क्रम रहा और साथी-मित्रों को अपनी रचना सुनाते रहे | उनसे प्रेरणा लेते रहे किन्तु अब तो मेरी अर्द्धांगिनी ही, जो स्वयं सिन्धी भाषा की प्रतिष्ठित लेखिका-कवियित्री है, इस दायित्व को निभा रही है |                                                  प्रश्न-[८] अपने देश में कला के नाम पर उत्तरोत्तर बढ़ती अश्लीलता और आयातित संस्कृति को आप किस नजरिए से देखते हैं?
उत्तर-[८] सूचना क्रान्ति के इस युग में अश्लीलता और आयातित संस्कृति के विभिन्न पक्षों को समझकर साहित्य के मानकों की पुनर्व्याख्या करना बहुत ज़रूरी है | हमारा देश तो अनादि काल से ही ‘सत्य, शिव और सुन्दर’ को ही साहित्य का परम लक्ष्य मानता आया है | 
प्रश्न-[९] आपकी स्वयं की प्रक्रिया क्या है ? ग़ज़लें या कविता आप एक बैठक में लिख लेते हैं अथवा संस्कार और परिष्कार अनेक बैठकों तक चलता है?
उत्तर-[९]  सभी सर्जकों की अपनी-अपनी रचना-प्रक्रिया अपनी मौलिक अदा-वाली होती है | कोई सहज, कोई शीघ्रता से तो कोई धीरे-धीरे रचना-प्रक्रिया को सुविधाजनक मानता है | इस पङ्क्ति में मेरा स्थान सबसे अन्त में है | मेरी संस्कार और परिष्कार की प्रक्रिया रचना-सर्जन के बाद भी चलती रहती है |     
प्रश्न-[१०]  क्या आप समकालीन संस्कृत-साहित्य की रचनाओं से सन्तुष्ट हैं? यदि नहीं तो आप आज के संस्कृत-रचनाकारों से क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?
उत्तर-[१०] ‘समकालीन संस्कृत-साहित्य की रचनाओं से सन्तुष्ट हूँ’ – ऐसा तो तभी कह सकता हूँ जब मैं सभी रचनाओं को पढ़ पाऊँ | फिर भी, कुछ समीक्षाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि संस्कृत की समकालीन साहित्य की रचनाएँ बहुरंगी और बहुआयामी हैं | और तो क्या ? संस्कृत-रचनाकारों से यही अपेक्षा है कि “शास्त्रं सुनिश्चल-धिया परिचिन्तनीयम् |”     
प्रश्न-[११] कविता की नई पीढ़ी के प्रति कितना आशावान् हैं ?
उत्तर-[११] बहुत अधिक ! उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास ही भारतीय जीवन पद्धति का बीजमन्त्र है | नई पीढ़ी के रचनाकार स्वयंचेता और उदार हैं – यह एक शुभ संकेत है |                                                                                                                              प्रश्न-[१२] आज नए रचनाकारों को अनेक स्तरों पर प्रोत्साहन मिल रहा है ? इस सुविधा को किस रूप में देखते  हैं ?
उत्तर-[१२] जब ऐसा नहीं होता था तो “पुराणमित्येव न साधु सर्वम्” –[कालिदास] अथवा तो “उत्पत्स्यते मम कोsपि समानधर्मा” –[भवभूति] कहना पड़ा था | रचनाकारों और कवियों को जितना भी सम्मान और प्रोत्साहन दिया जाय, कम है |                                                                           
प्रश्न-[१३] लेखन विरासत में मिला था या संयोग था कलम थामना ?
उत्तर-[१३] पिता जी सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ गुरुपरम्परा की गुजराती मासिक पत्रिका ‘वेद-रहस्य’ के संस्थापक-सम्पादक रहें | गुरुपरम्परा और कुलपरम्परा का ही अनुग्रह है |     
प्रश्न-[१४] आपके अन्दर लिखने-पढ़ने के संस्कार कैसे पैदा हुए ?
उत्तर-[१४] पाँच भाइयों में सबसे छोटा होने के कारण परिवार में ही लिखने-पढ़ने के संस्कार मिलें लेकिन संस्कृत-विद्या के संस्कार तो गुरुकृपा से ही मिले हैं | 
प्रश्न-[१५] अधिकांश रचनाकार सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं ? क्या इससे साहित्य समृद्ध हो रहा है ?
उत्तर-[१५] सोशल मीडिया की अपनी अलग तरह की कशिश है | अब, इक्कीसवीं सदी में इस सामाजिक सञ्चार माध्यम का अपना विशिष्ट महत्त्व है | इसकी परिधि बहुत व्यापक और पहुँच बहुत सुगम है | इससे साहित्य कितना समृद्ध होगा – ये तो समय ही बताएगा | 
प्रश्न-[१६] आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं?
उत्तर-[१६] भगवान् भाष्यकार आदिशंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, व्यास, भास, कालिदास और बहुत सारे हिन्दी-अंग्रेजी के आधुनिक लेखक-कवि |   
प्रश्न-[१७] व्यस्त शेड्यूल में रचना करने के लिए किस तरह समय निकालते हैं?
उत्तर-[१७] इस अनौपचारिक बातचीत के उत्तर-[२] में जैसा कि मैं ने कहा – परिवेश अनुकूल न हो तो रचनाधर्मिता मन्द हो जाती है | समय-प्रबन्धन आज की जीवन शैली का अनिवार्य अंग है|अब तो प्राथमिकता के आधार पर ही समय निकाल पाते हैं | 
प्रश्न-[१८] आप कविता-गेयता को कविता का अनिवार्य अंग मानते हैं या नहीं ?
उत्तर-[१८] कविता को लय-स्वर के साथ प्रस्तुत करने से एक स्फूर्त आनन्द की अनुभूति कवि को और सहृदय श्रोता को भी होती ही है | वैसे अतुकान्त कविता या गद्य को भी लय के साथ प्रस्तुत करने का अपना एक अलग ही आनन्द होता है | यही प्रक्रिया भरत-नाट्यशास्त्र में संवाद-शैली की गंगोत्री है | 
प्रश्न-[१९]  आप अपने आप को कवि मानते हैं या गद्यकार ?
उत्तर-[१९] दोनों ही नहीं ! अभी तो प्रशिशिक्षु हूँ |                                                                                                                          प्रश्न-[२०] रचनाकार का अपनी जड़ों से जुड़े रहना जरूरी है ? आप क्या कहते  हैं?
उत्तर-[२०] अपनी जड़ों से जुड़े रहना, व्यष्टि और समष्टि – दोनों के लिए बहुत ज़रूरी है |
प्रश्न-[२१] साहित्य सृजन के अलावा आपकी अन्य रुचियाँ क्या हैं?
उत्तर-[२१]  पठन-पाठन और संगीत-श्रवण |                                                                                                                                      प्रश्न-[२२] वह रचना जिसने आपको एक रचनाकार के रूप में स्थापित किया ?
उत्तर-[२२] अभी उस कृति का सर्जन बाकी है |
प्रश्न-[२३] आपकी पहली रचना कब और कहाँ से प्रकाशित हुई ?
उत्तर-[२३] पूर्व-मध्यमा के प्रथम वर्ष में [१९६७] “पण्डिताष्टकम्”, जो कि परम श्रद्धेय पं॰ रामबालक शास्त्री जी के साप्ताहिक-पत्र “गाण्डीवम्” में प्रकाशित हुयी |     
प्रश्न-[२४] संस्कृत एक मृत भाषा है- प्रायः लोग कहते हैं, उनके लिए क्या सन्देश है?
उत्तर-[२४] मृत नहीं, अमृत है | संस्कृत सिर्फ भाषा ही नहीं, ध्वनिविज्ञान भी है | इसकी महफिल में आके तो देखो, फिर ‘शिवोsहं-शिवोsहं’ के सिवा और कुछ नज़र ही नहीं आयेगा |     
प्रश्न-[२५] आज संस्कृत के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां हैं? उनके समाधान के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं?
उत्तर-[२५] व्यावहारिक धरातल पर तो अनेक चुनौतियाँ हैं | संस्कृत-परम्परा के लोगों को सम्मानजनक आजीविका मिलें और संस्कृत-समाज के लोग दैनिक जीवन में, बोलचाल में संस्कृत का अधिकाधिक प्रयोग करें | अध्यापक भी कक्षा में संस्कृत-माध्यम से बच्चों को पढ़ाएँ |   
प्रश्न-[२६] विदेशों में संस्कृत की क्या स्थति है ?  कहाँ-कहाँ कार्य हो रहे हैं?
उत्तर-[२६] विदेशों में संस्कृत की स्थिति अच्छी है | १३० से अधिक देशों में संस्कृत पढ़ायी जाती हैं |
प्रश्न-[२७] आप अपने शिष्यों से क्या आशा करते हैं?
उत्तर-[२७] मेरे शिष्य कम और सहाध्यायी-सहकर्मी मित्र ज़्यादा हैं | सब खूब रचनात्मक कार्यों को करते हुए ऋषि-ऋण से उऋण होने का प्रयास करें |                                                                                                                                        प्रश्न-[२८] अभी तक आपने कुल कितनी भाषाओं में रचनाएँ की हैं ?
उत्तर-[२८] संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती [मातृभाषा] – इन चार भाषाओं में कार्य करता हूँ |                                                                                                                   प्रश्न-[२९] आज क्या कुछ नया लिख रहे हैं?
उत्तर-[२९]  ‘पाणिनि और भाषाविज्ञान’ पर शोध आलेख तैयार कर रहा हूँ |                                                                                                                                                               प्रश्न-[३०] लेखन क्षेत्र में शार्ट-कट् को किस नज़रिये से देखते हैं ?
उत्तर-[३०] न सिर्फ लेखन, किसी भी विधा में शार्ट-कट् ठीक नहीं है |                                                                                                                               प्रश्न-[३१] आपके द्वारा लिखी गई अब तक की सबसे अच्छी रचना ?
उत्तर-[३१] पहली रचना ‘वीरः समीरोपमः’ |
प्रश्न-[३२] आप संस्कृत के उत्थान के लिए युवावर्ग को क्या सन्देश देना चाहते हैं ? 
उत्तर-[३२] संस्कृत के उत्थान की बात नहीं है | संस्कृत तो सदा-सर्वदा प्रतिष्ठित और प्राणवन्त है | युवा अपने आत्म-सम्मान के लिए, अपनी सच्ची पहचान के लिए संस्कृत को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनाएं और दैनिक व्यवहार में भी इसका प्रयोग करें |                                                                                             प्रश्न-[३३] यदि आप संस्कृत नहीं पढ़ते तो क्या करते ?
उत्तर-[३३] शायद अधिवक्ता बनता !
प्रश्न-[३४] संस्कृत के पाठ्यक्रमों एवं परीक्षा प्रणाली में क्या-क्या सुधार किये जायें ?
उत्तर-[३४] संस्कृत के पाठ्यक्रम एवं परीक्षा प्रणाली को ज़्यादा से ज़्यादा सरल और व्यावहारिक बनाने से सभी के लिए लाभदायक सिद्ध होंगे |                                                   
                          - डॉ. बलदेवानन्द सागर
               

