डॉ॰बलदेवानन्द सागर के साथ अनौपचारिक बातचीत
[डॉ॰ अरुणकुमार निषाद के प्रश्न]
प्रश्न-[१] सर्वप्रथम आप अपने बारे में बतायें ? बहुत सारे ऐसे तथ्य होंगे जो अभी तक आपके पाठकों/श्रोताओं को ज्ञात नहीं होंगे ?
उत्तर-[१] इस बात से मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मेरा कुटुम्ब [गुजरात, जि-भावनगर, जन्मगाँव-चमारडी] शांकर-परम्पराओं से जुड़ा है और मेरे कुलगुरु पूज्य तपोमूर्त्ति स्वामी शिवोsहं सागर जी महाराज से दीक्षा पाकर उनकी अनुकम्पा से संस्कृत पढ़ने के लिए काशी पहुँच पाया और बहुत सारे ऐसे तथ्य हैं जो समय आने पर अपने सुधी पाठकों/श्रोताओं को अवश्य बतलाऊंगा |
प्रश्न-[२] आपके सृजन का परिवेश क्या है ?
उत्तर-[२] काशी मेँ [गदौलिया,मिश्र-पोखरा] श्रीदक्षिणामूर्त्ति संस्कृत महाविद्यालय मेँ १९६५ मेँ प्रथमा परीक्षा से आरम्भ हुयी मेरी संस्कृत-साधना की यह यात्रा बाबा विश्वनाथ की करुणा, भगवती गंगा के दुलार, सद्गुरु भगवान् के अनुग्रह और माता-पिता के आशीर्वाद से धीरे-धीरे आगे बढ़ती चली | इन्हीं दिनों मेहसूस होता रहा कि अन्दर से कोई प्रेरित कर रहा है कि मैं कविता और गीत लिखने के लिए कागज़ और कलम के साथ भी गहरी दोस्ती रक्खूँ | यह परिवेश दिल्ली [१९७२-७३] आने पर बदल गया और कुछ समय तक तो कुछ भी नहीं लिख पाया, शायद महानगर मेँ अपने अस्त्तित्व-रक्षण [survive] के संघर्ष के कारण !
प्रश्न-[३] आप अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?
उत्तर-[३] आकाशवाणी-दूरदर्शन से संस्कृत-समाचारों के प्रसारण, अनुवाद और सम्पादन का काम तो आजीविका का दायित्व था किन्तु इसके साथ-साथ संस्कृत-कविता और संस्कृत-रंगकर्म का जुनून तो आत्म-सन्तोष के लिए था, अब भी है और जीवन-पर्यन्त रहेगा | गद्य-पद्य विधा द्वारा जो सहजरूप से सर्जित कर पाता हूँ, कर रहा हूँ | समाज जो सन्देश लेना चाहे, उनका आभार !
प्रश्न-[४] आज के आधुनिक संस्कृत-साहित्य के लेखकों और कवियों में आप किसकी रचना बार-बार पढ़ना पसन्द करेंगे और क्यों? उत्तर-[४] बहुत-सारे कवि-लेखकों को पढ़ता हूँ | कुछेक का नाम गिनाऊँ तो जिनका नाम नहीं दिया उनके साथ अन्याय होगा | रचना जो सहज-सरल हो और पढ़ते-सुनते ही दिल को छू जाय | ऐसी रचना के सन्दर्भ मेँ पण्डितराज जगन्नाथ का ये श्लोक याद आ रहा है जिसमें उन्हों रचना [कविता] कैसी होनी चाहिए, इस बात का उल्लेख किया है –
नान्ध्री-पयोधर इवातितरां प्रकाशः,
नो गुर्जरी-स्तन इवातितरां निगूढः |
अर्थो गिरामपिहितः पिहितश्च शश्वत्,
सौभाग्यमेति मरहठ्ठ-वधू-कुचाभः ||
प्रश्न- [५] आप आजकल के संस्कृत के युवा लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?