रविवार, 16 सितंबर 2018

संस्कृत-पत्रकारिता:इतिहास एवं अधुनातन स्वरुप


              संस्कृत-पत्रकारिता : इतिहास एवं अधुनातन स्वरूप…
डॉ. बलदेवानन्द सागर 


          संस्कृत-पत्रकारिता के बारे में कुछ कहने से पहले मैं सुधी पाठकों को ये बताना चाहूँगा कि भले ही, सामान्यरूप से हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य प्रचलित भाषाओं की पत्रकारिता के समान संस्कृत-पत्रकारिता की चर्चा न होती हो; पर आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज, इस इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे आधे दशक में भी, भारत के प्रायः सभी राज्यों और कुछ विदेशों में भी संस्कृत-पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं |
          एक प्रामाणिक समीक्षक के रूप में संस्कृत-पत्रकारिता के विषय में कुछ कहने के लिए अभी मैं मनोमन्थन करके आपके सामने जो कुछ रखने जा रहा हूँ, वो मात्र एक लेखक के रूप में ही नहीं, परन्तु पिछले ४२ वर्षों से आकाशवाणी के साथ-साथ, २२ वर्षों के दूरदर्शन के भी संस्कृत-समाचारों के सम्पादन, अनुवाद और प्रसारण के दीर्घकालीन अनुभवों के आधार पर “संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास एवं अधुनातन स्वरूप” की व्याख्या करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ |
संस्कृत-पत्रकारिता का इतिहास-
                       जब भी हिन्दी-पत्रकारिता की बात होती है तो हिन्दी के प्रथम पत्र “उदन्त-मार्तण्ड” [ १८२६ ई., सम्पादक- पं. जुगलकिशोर-शुकुल] का सन्दर्भ अवश्य दिया जाता है | ठीक उसी तरह से, संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास में ईस्वी सन् १८६६ में पहली जून को काशी से प्रकाशित “काशीविद्यासुधानिधिः” का उल्लेख अवश्य होता है | संस्कृत-पत्रकारिता की इस प्रथम-पत्रिका का दूसरा नाम था –“ पण्डित-पत्रिका |”
                      अभी, जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ तो संस्कृत-पत्रकारिता के १५० वर्ष और प्रायः दो महीने पूरे हो रहे हैं | इस बात को ध्यान में रखकर संस्कृत-प्रेमियों और संस्कृतज्ञों के एक राष्ट्रव्यापी स्वैच्छिक-संघठन “भारतीय संस्कृत-पत्रकार संघ” [पञ्जी.] ने इस पूरे वर्ष में राष्ट्रीय-स्तर पर अनेक कार्यशालाओं और संगोष्ठियों के आयोजन का संकल्प किया है | यह तथ्य, इस बात का द्योतक है कि संस्कृत-पत्रकारिता को व्यावहारिक रूप में राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए संस्कृत-कर्मी दिन-रात अथक प्रयास कर रहे हैं |
                    संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास की बात दोहराते हुए कहना चाहूँगा कि “काशीविद्यासुधानिधिः” [१-जून,१८६६] से शुरू हुयी इस संस्कृत-पत्रकारिता की यात्रा में अनेक छोटे-बड़े पड़ाव आये | इस बिन्दु को समझने के लिए लोकमान्य तिलक जी के मराठी-भाषिक ‘केसरी’ का उल्लेख करना चाहूँगा |
                     भारत की भाषाई-पत्रकारिता के इतिहास में, वैसे तो अनेक दैनिक-मासिक पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है किन्तु ‘केसरी’ की बात कुछ ख़ास है | विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, बालगंगाधर तिलक, वामन शिवराम आप्टे, गणेश कृष्ण गर्दे, गोपाल गणेश आगरकर और महादेव वल्लभ नामजोशी के हस्ताक्षरों के साथ ‘केसरी’ का उद्देश्य-पत्र १८८० ईस्वी. की विजयादशमी को मुम्बई के ‘नेटिव-ओपिनियन’ में प्रकाशित कराया गया | ‘केसरी’ के प्रकाशन का निर्णय तो हो गया लेकिन मुद्रण के लिए पूँजी की समस्या थी | अन्ततः नामजोशी की व्यावहारिक-कुशलता के साथ ४-जनवरी १८८१ को पुणे से साप्ताहिक ‘केसरी’ [मराठी] का प्रति मंगलवार को प्रकाशन होने लगा |
                    जिस बात की ओर मैं संकेत करना कहता हूँ, वह है पण्डितराज जगन्नाथ के “भामिनीविलास” का वह समुपयुक्त संस्कृत-श्लोक, जो ‘केसरी’ के उद्देश्य और कार्य को द्योतित करता है | विष्णु शास्त्री चिपलूणकर द्वारा चुना गया और ‘केसरी’ के मुखपृष्ठ पर छपा यह श्लोक इस प्रकार है –
“स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण-सखे !, गज-श्रेणीनाथ ! त्वमिह जटिलायां वनभुवि | 
 असौ कुम्भि-भ्रान्त्या खरनखरविद्रावित-महा-गुरु-ग्राव-ग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः ||”
[ अर्थात् हे गजेन्द्र ! इस जटिल वन-भूमि में तुम पलभर के लिए भी मत रूको, क्योंकि यहाँ पर पर्वत-गुफा में वह केसरी [हरिपति] सो रहा है जिसने हाथी के माथे-जैसी दिखने की भ्रान्ति में बड़ी-बड़ी शिलाओं को भी अपने कठोर नाखूनों से चूर-चूर [विद्रावित] कर दिया है ] 
               मेरा विनम्र मन्तव्य यही है कि तत्कालीन भाषाई-पत्रकारिता के लेखक- सम्पादक-प्रकाशक बहुतायत संख्या में या तो संस्कृत के जानकार या विशेषज्ञ थे या संस्कृत के प्रति निष्ठावान् थे और पत्रकारिता के समर्पित कार्य के लिए संस्कृत के समृद्ध साहित्य का आश्रय लेते थे | चूँकि स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए जन-सामान्य की भाषा में संचार और सम्वाद करना ज़रूरी था, इसलिए विभिन्न भारतीय भाषाओं में तुलनात्मक-रूप से अधिक और संस्कृत में कम, पत्र-पत्रिकाएँ छपती रहीं | किन्तु भारत के सभी राज्यों से प्रकाशित होने वाली संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं की बात करें तो किसी एक प्रान्तीय-भाषा या राष्ट्रभाषा हिन्दी या अंग्रेजी-उर्दू की तुलना में समग्ररूपसे संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं की संख्या अधिक मानी जा सकती है | शोध के आधार पर  यह संख्या १२० से १३० के बीच की कही जा सकती है |                                                   
                 इस छोटे-से आलेख में पूरे डेढ़-सौ सालों के इतिहास को विस्तार से देना तो सम्भव नहीं है किन्तु कुछ मुख्य संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करें, तो दो प्रकार की संस्कृत-पत्रिकाएँ बहुतायत से मिलती हैं | एक तो वे जो मुख्यरूप से शोध-पत्रिका के रूप में प्रकाशित होती रहीं और शोध-लेखों, प्राचीन-ग्रन्थों और पाण्डुलिपिओं को ही प्रकाशित करती रहीं | दूसरी वें, जो एक सामान्य साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक पत्रिका के कलेवर में प्रकाशित की जाती थीं, जिनमें प्रायः सभी विषयों की सामग्री छपी मिलती थीं | आज स्थिति में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है | ऐसा लग रहा है कि संस्कृत-पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है | आश्वस्ति के साथ कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब युवा पीढ़ी के अधिकाधिक युवक-युवतियाँ संस्कृत पढ़ना-लिखना और बोलना पसन्द करेंगे और सामाजिक संचार-माध्यमों में सभी भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत-विद्या का अधिक प्रयोग होगा
               आइये, अब कुछ विशेष पत्र-पत्रिकाओं की बात करें –
               संस्कृतपत्रकारिता स्वतन्त्रता-संग्राम की एक विशिष्ट उपलब्धि है | नवीन विचारों के सूत्रपात और राष्ट्रीयता की वृद्धि में इस ने अभूतपूर्व योगदान किया है | शोध से ये तथ्य सामने आया है कि ईस्वी सन् १८३२ में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी ने अंग्रेजी और संस्कृत में एक द्विभाषी शोध-पत्रिका प्रकाशित की थी | इस पत्रिका में संस्कृत साहित्य की गवेषणाओं एवं पुरातन सामग्री से आपूरित लेखादि प्रकाशित होते थे | इसने अंग्रेजी पढ़े-लिखे संस्कृतज्ञों के हृदय में नवीन चेतना का संचार किया और राष्ट्र, भाषा एवं साहित्य के प्रति गौरव का भाव जागृत किया |
              जैसा कि पहले उल्लेख कर चुके हैं, १ जून, १८६६ ई. को काशी-स्थित  गवर्नमेण्ट संस्कृत कॉलेज ने “काशी-विद्यासुधा-निधिः” अथवा “पण्डित” नामक मासिक-पत्र का प्रकाशन किया | काशी से ही १९६७ ई. में “क्रमनन्दिनी” का प्रकाशन आरम्भ हुआ | विशुद्ध संस्कृत की ये दोनों पत्रिकाएँ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रकाशन करती थीं | इनमें विशुद्ध समाचार-पत्रों के लक्षण नहीं थे | एप्रिल, १८७२ ई. में लाहौर से “विद्योदयः” नए साज-सज्जा के साथ शुद्ध समाचार-पत्र के रूप में अवतरित हुआ | हृषीकेश भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका ने संस्कृत-पत्रकारिता को अपूर्व सम्बल प्रदान किया | “विद्योदयः” से प्रेरणा पाकर संस्कृत में अनेक नयी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं |
             बिहार का पहला संस्कृत-पत्र १८७८ ई. में “विद्यार्थी” के नाम से पटना से निकला | यह मासिक पत्र १८८० ई. तक पटना से नियमित निकलता रहा और बाद में उदयपुर चला गया, जहाँ से पाक्षिक रूप में प्रकाशित होने लगा | कुछ समय बाद, यह पत्रिका श्रीनाथद्वारा से प्रकाशित होने लगी | आगे चल कर यह हिन्दी की “हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका” और “मोहनचन्द्रिका” पत्रिकाओं में मिलकर प्रकाशित होने लगी | यह संस्कृत-भाषा का पहला पाक्षिक-पत्र था जिसके सम्पादक पं. दामोदर शास्त्री थे एवं इसमें यथानाम प्रायः विद्यार्थिओं की आवश्यकता और हित को ध्यान में रखते हुए सामग्री प्रकाशित की जाती थी |       
            १८८० ई. में पटना से मासिक ‘धर्मनीति-तत्त्वम्’ का प्रकाशन हुआ, किन्तु इसके विषय में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिल पाती है और नहीं इसका कोई अंक उपलब्ध है |
            १७-अक्टूबर, १८८४ ई. को कुट्टूर [केरल] से ‘विज्ञान-चिन्तामणिः’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ | कुछ समय बाद, प्रचारातिरेक के कारण यह पत्रिका पाक्षिक, दशाह्निक और अन्ततः साप्ताहिक हो गयी | नीलकान्त शास्त्री के सम्पादकत्व में यह पत्रिका संस्कृत-पत्रकारिता के विकास में मील का पत्थर सिद्ध हुयी |
               संस्कृत की समृद्धि, प्रतिष्ठा और शिक्षाप्रणाली के परिष्कार के लिए पं. अम्बिकादत्त व्यास द्वारा १८८७ ई. में स्थापित संस्था ‘बिहार-संस्कृत-संजीवन-समाजः’, संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत रहा | इसकी पहली बैठक ५-एप्रिल, १८८७ ई. में हुयी, जिसकी अध्यक्षता पॉप जॉन् बेन्जिन् ने की थी | इसमें अनेक राज्यों से बहुत-सारे लोग आये थे | सचिव स्वयं पं. अम्बिकादत्त व्यास जी थे | इस समाज द्वारा १९४० ई. में त्रैमासिक के रूप में ‘संस्कृत-सञ्जीवनम्’ का प्रकाशन आरम्भ किया गया था |                                                         
               १९वीँ शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में बहुत-सारी संस्कृत-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ | राष्ट्रिय-आन्दोलन की दृष्टि से, इन सब में “संस्कृत-चन्द्रिका” और “सहृदया” का विशेष स्थान है | पहले कोलकोता और बाद में कोल्हापुर से प्रकाशित होने वाली “संस्कृत-चन्द्रिका” ने अप्पाशास्त्री राशिवडेकर के सम्पादकत्व में अपार ख्याति अर्जित की | अपने राजनीतिक लेखों के कारण अप्पाशास्त्री को कई बार जेल जाना पड़ा | संस्कृत-भाषा का पोषण और सम्वर्धन, संस्कृत-भाषाविदों में उदार दृष्टिकोण का प्रचार तथा सुषुप्त संस्कृतज्ञों को राष्ट्र-हित के लिए जगाना आदि उद्देश्यों को ध्यान में रखकर “सहृदया” ने राष्ट्रिय-आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी |
                २०वीं शताब्दी के आरम्भ में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में सारे देश ने स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया था | संस्कृत-पत्रकारिता के लिए ये सम्वर्धन का युग था | उस अवधि में देश के विभिन्न भागों से अनेक संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिनमें ‘भारतधर्म’ [१९०१ ई.], ‘श्रीकाशीपत्रिका’ [१९०७ ई.], ‘विद्या’ [१९१३ ई.], ‘शारदा’ [१९१५ ई.], ’संस्कृत-साकेतम्’ [१९२० ई.] वगैरह प्रमुख थीं |  ‘अर्वाचीन संस्कृत साहित्य’ के अनुसार १९१८ ई. में पटना से पाक्षिक ‘मित्रम्’ का प्रकाशन शुरू हुआ था | इसका प्रकाशन ‘संस्कृत-संजीवन-समाज’ करता था |
             स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में दूसरी प्रमुख संस्कृत-पत्रिकाएँ थीं – ‘आनन्दपत्रिका’ [१९२३ ई.], ‘गीर्वाण’ [१९२४ ई.], ‘शारदा’ [१९२४ ई.], ‘श्रीः’ [१९३१ ई.], ‘उषा’ [१९३४ ई.], ‘संस्कृत-ग्रन्थमाला’ [१९३६ ई.], ‘भारतश्रीः’ [१९४० ई.] आदि | १९३८ ई. में कानपुर से अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मलेन का मासिक मुखपत्र “संस्कृत-रत्नाकरः” आरम्भ हुआ | श्रीकेदारनाथ शर्मा इसके सारस्वत सम्पादक-प्रकाशक थे | १९४३ ई. में राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ की त्रैमासिक पत्रिका “गंगानाथ झा रिसर्च जर्नल” आरम्भ की गई |   
            स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की प्रमुख संस्कृत-पत्रिकाओं में, ‘ब्राह्मण-महासम्मेलनम्’ [१९४८ ई.], ‘गुरुकुलपत्रिका’ [१९४८ ई.], ‘भारती’ [१९५० ई.], ‘संस्कृत-भवितव्यम्’ [१९५२ ई.], ‘दिव्यज्योतिः’ [१९५६ ई.], ‘शारदा’ [१९५९ ई.], ‘विश्व-संस्कृतम्’ [१९६३ ई.], ‘संविद्’ [१९६५ ई.], ‘गाण्डीवम्’ [१९६६ ई.], ‘सुप्रभातम्’ [१९७६ ई.], ‘संस्कृत-श्रीः’ [१९७६ ई.] ‘प्रभातम्’ [१९८० ई.], ‘लोकसंस्कृतम्’ [१९८३ ई.], ‘व्रजगन्धा’ [१९८८ ई.], ‘श्यामला’ [१९८९ ई.] आदि गिनी जाती हैं |
               इसी अवधि में [१९७० ई. में] संस्कृत-पत्रकारिता के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक घटना हुयी जिसके महानायक थे – मैसूरू, कर्नाटक के सुप्रसिद्ध संस्कृत-विद्वान्, गीर्वाणवाणीभूषण, विद्यानिधि, पण्डित-कळले-नडादूरु-वरदराजय्यङ्गार्य, जिन्हों ने मैसूरू से “सुधर्मा” नामक दैनिक संस्कृत समाचार-पत्र प्रकाशित कर के विश्व-पत्रकारिता के मञ्च पर संस्कृत-पत्रकारिता का ध्वज फहरा दिया | यद्यपि १९०७ ई., १-जनवरी को थिरुअनन्तपुरम् [केरळ] से “जयन्ती” नामक दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र प्रकाशित कर के श्रीकोमल-मारुताचार्य और श्रीलक्ष्मीनन्द-स्वामी ने एक अभूतपूर्व साहस किया था किन्तु धन और ग्राहक-पाठक के अभाव में इस संस्कृत-दैनिक का प्रकाशन कुछ दिनों बाद ही बन्द करना पड़ा | कालान्तर में, कानपुर से भी कुछ समय तक “सुप्रभातम्” नाम का दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र निकलता रहा किन्तु पाठक-ग्राहक के अभाव में बन्द करना पड़ा |
संस्कृत-पत्रकारिता का अधुनातन स्वरूप –                             
                  संस्कृत भारत की सांस्कृतिक-धरोहर है | इस राष्ट्र की पहचान और अस्मिता है | स्वतन्त्र-भारत की भाषाई नीति के चक्रव्यूह में न पड़कर आज संस्कृतपत्रकारिता   के क्षेत्र में नित-नूतन हो रहे प्रयोगों की पड़ताल करें तो लगता है कि विश्व की अधिकाधिक भाषाएँ, इस वैज्ञानिक और गणितात्मक वाणी-विज्ञान से लाभान्वित हो रही हैं | computational linguistic science को परिपोषित और सम्वर्धित करने में संस्कृत के शब्दानुशासन से अधिकाधिक मदद ली जा रही है | ऐसे परिदृश्य में किन्हीं कारणों से शिथिल-गति वाली संस्कृत-पत्रकारिता अब, आधुनिक संचार माध्यमों के सर्वविध क्षेत्रों में और सामाजिक संचार माध्यमों में  अपनी उपयोगिता और प्रभाव को स्थापित कर रही है |