उत्तर-[५] आजकल के संस्कृत के युवा लेखक, कवि और साहित्यकार बहुत जागरूक, युगबोधक, युगप्रबोधक और युगशोधक हैं | जितनी भी सारस्वत-साधना करेंगे, उतनी ही उनकी रचना प्रभावी और चिरस्थायिनी होगी |
प्रश्न-[६] कहा जाता है कि रचनाकार की रचनाओं के पीछे कोई-न-कोई अमूर्त्त प्रेरणा अवश्य होती है | आपको प्रेरणा कहाँ से मिलती रही है?
उत्तर-[६] ये सच है कि प्रत्येक रचनाकार की रचनाओं के पीछे कोई-न-कोई अमूर्त्त प्रेरणा अवश्य होती है | मैं तो मेहसूस करता रहा हूँ और अब समय के साथ और भी तीव्रता से अनुभव कर रहा हूँ कि संस्कृत-विद्या ही मुख्यरूप से मेरी प्रेरणा है |
प्रश्न-[७] कुछ ऐसे भी आपके काव्य-सखा होंगे जो निरन्तर आपको रचना के लिए प्रोत्साहित करते होंगे और उन्हें आप अपनी रचना सुनाते होंगे | कृपया बतलाएँ |
उत्तर-[७] इस सर्जन यात्रा के आरम्भ के दिनों में ऐसा कुछ क्रम रहा और साथी-मित्रों को अपनी रचना सुनाते रहे | उनसे प्रेरणा लेते रहे किन्तु अब तो मेरी अर्द्धांगिनी ही, जो स्वयं सिन्धी भाषा की प्रतिष्ठित लेखिका-कवियित्री है, इस दायित्व को निभा रही है | प्रश्न-[८] अपने देश में कला के नाम पर उत्तरोत्तर बढ़ती अश्लीलता और आयातित संस्कृति को आप किस नजरिए से देखते हैं?
उत्तर-[८] सूचना क्रान्ति के इस युग में अश्लीलता और आयातित संस्कृति के विभिन्न पक्षों को समझकर साहित्य के मानकों की पुनर्व्याख्या करना बहुत ज़रूरी है | हमारा देश तो अनादि काल से ही ‘सत्य, शिव और सुन्दर’ को ही साहित्य का परम लक्ष्य मानता आया है |
प्रश्न-[९] आपकी स्वयं की प्रक्रिया क्या है ? ग़ज़लें या कविता आप एक बैठक में लिख लेते हैं अथवा संस्कार और परिष्कार अनेक बैठकों तक चलता है?
उत्तर-[९] सभी सर्जकों की अपनी-अपनी रचना-प्रक्रिया अपनी मौलिक अदा-वाली होती है | कोई सहज, कोई शीघ्रता से तो कोई धीरे-धीरे रचना-प्रक्रिया को सुविधाजनक मानता है | इस पङ्क्ति में मेरा स्थान सबसे अन्त में है | मेरी संस्कार और परिष्कार की प्रक्रिया रचना-सर्जन के बाद भी चलती रहती है |
प्रश्न-[१०] क्या आप समकालीन संस्कृत-साहित्य की रचनाओं से सन्तुष्ट हैं? यदि नहीं तो आप आज के संस्कृत-रचनाकारों से क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?
उत्तर-[१०] ‘समकालीन संस्कृत-साहित्य की रचनाओं से सन्तुष्ट हूँ’ – ऐसा तो तभी कह सकता हूँ जब मैं सभी रचनाओं को पढ़ पाऊँ | फिर भी, कुछ समीक्षाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि संस्कृत की समकालीन साहित्य की रचनाएँ बहुरंगी और बहुआयामी हैं | और तो क्या ? संस्कृत-रचनाकारों से यही अपेक्षा है कि “शास्त्रं सुनिश्चल-धिया परिचिन्तनीयम् |”
प्रश्न-[११] कविता की नई पीढ़ी के प्रति कितना आशावान् हैं ?
उत्तर-[११] बहुत अधिक ! उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास ही भारतीय जीवन पद्धति का बीजमन्त्र है | नई पीढ़ी के रचनाकार स्वयंचेता और उदार हैं – यह एक शुभ संकेत है | प्रश्न-[१२] आज नए रचनाकारों को अनेक स्तरों पर प्रोत्साहन मिल रहा है ? इस सुविधा को किस रूप में देखते हैं ?