               यदि हम संस्कृत-पत्रकारिता के आधुनिक-युग को इक्कीसवीं शताब्दी का आरम्भ-काल मानें, तो थोड़ा सिंहावलोकन करके बीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों में हुयी सूचना-क्रान्ति और तकनीकी विकास-प्रक्रिया की समीक्षा को भी व्यापक-परिधि में समझना होगा | आप सुधी पाठक मेरा संकेत समझ गए होंगे |
               अभी-अभी हमने, संक्षेप में संस्कृत-पत्रकारिता के डेढ़सौ वर्षों के संक्षिप्त इतिहास का विहंगम-अवलोकन किया | इसी शृंखला में एक और ऐतिहासिक घटना हुयी और भारत-सरकार के सूचना-प्रसारण-मन्त्रालय ने आरम्भ में प्रयोगात्मक-रूप से १९७४ ई. के ३०-जून को सुबह ९-बजे, आकाशवाणी के दिल्ली-केंद्र से संस्कृत-समाचारों का प्रसारण करके उन तमाम भ्रान्तियों और मिथकों को ध्वस्त कर दिया, जो कहते थे कि संस्कृत, आम बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती है या तकनीकी विचारों को संस्कृत में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है | इस राष्ट्रिय समाचार-प्रसारण की लोकप्रियता और सर्वजन-ग्राह्यता के कारण, कुछ महीनों बाद, पाँच-मिनिट का संस्कृत-समाचारप्रसारण का एक और बुलेटिन शाम को [६.१० बजे] प्रसारित होने लगा | इतना ही नहीं, १९९४ ई. में २१-अगस्त, रविवार को दूरदर्शन ने साप्ताहिक संस्कृत-समाचार प्रसारण आरम्भ करके एक नया कीर्तिमान स्थापित किया | सौभाग्य से, दूरदर्शन से प्रथम संस्कृत-समाचार प्रसारण का सौभाग्य इन पंक्तियों के लेखक को मिला | कुछ वर्षों बाद दूरदर्शन का यह साप्ताहिक प्रसारण, प्रतिदिन पाँच मिनिट के लिए कर दिया गया |
              इसी काल-खण्ड में, एक और ऐतिहासिक घटना के कारण संस्कृत-पत्रकारिता की मन्द गति तीव्रतर बन गयी | संस्कृत के कुछ उत्साही युवा इन दशकों में संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने के लिए संगठनात्मक-रूप से सक्रिय थे और राष्ट्रव्यापी अभियान के तहत यह कार्य कर रहे थे | बंगलूरु में कार्यरत “हिन्दू-सेवा-प्रतिष्ठानम्” और अधुनातनरूप में,   “संस्कृत-भारती” तथा “लोकभाषा-प्रचार-समितिः” आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हों ने संस्कृत-पत्रकारिता के अधुनातन स्वरूप को व्यवस्थित और व्यापक बनाकर प्रत्येक संस्कृत-अनुरागी को आश्वस्त किया कि वह दिन दूर नहीं जब भारत का युवा नागरिक संस्कृत में धाराप्रवाह अपनी बात कह सकेगा | इस शृंखला में “संस्कृत-भारती” ने १९९९ ई. में बंगलूरू से मासिक-पत्रिका “सम्भाषण-सन्देशः” प्रकाशित करना आरम्भ किया | यह मासिक-पत्रिका अपनी साज-सज्जा, सरल भाषा और विषय-वैविध्य के कारण देश-विदेश में बहुत लोकप्रिय है |
                        इसी प्रकार से कुछ और पत्र-पत्रिकाएँ हैं – संवित् [ पाक्षिकं पत्रम् ], संस्कृत-बाल-संवादः [ मासिकं पत्रम् ], गीर्वाणी [ मासिकं पत्रम् ], महास्विनी [ षाण्मासिकं पत्रम् ], आरण्यकम् [ षाण्मासिकं पत्रम् ], संस्कृत-सम्मेलनम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], अर्वाचीन-संस्कृतम्      [ त्रैमासिकं पत्रम् ], आर्षज्योतिः [ मासिकं पत्रम् ], संस्कृत-प्रतिभा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-मञ्जरी [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-वार्त्ता [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-विमर्शः [ वार्षिकं पत्रम् ], अभिव्यक्ति-सौरभम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], अतुल्यभारतम् [ मासिकं पत्रम् ], संस्कृतवाणी [ पाक्षिकं पत्रम् ], संस्कृत-सम्वादः [ पाक्षिकं पत्रम् ], संस्कृत-रत्नाकरः [ मासिकं पत्रम्], दिशा-भारती [ त्रैमासिकं पत्रम् ], देव-सायुज्यम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-वर्तमानपत्रम् [ दैनिकं पत्रम् ], विश्वस्य वृत्तान्तम् [ दैनिकं पत्रम् ], संस्कृत-साम्प्रतम् [ मासिकं पत्रम् ], निःश्रेयसम् [षाण्मासिकं पत्रम् ], श्रुतसागरः [ मासिकं पत्रम् ], सेतुबन्धः [ मासिकं पत्रम् ], हितसाधिका [पाक्षिकी पत्रिका], दिव्यज्योतिः [ मासिकं पत्रम् ], रावणेश्वर-काननम् [ मासिकं पत्रम् ], रसना [ मासिकं पत्रम् ], दूर्वा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], नाट्यम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], सागरिका [ त्रैमासिकं पत्रम् ], ऋतम् [ द्विभाषिकं मासिकं पत्रम् ], स्रग्धरा [ मासिकं पत्रम् ], अमृतभाषा [ साप्ताहिकं पत्रम् ], प्रियवाक् [ द्वैमासिकं पत्रम् ], दिग्दर्शिनी [ त्रैमासिकं पत्रम् ], वसुन्धरा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-मन्दाकिनी [ षाण्मासिकं पत्रम् ], लोकप्रज्ञा [ वार्षिकं पत्रम् ], लोकभाषा-सुश्रीः [ मासिकं पत्रम् ], लोकसंस्कृतम् [त्रैमासिकं पत्रम् ], विश्वसंस्कृतम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], स्वरमङ्गला [ त्रैमासिकं पत्रम् ], भारती [ मासिकं पत्रम् ], रचना-विमर्शः [ त्रैमासिकं पत्रम् ], सरस्वती-सौरभम् [ मासिकं पत्रम् ] संस्कृतश्रीः [ मासिकं पत्रम् ], वाक् [ पाक्षिकं पत्रम् ], अजस्रा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], परिशीलनम्    [ त्रैमासिकं पत्रम् ], प्रभातम् [ दैनिकं पत्रम् ], व्रजगन्धा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संगमनी [ त्रैमासिकं पत्रम् ], विश्वभाषा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], भास्वती [ षाण्मासिकं पत्रम् ], कथासरित् [ षाण्मासिकं पत्रम् ], दृक् [ षाण्मासिकं पत्रम् ], वाकोवाकीयम्  [ षाण्मासिकं पत्रम् ], वैदिक-ज्योतिः [षाण्मासिकं पत्रम् ], अभिषेचनम् [षाण्मासिकं पत्रम्], अभ्युदयः [षाण्मासिकं पत्रम्]सत्यानन्दम् [ मासिकं पत्रम् ], संस्कृत-साहित्य-परिषत्-पत्रिका [ त्रैमासिकं पत्रम् ] आदि | इन्होंने संस्कृत-पत्रकारिता के क्षेत्र को अधिक सक्रिय बना दिया है | इसके अलावा संस्कृत की एक न्यूज-एजेन्सी है- News in Sanskrit [ News agency ] Hindustan Samachar | अभी-अभी सूचना मिली है कि पूर्वी दिल्ली से पिछले कुछ दिनों से “सृजन-वाणी” नाम का  दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र प्रकाशित किया जा रहा है | इन सब संस्कृत-पत्रकारों और संस्कृत-कर्मियों को हार्दिक अभिनन्दन और मंगलकामनाएँ !
                बहुत-सारी ई-पत्रिकाएँ हैं जिनमेंप्राची प्रज्ञा [मासिकी ई-पत्रिका ], जान्हवी [ त्रैमासिकी ई-पत्रिका ], संस्कृत-सर्जना [ त्रैमासिकी ई-पत्रिका ] और सम्प्रति वार्त्ताः [दैनिकं ई-पत्रम् ] आदि प्रमुख हैं |
              सुधी पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य भी होगा कि पिछले तीन साल से www.divyavanee.inके नाम से संस्कृत-भाषिक-कार्यक्रमों को प्रसारित करने वाला एक चौबीस घन्टे का online radio भी है जो कि पाण्डिचेरी से डॉ. सम्पदानंद मिश्र के नेतृत्व में चलाया जा रहा है | 
             राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान और श्रीलाल-बहादुर-शास्त्री-राष्ट्रिय-संस्कृत-विद्यापीठ-जैसे संस्थानों और विश्वविद्यालयों ने संस्कृत-पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों को आरम्भ कर दिया है | आशा की जा सकती है कि कुछ ही समय में इन संस्थानों से प्रशिक्षित हो कर संस्कृत के पूर्णकालिक पत्रकार सक्रिय हो जायेंगे |   
              पिछले दो वर्षों में केरल में चार लघु-चलचित्र संस्कृत-भाषा में बन कर दर्शकों को दिखाए जा चुके हैं | थिरुवनंतपुरम् से मलयालम-भाषिक दृश्यवाहिनी “जनम्” ने २०१५ ई. के २-ओक्टोबर से नियमितरूपसे प्रतिदिन १५-मिनिट्स के लिए संस्कृत-समाचारों का प्रसारण आरम्भ  किया है | इन सब तथ्यों के मद्देनज़र, पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि संस्कृत-पत्रकारिता का भविष्य सकारात्मक और उज्जवल है | 
(साभार
डॉ. बलदेवानन्द सागर
baldevanand.sagar@gmail.com)
9810 5622 77