उत्तर-[१२] जब ऐसा नहीं होता था तो “पुराणमित्येव न साधु सर्वम्” –[कालिदास] अथवा तो “उत्पत्स्यते मम कोsपि समानधर्मा” –[भवभूति] कहना पड़ा था | रचनाकारों और कवियों को जितना भी सम्मान और प्रोत्साहन दिया जाय, कम है |
प्रश्न-[१३] लेखन विरासत में मिला था या संयोग था कलम थामना ?
उत्तर-[१३] पिता जी सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ गुरुपरम्परा की गुजराती मासिक पत्रिका ‘वेद-रहस्य’ के संस्थापक-सम्पादक रहें | गुरुपरम्परा और कुलपरम्परा का ही अनुग्रह है |
प्रश्न-[१४] आपके अन्दर लिखने-पढ़ने के संस्कार कैसे पैदा हुए ?
उत्तर-[१४] पाँच भाइयों में सबसे छोटा होने के कारण परिवार में ही लिखने-पढ़ने के संस्कार मिलें लेकिन संस्कृत-विद्या के संस्कार तो गुरुकृपा से ही मिले हैं |
प्रश्न-[१५] अधिकांश रचनाकार सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं ? क्या इससे साहित्य समृद्ध हो रहा है ?
उत्तर-[१५] सोशल मीडिया की अपनी अलग तरह की कशिश है | अब, इक्कीसवीं सदी में इस सामाजिक सञ्चार माध्यम का अपना विशिष्ट महत्त्व है | इसकी परिधि बहुत व्यापक और पहुँच बहुत सुगम है | इससे साहित्य कितना समृद्ध होगा – ये तो समय ही बताएगा |
प्रश्न-[१६] आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं?
उत्तर-[१६] भगवान् भाष्यकार आदिशंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, व्यास, भास, कालिदास और बहुत सारे हिन्दी-अंग्रेजी के आधुनिक लेखक-कवि |
प्रश्न-[१७] व्यस्त शेड्यूल में रचना करने के लिए किस तरह समय निकालते हैं?
उत्तर-[१७] इस अनौपचारिक बातचीत के उत्तर-[२] में जैसा कि मैं ने कहा – परिवेश अनुकूल न हो तो रचनाधर्मिता मन्द हो जाती है | समय-प्रबन्धन आज की जीवन शैली का अनिवार्य अंग है|अब तो प्राथमिकता के आधार पर ही समय निकाल पाते हैं |
प्रश्न-[१८] आप कविता-गेयता को कविता का अनिवार्य अंग मानते हैं या नहीं ?
उत्तर-[१८] कविता को लय-स्वर के साथ प्रस्तुत करने से एक स्फूर्त आनन्द की अनुभूति कवि को और सहृदय श्रोता को भी होती ही है | वैसे अतुकान्त कविता या गद्य को भी लय के साथ प्रस्तुत करने का अपना एक अलग ही आनन्द होता है | यही प्रक्रिया भरत-नाट्यशास्त्र में संवाद-शैली की गंगोत्री है |
प्रश्न-[१९] आप अपने आप को कवि मानते हैं या गद्यकार ?
उत्तर-[१९] दोनों ही नहीं ! अभी तो प्रशिशिक्षु हूँ | प्रश्न-[२०] रचनाकार का अपनी जड़ों से जुड़े रहना जरूरी है ? आप क्या कहते हैं?
उत्तर-[२०] अपनी जड़ों से जुड़े रहना, व्यष्टि और समष्टि – दोनों के लिए बहुत ज़रूरी है |
प्रश्न-[२१] साहित्य सृजन के अलावा आपकी अन्य रुचियाँ क्या हैं?
उत्तर-[२१] पठन-पाठन और संगीत-श्रवण | प्रश्न-[२२] वह रचना जिसने आपको एक रचनाकार के रूप में स्थापित किया ?
उत्तर-[२२] अभी उस कृति का सर्जन बाकी है |
प्रश्न-[२३] आपकी पहली रचना कब और कहाँ से प्रकाशित हुई ?
उत्तर-[२३] पूर्व-मध्यमा के प्रथम वर्ष में [१९६७] “पण्डिताष्टकम्”, जो कि परम श्रद्धेय पं॰ रामबालक शास्त्री जी के साप्ताहिक-पत्र “गाण्डीवम्” में प्रकाशित हुयी |
प्रश्न-[२४] संस्कृत एक मृत भाषा है- प्रायः लोग कहते हैं, उनके लिए क्या सन्देश है?
उत्तर-[२४] मृत नहीं, अमृत है | संस्कृत सिर्फ भाषा ही नहीं, ध्वनिविज्ञान भी है | इसकी महफिल में आके तो देखो, फिर ‘शिवोsहं-शिवोsहं’ के सिवा और कुछ नज़र ही नहीं आयेगा |
प्रश्न-[२५] आज संस्कृत के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां हैं? उनके समाधान के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं?
उत्तर-[२५] व्यावहारिक धरातल पर तो अनेक चुनौतियाँ हैं | संस्कृत-परम्परा के लोगों को सम्मानजनक आजीविका मिलें और संस्कृत-समाज के लोग दैनिक जीवन में, बोलचाल में संस्कृत का अधिकाधिक प्रयोग करें | अध्यापक भी कक्षा में संस्कृत-माध्यम से बच्चों को पढ़ाएँ |
प्रश्न-[२६] विदेशों में संस्कृत की क्या स्थति है ? कहाँ-कहाँ कार्य हो रहे हैं?
उत्तर-[२६] विदेशों में संस्कृत की स्थिति अच्छी है | १३० से अधिक देशों में संस्कृत पढ़ायी जाती हैं |
प्रश्न-[२७] आप अपने शिष्यों से क्या आशा करते हैं?
उत्तर-[२७] मेरे शिष्य कम और सहाध्यायी-सहकर्मी मित्र ज़्यादा हैं | सब खूब रचनात्मक कार्यों को करते हुए ऋषि-ऋण से उऋण होने का प्रयास करें | प्रश्न-[२८] अभी तक आपने कुल कितनी भाषाओं में रचनाएँ की हैं ?
उत्तर-[२८] संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती [मातृभाषा] – इन चार भाषाओं में कार्य करता हूँ | प्रश्न-[२९] आज क्या कुछ नया लिख रहे हैं?
उत्तर-[२९] ‘पाणिनि और भाषाविज्ञान’ पर शोध आलेख तैयार कर रहा हूँ | प्रश्न-[३०] लेखन क्षेत्र में शार्ट-कट् को किस नज़रिये से देखते हैं ?
उत्तर-[३०] न सिर्फ लेखन, किसी भी विधा में शार्ट-कट् ठीक नहीं है | प्रश्न-[३१] आपके द्वारा लिखी गई अब तक की सबसे अच्छी रचना ?
उत्तर-[३१] पहली रचना ‘वीरः समीरोपमः’ |
प्रश्न-[३२] आप संस्कृत के उत्थान के लिए युवावर्ग को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?
उत्तर-[३२] संस्कृत के उत्थान की बात नहीं है | संस्कृत तो सदा-सर्वदा प्रतिष्ठित और प्राणवन्त है | युवा अपने आत्म-सम्मान के लिए, अपनी सच्ची पहचान के लिए संस्कृत को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनाएं और दैनिक व्यवहार में भी इसका प्रयोग करें | प्रश्न-[३३] यदि आप संस्कृत नहीं पढ़ते तो क्या करते ?
उत्तर-[३३] शायद अधिवक्ता बनता !
प्रश्न-[३४] संस्कृत के पाठ्यक्रमों एवं परीक्षा प्रणाली में क्या-क्या सुधार किये जायें ?