शनिवार, 4 अगस्त 2018

ये तो अच्छी बात नहीं

छुप छुपकर पलकों को भिगोना, ये तो अच्छी बात नहीं
दिल की बातें दिल में छुपाना, ये  तो   अच्छी बात  नहीं |

तेरे    दरिया     होने   क्या,   राही    प्यासा    रह   जाए
आशिक  को  अपने  तडपाना, ये  तो  अच्छी  बात  नहीं |

जब  तक  सांसे  चलेंगी   मेरी, नाम  तेरा  लव  पर  होगा
तेरा   इतना   नखरे   दिखाना, ये   तो  अच्छी  बात  नहीं |

मान भी जाओ अब न सताओ, कहना  मेरा  मान  भी  लो
पास में  रहकर   दूर हो  जाना, ये   तो  अच्छी  बात  नहीं |

दिल की   बातें  दिल   ही    जाने  कितनी   चाहत है  मेरी
ख्वाबों    में  आना   फिर  जाना, ये  तो अच्छी  बात नहीं |

कौन   करेगा  इतनी  खिदमत, जितनी   तेरी   करता   हूँ 
फिर तेरा यह  तरसाना,   ये    तो    अच्छी    बात   नहीं  |

-डॉ.अरुण निषाद

गुरुवार, 29 मार्च 2018

अकबर का संस्कृत प्रेम

अकबर का संस्कृत प्रेम
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फारसी भाषा की तरह अकबर को अन्य भाषाओं से भी प्रेम था वह संस्कृत भाषा का भी बहुत बड़ा प्रेमी था उसने अपने दरबार में अनेक संस्कृत विद्वान रखें और उनसे उसने संस्कृत के ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद कराया वह बहुत ही अध्ययनशील व्यक्ति था।
सन १५८७-८८ ई. में अबुल फजल ने पंचतंत्र का "ऐयारेदानिश" नाम से फारसी भाषा में अनुवाद किया।
भास्कराचार्य द्वारा लिखित अंकगणित का फारसी अनुवाद है फैजी ने किया।
सिंहासन बत्तीसी का अनुवाद "नामये-खिरद अफजा" नाम से बदायूंनी ने किया।
बदायूंनी ने रामायण, महाभारत और अथर्ववेद का भी अनुवाद किया।