उत्तर-[३४] संस्कृत के पाठ्यक्रम एवं परीक्षा प्रणाली को ज़्यादा से ज़्यादा सरल और व्यावहारिक बनाने से सभी के लिए लाभदायक सिद्ध होंगे |
- डॉ. बलदेवानन्द सागर
[डॉ॰ अरुणकुमार निषाद के प्रश्न]
प्रश्न-[१] सर्वप्रथम आप अपने बारे में बतायें ? बहुत सारे ऐसे तथ्य होंगे जो अभी तक आपके पाठकों/श्रोताओं को ज्ञात नहीं होंगे ?
उत्तर-[१] इस बात से मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मेरा कुटुम्ब [गुजरात, जि-भावनगर, जन्मगाँव-चमारडी] शांकर-परम्पराओं से जुड़ा है और मेरे कुलगुरु पूज्य तपोमूर्त्ति स्वामी शिवोsहं सागर जी महाराज से दीक्षा पाकर उनकी अनुकम्पा से संस्कृत पढ़ने के लिए काशी पहुँच पाया और बहुत सारे ऐसे तथ्य हैं जो समय आने पर अपने सुधी पाठकों/श्रोताओं को अवश्य बतलाऊंगा |
प्रश्न-[२] आपके सृजन का परिवेश क्या है ?
उत्तर-[२] काशी मेँ [गदौलिया,मिश्र-पोखरा] श्रीदक्षिणामूर्त्ति संस्कृत महाविद्यालय मेँ १९६५ मेँ प्रथमा परीक्षा से आरम्भ हुयी मेरी संस्कृत-साधना की यह यात्रा बाबा विश्वनाथ की करुणा, भगवती गंगा के दुलार, सद्गुरु भगवान् के अनुग्रह और माता-पिता के आशीर्वाद से धीरे-धीरे आगे बढ़ती चली | इन्हीं दिनों मेहसूस होता रहा कि अन्दर से कोई प्रेरित कर रहा है कि मैं कविता और गीत लिखने के लिए कागज़ और कलम के साथ भी गहरी दोस्ती रक्खूँ | यह परिवेश दिल्ली [१९७२-७३] आने पर बदल गया और कुछ समय तक तो कुछ भी नहीं लिख पाया, शायद महानगर मेँ अपने अस्त्तित्व-रक्षण [survive] के संघर्ष के कारण !
प्रश्न-[३] आप अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?
उत्तर-[३] आकाशवाणी-दूरदर्शन से संस्कृत-समाचारों के प्रसारण, अनुवाद और सम्पादन का काम तो आजीविका का दायित्व था किन्तु इसके साथ-साथ संस्कृत-कविता और संस्कृत-रंगकर्म का जुनून तो आत्म-सन्तोष के लिए था, अब भी है और जीवन-पर्यन्त रहेगा | गद्य-पद्य विधा द्वारा जो सहजरूप से सर्जित कर पाता हूँ, कर रहा हूँ | समाज जो सन्देश लेना चाहे, उनका आभार !
प्रश्न-[४] आज के आधुनिक संस्कृत-साहित्य के लेखकों और कवियों में आप किसकी रचना बार-बार पढ़ना पसन्द करेंगे और क्यों? उत्तर-[४] बहुत-सारे कवि-लेखकों को पढ़ता हूँ | कुछेक का नाम गिनाऊँ तो जिनका नाम नहीं दिया उनके साथ अन्याय होगा | रचना जो सहज-सरल हो और पढ़ते-सुनते ही दिल को छू जाय | ऐसी रचना के सन्दर्भ मेँ पण्डितराज जगन्नाथ का ये श्लोक याद आ रहा है जिसमें उन्हों रचना [कविता] कैसी होनी चाहिए, इस बात का उल्लेख किया है –
नान्ध्री-पयोधर इवातितरां प्रकाशः,
नो गुर्जरी-स्तन इवातितरां निगूढः |
अर्थो गिरामपिहितः पिहितश्च शश्वत्,
सौभाग्यमेति मरहठ्ठ-वधू-कुचाभः ||
प्रश्न- [५] आप आजकल के संस्कृत के युवा लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?