रविवार, 28 जनवरी 2018

अजन्तपुल्लिंगप्रकरण

अर्थवद् अधातुर अप्रत्यय: प्रातिपदिकम्   
(धातुं प्रत्ययं प्रत्ययान्तं च वर्जयित्वा अर्थवच्छब्दस्वरूपं प्रातिपदिकसंज्ञं स्यात् |)
अर्थात् वह अर्थवान् सार्थक शब्द जो न धातु हो, न प्रत्यय हो और न ही प्रत्यान्त हो, उसे प्रातिपदिक संज्ञा कहा जाता है |

कृत्ततद्धितसमासाश्च         
(कृत्तद्धितान्तौ समासाश्च तथा स्यु: )
कृत् अर्थात् धातु में जोड़े जाने वाले प्रत्यय (कृदन्त), शब्द में जोड़े जाने वाले प्रत्यय तद्धित (तद्धितान्त) और समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है |          

शनिवार, 27 जनवरी 2018

संज्ञा प्रकरण

अइउण्,ऋलृक् आदि ये चौदह सूत्र हैं, इसलिए इन्हें चतुर्दश सूत्र कहते हैं। इन सूत्रों से प्रत्याहार बनाए जाते हैं अतः इन्हें प्रत्याहार सूत्र भी कहते हैं। भगवान शिव के डमरू से निकलकर पाणिनि को प्राप्त हुए अतः इन्हें शिवसूत्र या माहेश्वरसूत्र भी कहते हैं। इन सूत्रों में संस्कृत की वर्णमाला है अतः इन्हें वर्ण समाम्नाय भी कहते हैं।
इन चतुर्दश सूत्रों का प्रयोजन अण्,अच् आदि प्रत्ययों की सिद्धि है।

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

संस्कृत साहित्य और स्त्री स्वतंत्रता

संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ
राधावल्लभ त्रिपाठी
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संस्कृत साहित्य की परंपरा पाँच हजार साल से अधिक पुरानी है। कविता और शास्त्र की विविध विधाओं में यह बहुत संपन्न साहित्य है। पर यह प्रायः पुरुषों के द्वारा और पुरुषों के लिए लिखा गया साहित्य है। इसके बावजूद इसमें स्वाधीन मन वाली, स्वाधीनता के लिए संघर्ष करती या पुरुष के वर्चस्व के आगे न झुकने वाली स्त्रियों की अनेक छवियाँ हैं। इसके दो कारण हैं। एक, जिस वैदिक समाज में इस साहित्य का उपक्रम हुआ उस समाज में मातृसत्ताक आदिम कबीलों का सातत्य बना हुआ था। दो, चिंतन और संवेदना के स्तर पर दार्शनिकों तथा कवियों ने स्त्री की गरिमा को पहचाना और उसकी स्वाधीनता का सम्मान किया।

किसी भी समाज में व्यक्ति की स्वाधीनता की पहचान निम्नलिखित कारकों से हो सकती है - एक, वह व्यक्ति अपनी सर्जनात्मकता, संकल्पों और अभीप्साओं को स्वयं की तथा समाज की बेहतरी के लिए स्वायत्त अभिव्यक्ति दे सके; दो, वह अन्य व्यक्तियों से वाद, विवाद और संवाद कर सके; तथा तीन, वह अपना योगक्षेम स्वयं वहन कर पाए।

ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में कतिपय स्त्रियों का ऋषि के रूप में उल्लेख है। स्त्री के ऋषि होने का अर्थ है कि वह मंत्रों का साक्षात्कार कर लेती है। हरिपद चक्रवर्ती (1981: 54) ने लोपामुद्रा, अपाला तथा घोषा को महिला ऋषि माना है। मांधात्री, अगस्त्य की अज्ञातनाम बहिन, वसुक्र की पत्नी, शाश्वती, गोधा विश्ववारा भी ऐसी ही महिला ऋषि हैं। मंत्रों की रचनाकार कवि के रूप में घोषा का उल्लेख ऋग्वेद (1.117.7, 10.40.5, 10.39.3.6) में आता है। घोषा राजा कक्षीवत की बेटी थी। अपाला तथा विश्ववारा आत्रेय वंश की थीं। ऋग्वेद के पंचम मंडल में आत्रेय ऋषियों के मंत्र हैं। अपाला तथा विश्वारा के भी मंत्र इनमें हैं। इन महिला ऋषियों में से कुछ ने तो पूरे पूरे सूक्त (बहुसंख्य मंत्रों का एक अध्याय) भी रचे।

मंत्रों का साक्षात्कार कर सकना या काव्य रच लेना - वैदिक काल में ऐसा कर्म है, जो स्वाधीनता की परम स्थिति को प्रकट करता है। जो स्त्री ऋषि के रूप में मंत्रद्रष्टा हो सकती है, वेद उसके लिए जन्मजात अधिकार बन जाता है। कौषीतकि ब्राह्मण में बताया गया है कि वेद में पारंगत स्त्रियों को पथ्यस्वस्ति वाक् की उपाधि से सम्मानित किया जाता था। वैदिक यज्ञों में, जहाँ यजमान के साथ उसकी पत्नी की सहभागिता अनिवार्य थी, सीतायज्ञ तथा रुद्रयज्ञ ये दो यज्ञ ऐसे बताए गए हैं, जिनका अनुष्ठान केवल स्त्रियों के द्वारा ही किया जा सकता था। स्त्री अपनी पुरोहित स्वयं है, और अपना कर्मकांड वह स्वयं ही करती है - यह स्थिति वैदिक समाज के भीतर भी मातृसत्ताक समाज की मौजूदगी साबित करती है।

यह कहना गलत होगा कि इन स्त्री ऋषियों का प्रेरणा के स्पंदित क्षणों में कुछ मंत्र रच लेना उनकी स्वाधीनता का लक्षण नहीं है। वस्तुतः मंत्रद्रष्टा स्त्री ऋषियों ने अपने कर्तृत्व व रचनाशीलता के द्वारा ऋषि के रूप में मान्यता हासिल की। ऋषि होने का अर्थ अपनी प्रज्ञा की सक्रियता से समाज में सार्थक हस्तक्षेप के लिए स्वाधीन होना भी है। जिन महिला ऋषियों का उल्लेख यहाँ किया गया है, उनमें से कुछ बाद में ब्रह्मवादिनी हो गईं। ब्रह्मवादिनी बुद्धिजीवी महिला है, जो वाद या खुली बहस में शिरकत कर सकती है, शास्त्र रच सकती है या धर्मोपदेश कर सकती है। पूर्ववैदिक काल में घोषा और इला इसी तरह की महिलाएँ थीं। उत्तर-वैदिक काल में जब उपनिषद रचे जा रहे थे, उस समय इनकी संख्या और बढ़ी होगी। काशकृत्स्ना मीमांसा दर्शन की आचार्य थी। उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी और सुवर्चला - ये महिलाएँ अपनी जीवनशैली स्वयं चुनती हैं। गार्गी ब्रह्मवादिनी है, वह अकेली याज्ञवल्क्य के सामने उस समय के बुद्धिजीवियों के कदाचित् सब से बड़े जमावड़े बहस में टिकी रहती है। मैत्रेयी घर-बार और अटूट संपदा का त्याग कर याज्ञवल्क्य के साथ जाने का निर्णय लेती है, कात्यायनी अपने पति को छोड़ कर भी इसी घर-बार और ऐश्वर्य में रमने का।

ऋग्वेद में ऐसी अनेक महिलाओं का उल्लेख है, जो पुरुषों के साथ सहज रूप में युद्ध में शरीक होती हैं। स्त्री का हथियार उठाना यहाँ उसका एक स्वैच्छिक कर्म है, इसमें न कोई अनहोनी बात है, न लड़ाई में शामिल होने के लिए उसे मजबूर ही किया गया है। ऋग्वेद में विश्पला का वर्णन आया है। विश्पला राजा खेल की रानी थी। वह अपने पति के साथ युद्ध में लड़ी, उसकी जंघा (घुटने के नीचे का अंग) कट गई। अश्विनी कुमारों ने, जो वैद्य होने के साथ सर्जरी में भी माहिर कहे गए हैं, उसके आयसी जंघा (घुटने में लगाने के लिए लोहे का बना पाँव) लगा दी। मुद्गल की पत्नी मुद्गलानी (इंद्रसेना) तीरंदाजी में माहिर थी। वह भी मुद्गल के साथ गाएँ चुरा कर ले जाते दस्युओं से भिड़ंत में धनुष-बाण ले कर मैदान में उतरी। वेदों के अंतर्गत पंचविंश ब्राह्मण में (25.13.3) रुशमा की कथा आती है। रुशमा कुरुक्षेत्र की रहने वाली थी, उसने इंद्र से युद्ध किया।

ऋग्वेद में ऐसी अनेक महिलाओं का भी वर्णन है, जो अपनी यौनिकता को सहज उन्मुक्त अभिव्यक्ति देती हैं। स्त्री के खुल कर दैहिक संसर्ग की कामना को पुरुष के आगे प्रकट करना उस समय बुरा भी नहीं माना गया। अगस्त्य ऋषि की महत्ता तो संस्कृत के वेदों और पुराणों में ही नहीं, तमिल साहित्य में वर्णित है। अगस्त्य उत्तर को दक्षिण से जोड़ने के अपने अभियान में या असुरों से संघर्ष में इतने व्यस्त रहते थे कि अपनी पत्नी लोपामुद्रा की ओर ध्यान देने का समय ही उनके पास न था। फिर वे बूढ़े भी हो गए थे। ऋग्वेद के पहले मंडल का 179वाँ सूक्त अगस्त्य और लोपामुद्रा का संवाद है। लोपामुद्रा कहती है कि काया बुढ़ा जाए, फिर भी एक पति को कामना करती हुई पत्नी के पास आना चाहिए। इस सूक्त में लोपामुद्रा देह की जिस भाषा में बोलती है, वह इतनी बेबाक है कि ऋग्वेद का अँग्रेजी में अनुवाद करने वाले यूरोप के संस्कृत विद्वान ग्रिफिथ साहब को इस सूक्त के कतिपय मंत्रों का अँग्रेजी उल्था करने में शर्म लगी, तो उन्होंने इन मंत्रों का लैटिन में अनुवाद कर दिया, और जिन मंत्रों में उन्हें शर्म नहीं लगी, उनका अंग्रेजी में करते गए। अंग्रेजी में क्रिश्चियनिटी की बदौलत जो पापबोध आ मिला है, उसके कारण वहाँ देह को ले कर पाखंड से भरी शर्म और झिझक हो सकती है, संस्कृत और लैटिन की अपनी परंपरा में शर्म का यह पाखंड नहीं है। इस पाखंड से मुक्त होने की वजह से ऋग्वेद के ऋषि वाणी की भव्यता का वर्णन करते हुए यह कह सके - ʻजानकार व्यक्ति के सामने वाणी अपनी काया को ऐसे ही अर्पित कर देती है, जैसे कामना से भरी पत्नी अपनी देह को अपने पुरुष के आगे।ʼ यहाँ पत्नी के लिए विशेषण ʻउशतीʼ है, जिसका उन आधुनिक भाषाओं में अनुवाद थोड़ा मुश्किल है, जिन्हें बोलने वालों ने पाखंडमयी लज्जा का लबादा ओढ़ लिया है। इंद्र की पत्नी इंद्राणी के वर्णन भी वेदों में एक प्रखर अभिव्यक्ति वाली महिला के रूप में हैं। कामसूत्रकार वात्स्यायन तो इंद्राणी का अपने शास्त्र की एक आद्य प्रवक्त्री के रूप में स्मरण करते हैं।

संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त गृहिणी और दंपती जैसे शब्द घर पर स्त्री के स्वामित्व के बोधक रहे हैं। मातृसत्ताक समाजों में स्त्री अपने घर की मालकिन है, घर का प्रबंध वही करती है, कमाई भी वह अपने पास रखती है। अपना पुरुष या पति चुन कर उसे अपने घर ला कर रखने का अधिकार भी वह रखती है। वेदों और उपनिषदों के समय तक किसी लड़की के द्वारा अपना पति स्वयं चुनना एक सहज बात बनी हुई है। इसीलिए उपनिषदों की सुवर्चला जब अपने पिता से कहती है कि वह जाँच-परख कर अपने लिए अपना पति स्वयं चुनेगी, तो पिता उसे इसके लिए बिना ननुनच के छूट देते हैं। सुवर्चला अपने चयन का मानक भी स्वयं बनाती है - जो युवक उसके सामने अपने आप को उसकी बराबरी का ब्रह्मज्ञानी या बुद्धिजीवी साबित कर देगा, वह उससे विवाह करेगी। श्वेतकेतु जैसा तेजस्वी युवा चिंतक उसकी कसौटी पर खरा साबित होता है, सुवर्चला उसे पसंद कर के उसे ब्याह लेती है। सावित्री के पिता अश्वपति अपनी बेटी के गुणों के कुछ ऐसे कायल थे कि उन्हें लगा वे उसके लायक लड़का नहीं ढूँढ़ सकेंगे। उन्होंने सावित्री के लिए यात्रा करने की व्यवस्था कर के उसे रवाना कर दिया कि वह दुनिया भर में घूम कर देख-भाल कर अपने लिए लड़का चुन ले। सावित्री ने अपनी इस वरण की स्वतंत्रता का सही-सही उपयोग किया। पर सारे पिता सुवर्चला और सावित्री के पिताओं जैसे उदार और समझदार नहीं होते। ऐसे हद दर्जे के गँवार पिता भी हमारे समाज में रहे हैं कि लड़की कायदे का लड़का अपने लिए जान-परख कर उससे विवाह कर ले तो वे वरवधू दोनों की बनी-बनाई दुनिया को नेस्तनाबूद करने के लिए कमर कस लें।

दूल्हे को वर कहा जाता था। वर का अर्थ ʻचुना गयाʼ भी होता है और ʻचुनने वालाʼ भी। पर मेरी समझ से मूल अर्थ ʻचुना गयाʼ ही होगा, क्योंकि लड़की अपना लड़का चुनती थी। मजे की बात यह है कि वर का स्त्रीलिंग संस्कृत में नहीं बनता, क्योंकि लड़की चुनने वाली है, चुनी जाने वाली नहीं। लड़की के लिए स्वयंवरा (स्वयं वरण करने वाली) या पतिंवरा शब्द हैं। आगे चल कर लड़की के लिए वरण की अपनी स्वतंत्रता को स्वयंवर के रूप में एक औपचारिक जश्न बना दिया गया। स्वयंवर में मूलतः तो चुनने की स्वतंत्रता लड़की के पास ही है, विवाहार्थी पुरुषों को उसके आगे नुमाइश की तरह पेश होना है, और उसके द्वारा खारिज किए जाने पर आपत्ति दर्ज कराने का उन्हें अधिकार नहीं है। महाभारत में दमयंती या कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में इंदुमती के स्वयंवर इसी तरह के हैं।

स्त्री स्वाधीन मन के साथ ही जन्म लेती है। पुरुष या समाज उसकी स्वाधीनता को अक्षुण्ण रहने दे - यह भी संभव है; और जैसा होता रहा है, यह भी कि अपनी वर्जनाओं, पाबंदियों और जड़ नैतिक मान्यताओं के तहत उसकी स्वाधीनता का वह हनन करता जाए। संस्कृत साहित्य में स्त्री की स्वाधीनता और स्वाधीनता के हनन की सभी स्थितियों के अक्स हैं। इस दृष्टि से तीन तरह की स्त्रियाँ संस्कृत साहित्य में देखी जा सकती हैं - एक तो वे जिन्होंने स्वाधीनता को एक मूल्य की तरह आत्मसात कर के उसे अपने जीवन में चरितार्थ किया; दूसरी वे जिन्हें इस मूल्य को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा और उसकी कीमत चुकानी पड़ी; तीसरी वे जिनके लिए स्वाधीनता एक सपना बन कर रह गया। यदि वाल्मीकि की रामायण से तीनों के उदाहरण देना हो, तो पहले का उदाहरण कैकेयी, दूसरे का सीता, तारा, मंदोदरी और अहल्या; तथा तीसरे का उदाहरण कौसल्या, सुमित्रा आदि बहुसंख्य नारियाँ हैं।