उत्तर-[५] आजकल के संस्कृत के युवा लेखक, कवि और साहित्यकार बहुत जागरूक, युगबोधक, युगप्रबोधक और युगशोधक हैं | जितनी भी सारस्वत-साधना करेंगे, उतनी ही उनकी रचना प्रभावी और चिरस्थायिनी होगी |
प्रश्न-[६] कहा जाता है कि रचनाकार की रचनाओं के पीछे कोई-न-कोई अमूर्त्त प्रेरणा अवश्य होती है | आपको प्रेरणा कहाँ से मिलती रही है?
उत्तर-[६] ये सच है कि प्रत्येक रचनाकार की रचनाओं के पीछे कोई-न-कोई अमूर्त्त प्रेरणा अवश्य होती है | मैं तो मेहसूस करता रहा हूँ और अब समय के साथ और भी तीव्रता से अनुभव कर रहा हूँ कि संस्कृत-विद्या ही मुख्यरूप से मेरी प्रेरणा है |
प्रश्न-[७] कुछ ऐसे भी आपके काव्य-सखा होंगे जो निरन्तर आपको रचना के लिए प्रोत्साहित करते होंगे और उन्हें आप अपनी रचना सुनाते होंगे | कृपया बतलाएँ |
उत्तर-[७] इस सर्जन यात्रा के आरम्भ के दिनों में ऐसा कुछ क्रम रहा और साथी-मित्रों को अपनी रचना सुनाते रहे | उनसे प्रेरणा लेते रहे किन्तु अब तो मेरी अर्द्धांगिनी ही, जो स्वयं सिन्धी भाषा की प्रतिष्ठित लेखिका-कवियित्री है, इस दायित्व को निभा रही है | प्रश्न-[८] अपने देश में कला के नाम पर उत्तरोत्तर बढ़ती अश्लीलता और आयातित संस्कृति को आप किस नजरिए से देखते हैं?
उत्तर-[८] सूचना क्रान्ति के इस युग में अश्लीलता और आयातित संस्कृति के विभिन्न पक्षों को समझकर साहित्य के मानकों की पुनर्व्याख्या करना बहुत ज़रूरी है | हमारा देश तो अनादि काल से ही ‘सत्य, शिव और सुन्दर’ को ही साहित्य का परम लक्ष्य मानता आया है |
प्रश्न-[९] आपकी स्वयं की प्रक्रिया क्या है ? ग़ज़लें या कविता आप एक बैठक में लिख लेते हैं अथवा संस्कार और परिष्कार अनेक बैठकों तक चलता है?
उत्तर-[९] सभी सर्जकों की अपनी-अपनी रचना-प्रक्रिया अपनी मौलिक अदा-वाली होती है | कोई सहज, कोई शीघ्रता से तो कोई धीरे-धीरे रचना-प्रक्रिया को सुविधाजनक मानता है | इस पङ्क्ति में मेरा स्थान सबसे अन्त में है | मेरी संस्कार और परिष्कार की प्रक्रिया रचना-सर्जन के बाद भी चलती रहती है |
प्रश्न-[१०] क्या आप समकालीन संस्कृत-साहित्य की रचनाओं से सन्तुष्ट हैं? यदि नहीं तो आप आज के संस्कृत-रचनाकारों से क्या अपेक्षाएँ रखते हैं ?
उत्तर-[१०] ‘समकालीन संस्कृत-साहित्य की रचनाओं से सन्तुष्ट हूँ’ – ऐसा तो तभी कह सकता हूँ जब मैं सभी रचनाओं को पढ़ पाऊँ | फिर भी, कुछ समीक्षाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि संस्कृत की समकालीन साहित्य की रचनाएँ बहुरंगी और बहुआयामी हैं | और तो क्या ? संस्कृत-रचनाकारों से यही अपेक्षा है कि “शास्त्रं सुनिश्चल-धिया परिचिन्तनीयम् |”
प्रश्न-[११] कविता की नई पीढ़ी के प्रति कितना आशावान् हैं ?
उत्तर-[११] बहुत अधिक ! उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास ही भारतीय जीवन पद्धति का बीजमन्त्र है | नई पीढ़ी के रचनाकार स्वयंचेता और उदार हैं – यह एक शुभ संकेत है | प्रश्न-[१२] आज नए रचनाकारों को अनेक स्तरों पर प्रोत्साहन मिल रहा है ? इस सुविधा को किस रूप में देखते हैं ?