कैकेयी के जैसी स्वाधीन मन वाली तथा स्वाधीनता के मूल्य को सत्यापित करने वाली स्त्री रामायण में तो दूसरी नहीं है। वाल्मीकि ने जितनी रामायण की कथा बताई है, उसी को ध्यान में रखें, तब इस कथन की सचाई समझी जा सकेगी। कैकेयी विश्पला, मुद्गलानी, रुशमा आदि वैदिक काल की नारियों की तरह युद्ध के मैदान में दशरथ के साथ उतरी थी। वाल्मीकि के अनुसार युद्ध में दशरथ घायल हो कर मरणासन्न हो गए, तो कैकेयी उनके प्राण बचाने के लिए उन्हें युद्धभूमि से उठा लाई। दशरथ इस बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कैकेयी से दो वर माँगने के लिए कहा। कैकेयी ने कई साल बाद राम के ऐन राज्याभिषेक की तैयारी के मौके पर ये वर माँगे - इसमें न चालाकी है, न मौकापरस्ती; यह दशरथ को उनकी ऐतिहासिक भूल के लिए दिया गया दंड अवश्य है। वाल्मीकि बताते हैं कि दशरथ ने कैकेयी के साथ विवाह राज्यशुल्क देकर किया था, अर्थात उन्होंने कैकेयी के पिता को वचन दिया था कि उनकी लड़की से यदि लड़का होगा, तो अयोध्या का राजपद उसी को दिया जाएगा। इस बात को कैकेयी जानती थी, इस बात को राम भी उस समय जानते थे जब उनके राज्याभिषेक के लिए तैयारियाँ की जा रही थीं। तभी तो वे कैकेयी के वर की बात पता चलते ही वन जाने के लिए इस तरह तैयार हुए जैसे मन से एक बोझ हट गया हो। दशरथ के मन में राम के लिए मोह था, वे कैकेयराज को दिए वचन पर सुविधा के साथ लीपापोती कर सकते थे, और उन्होंने राम को समझा-बुझा कर राजपद स्वीकार कर लेने की साजिश में शामिल भी कर लिया था।

अहल्या ने इंद्र से प्रेम किया था। योगवासिष्ठ वेदांत का ग्रंथ होते हुए भी इंद्र और अहल्या के प्रेम के अपार आनंद का रोमांचक वर्णन करता है। एक समय अहल्या और इंद्र के प्रेम की कहानी एक लोककथा बन गई होगी, क्योंकि दक्षिण के मंदिरों में अहल्या और इंद्र के प्रेमनिरत युगल अंकित हैं। अहल्या को गौतम ने छोड़ दिया, और वह वर्षों अकेली रही। राम जब दंडकारण्य जा रहे थे, तो वे अहल्या से मिले, उसे माँ कह कर पुकारा और उसे प्रणाम किया। फिर उन्होंने गौतम ऋषि को भी समझा-बुझा कर अहल्या को फिर से स्वीकार कर लेने का अनुरोध किया। वाल्मीकि की इस कथा में अहल्या सचमुच का पत्थर नहीं बनती, न ʻछुअत सिला भइ नारिʼ की ही कोई बात है।

रामायण की सीता, तारा और मंदोदरी और महाभारत की द्रौपदी अपने पतियों से वाद, विवाद और संवाद करती हैं। सीता राम के साथ वन जाने की जिद करती हुई कहती हैं - ʻमैं तुम्हारे रास्ते के कुशकाँटे रौंदती हुई आगे आगे चलूँगी (अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान्)।ʼ अपहरण करते रावण से वह जूझती है। अशोकवाटिका में अकेली उसे चुनौती देते हुए वह कहती है - ʻअरे दुर्मति, तू गीदड़ है, जो मुझ सिंहिनी की कामना कर रहा है (त्वं पुनर्जम्बुकः सिंहीं मामिहेच्छसि दुर्मते)।ʼ रावण उसके सामने सहमता है। रावणवध के बाद राम सीता को सामने देख कर आपे से बाहर हो कर कुछ का कुछ बोलने लगते हैं, सीता तब भी उनसे वाद और संवाद करती है। द्रौपदी का एक पति जुआ खेल कर अपने भाइयों के साथ गुलाम बन चुका है, द्रौपदी अपने बुद्धिवैभव से उन्हें गुलामी से निजात दिलाती है, पर उनकी मानसिक गुलामी का वह क्या करती?

सीता के तेज से रावण घबराता है, राम उसके आगे निरुत्तर रहते हैं; द्रौपदी के एक सवाल के सामने महावीर भीष्म परेशान और पसीने पसीने हो जाते हैं। कौन अधिक स्वाधीन है - सीता या राम और रावण? द्रौपदी या भीष्म और युधिष्ठिर?

मंदोदरी रावण को सलाह देती रही है कि वह सीता को राम को लौटा कर उनसे संधि कर ले। पर युद्ध में अपने सारे भाई-बंधुओं के मारे जाने पर पूरी तरह से हताश रावण जब उसके पास सलाह माँगते हुए पूछता है कि क्या अब राम से संधि कर लूँ और सीता को लौटा दूँ, तो वही मंदोदरी हनुमन्नाटक में रावण से कहती है - अब क्या संधि करना? और दशानन, अब यदि तुम लड़ने से डर रहे हो, तो मैं तलवार उठा कर युद्ध में कूदने के लिए तैयार हूँ।ʼ ये संस्कृत साहित्य की मनस्विनी नारियाँ हैं, भक्तिकाल की वे भक्तिनें नहीं तो बार-बार हाथ जोड़ कर या पैर पड़ कर पति से कहें कि ʻबिनती बहुत करों का स्वामीʼ

महाभारत की शकुंतला को विवाह कर के भी दुष्यंत ने पहचानने से इनकार किया तो दोनों के बीच जम कर झड़प हुई। शकुंतला अंत में यह कह कर चल दी, मैं अपने बेटे को इतना बड़ा वीर बनाऊँगी कि यह अपने बूते पर तुझसे आर्यावर्त का राज्य ले लेगा।

कालिदास की जिस शकुंतला को उन्नीसवीं सदी के फ्रेंच आपेरा में नारी की मुक्ति के प्रतीक के रूप में उद्धृत किया गया, उसमें महाभारत वाली शकुंतला की आँच नहीं है। बाद के संस्कृत साहित्य में स्त्री का तेज मंद होता गया है, स्वाधीन स्त्रियाँ कम होती गईं हैं। पर स्त्री की स्वाधीनता का सपना बाण, शीला भट्टारिका और भवभूति जैसे कवियों में जागता दिखता है। बाणभट्ट की महाश्वेता और कांदबरी तो उस जादुई यथार्थ का हिस्सा लगती हैं, जो पुरुषतंत्र के परे है। भवभूति के नाटकों की दुनिया में एक लड़की आत्रेयी है, जो प्रयाग के पास वाल्मीकि के तपोवन से चलती चलती दंडकारण्य में अकेली वेदांत पढ़ने के लिए दूसरे तपोवन में जा रही है। वासंती है, जो सीता पर राम के द्वारा किए गए अत्याचार को ले कर उनसे कड़ी बहस करती है, एक महिला कामंदकी है, जो अपने गुरुकुल में वह शास्त्र (आन्वीक्षिकी) पढ़ाती है, जिस पर पुरुषों का एकाधिकार माना जाता रहा है। मालती है, जो पिता का घर छोड़ कर माधव से विवाह करती है।

वेदों में इंद्र को अहल्याजार (अहल्या का यार) कहा गया। पिछले दो हजार सालों में संस्कृत में रचित काव्यों में स्त्री के जारज संबंधों के रोमांचक वर्णन किए जाते रहे, विज्जिका और शीलाभट्टारिका जैसी महिला कवियों के द्वारा भी और अन्य कवियों के द्वारा भी। ये संबंध पुरुषों के आधिपत्य और वर्जनाओं के संसार को छिन्न-भिन्न करने वाले ओपन सीक्रेट थे।

1975 के आसपास उज्जैन के कालिदास समारोह में महादेवी वर्मा का व्याख्यान सुनने को मिला। महादेवी की कविता जितना कोमल, करुणामय और रहस्यमय लगी, मंच पर उतने ही बेबाक और दबंग स्वर में उन्हें बोलते देखा और सुना। अपनी संस्कृत के अध्ययन को ले कर उन्होने बताया कि उनकी वेद पढ़ने की बड़ी लालसा थी, पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वेद के गुरुजी को यह मान्य नहीं था कि कोई लड़की या महिला वेद का अध्ययन करे, लिहाजा उनका संस्कृत का अध्ययन जारी नहीं रह पाया।

विश्पला और रुशमा जैसी योद्धा नारियों या अपाला और गार्गी जैसी मंत्र रचने वाली या वेदज्ञ स्त्रियों के देश में स्त्री को वेद पढ़ने का निषेध करने की स्थिति क्यों और कैसे आई - यह अलग से विचार का विषय है।

-प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी
(साभार हिन्दी समय)