उत्तर-[१२] जब ऐसा नहीं होता था तो “पुराणमित्येव न साधु सर्वम्” –[कालिदास] अथवा तो “उत्पत्स्यते मम कोsपि समानधर्मा” –[भवभूति] कहना पड़ा था | रचनाकारों और कवियों को जितना भी सम्मान और प्रोत्साहन दिया जाय, कम है |
प्रश्न-[१३] लेखन विरासत में मिला था या संयोग था कलम थामना ?
उत्तर-[१३] पिता जी सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ गुरुपरम्परा की गुजराती मासिक पत्रिका ‘वेद-रहस्य’ के संस्थापक-सम्पादक रहें | गुरुपरम्परा और कुलपरम्परा का ही अनुग्रह है |
प्रश्न-[१४] आपके अन्दर लिखने-पढ़ने के संस्कार कैसे पैदा हुए ?
उत्तर-[१४] पाँच भाइयों में सबसे छोटा होने के कारण परिवार में ही लिखने-पढ़ने के संस्कार मिलें लेकिन संस्कृत-विद्या के संस्कार तो गुरुकृपा से ही मिले हैं |
प्रश्न-[१५] अधिकांश रचनाकार सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं ? क्या इससे साहित्य समृद्ध हो रहा है ?
उत्तर-[१५] सोशल मीडिया की अपनी अलग तरह की कशिश है | अब, इक्कीसवीं सदी में इस सामाजिक सञ्चार माध्यम का अपना विशिष्ट महत्त्व है | इसकी परिधि बहुत व्यापक और पहुँच बहुत सुगम है | इससे साहित्य कितना समृद्ध होगा – ये तो समय ही बताएगा |
प्रश्न-[१६] आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं?
उत्तर-[१६] भगवान् भाष्यकार आदिशंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, व्यास, भास, कालिदास और बहुत सारे हिन्दी-अंग्रेजी के आधुनिक लेखक-कवि |
प्रश्न-[१७] व्यस्त शेड्यूल में रचना करने के लिए किस तरह समय निकालते हैं?
उत्तर-[१७] इस अनौपचारिक बातचीत के उत्तर-[२] में जैसा कि मैं ने कहा – परिवेश अनुकूल न हो तो रचनाधर्मिता मन्द हो जाती है | समय-प्रबन्धन आज की जीवन शैली का अनिवार्य अंग है|अब तो प्राथमिकता के आधार पर ही समय निकाल पाते हैं |
प्रश्न-[१८] आप कविता-गेयता को कविता का अनिवार्य अंग मानते हैं या नहीं ?
उत्तर-[१८] कविता को लय-स्वर के साथ प्रस्तुत करने से एक स्फूर्त आनन्द की अनुभूति कवि को और सहृदय श्रोता को भी होती ही है | वैसे अतुकान्त कविता या गद्य को भी लय के साथ प्रस्तुत करने का अपना एक अलग ही आनन्द होता है | यही प्रक्रिया भरत-नाट्यशास्त्र में संवाद-शैली की गंगोत्री है |
प्रश्न-[१९] आप अपने आप को कवि मानते हैं या गद्यकार ?
उत्तर-[१९] दोनों ही नहीं ! अभी तो प्रशिशिक्षु हूँ | प्रश्न-[२०] रचनाकार का अपनी जड़ों से जुड़े रहना जरूरी है ? आप क्या कहते हैं?
उत्तर-[२०] अपनी जड़ों से जुड़े रहना, व्यष्टि और समष्टि – दोनों के लिए बहुत ज़रूरी है |
प्रश्न-[२१] साहित्य सृजन के अलावा आपकी अन्य रुचियाँ क्या हैं?
उत्तर-[२१] पठन-पाठन और संगीत-श्रवण | प्रश्न-[२२] वह रचना जिसने आपको एक रचनाकार के रूप में स्थापित किया ?
उत्तर-[२२] अभी उस कृति का सर्जन बाकी है |
प्रश्न-[२३] आपकी पहली रचना कब और कहाँ से प्रकाशित हुई ?
उत्तर-[२३] पूर्व-मध्यमा के प्रथम वर्ष में [१९६७] “पण्डिताष्टकम्”, जो कि परम श्रद्धेय पं॰ रामबालक शास्त्री जी के साप्ताहिक-पत्र “गाण्डीवम्” में प्रकाशित हुयी |
प्रश्न-[२४] संस्कृत एक मृत भाषा है- प्रायः लोग कहते हैं, उनके लिए क्या सन्देश है?
उत्तर-[२४] मृत नहीं, अमृत है | संस्कृत सिर्फ भाषा ही नहीं, ध्वनिविज्ञान भी है | इसकी महफिल में आके तो देखो, फिर ‘शिवोsहं-शिवोsहं’ के सिवा और कुछ नज़र ही नहीं आयेगा |
प्रश्न-[२५] आज संस्कृत के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां हैं? उनके समाधान के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं?
उत्तर-[२५] व्यावहारिक धरातल पर तो अनेक चुनौतियाँ हैं | संस्कृत-परम्परा के लोगों को सम्मानजनक आजीविका मिलें और संस्कृत-समाज के लोग दैनिक जीवन में, बोलचाल में संस्कृत का अधिकाधिक प्रयोग करें | अध्यापक भी कक्षा में संस्कृत-माध्यम से बच्चों को पढ़ाएँ |
प्रश्न-[२६] विदेशों में संस्कृत की क्या स्थति है ? कहाँ-कहाँ कार्य हो रहे हैं?
उत्तर-[२६] विदेशों में संस्कृत की स्थिति अच्छी है | १३० से अधिक देशों में संस्कृत पढ़ायी जाती हैं |
प्रश्न-[२७] आप अपने शिष्यों से क्या आशा करते हैं?
उत्तर-[२७] मेरे शिष्य कम और सहाध्यायी-सहकर्मी मित्र ज़्यादा हैं | सब खूब रचनात्मक कार्यों को करते हुए ऋषि-ऋण से उऋण होने का प्रयास करें | प्रश्न-[२८] अभी तक आपने कुल कितनी भाषाओं में रचनाएँ की हैं ?
उत्तर-[२८] संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती [मातृभाषा] – इन चार भाषाओं में कार्य करता हूँ | प्रश्न-[२९] आज क्या कुछ नया लिख रहे हैं?
उत्तर-[२९] ‘पाणिनि और भाषाविज्ञान’ पर शोध आलेख तैयार कर रहा हूँ | प्रश्न-[३०] लेखन क्षेत्र में शार्ट-कट् को किस नज़रिये से देखते हैं ?
उत्तर-[३०] न सिर्फ लेखन, किसी भी विधा में शार्ट-कट् ठीक नहीं है | प्रश्न-[३१] आपके द्वारा लिखी गई अब तक की सबसे अच्छी रचना ?
उत्तर-[३१] पहली रचना ‘वीरः समीरोपमः’ |
प्रश्न-[३२] आप संस्कृत के उत्थान के लिए युवावर्ग को क्या सन्देश देना चाहते हैं ?
उत्तर-[३२] संस्कृत के उत्थान की बात नहीं है | संस्कृत तो सदा-सर्वदा प्रतिष्ठित और प्राणवन्त है | युवा अपने आत्म-सम्मान के लिए, अपनी सच्ची पहचान के लिए संस्कृत को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनाएं और दैनिक व्यवहार में भी इसका प्रयोग करें | प्रश्न-[३३] यदि आप संस्कृत नहीं पढ़ते तो क्या करते ?
उत्तर-[३३] शायद अधिवक्ता बनता !
प्रश्न-[३४] संस्कृत के पाठ्यक्रमों एवं परीक्षा प्रणाली में क्या-क्या सुधार किये जायें ?
उत्तर-[३४] संस्कृत के पाठ्यक्रम एवं परीक्षा प्रणाली को ज़्यादा से ज़्यादा सरल और व्यावहारिक बनाने से सभी के लिए लाभदायक सिद्ध होंगे |
- डॉ. बलदेवानन्द सागर
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