मंगलवार, 8 फ़रवरी 2022

 ✍️.......💐.सनातन धर्म में विवाह में फेरों के समय  होने वाल

          विवाह के समय पति-पत्नी अग्नि को साक्षी मानकर एक-दूसरे को सात वचन देते हैं जिनका दांपत्य जीवन में काफी महत्व होता है। आज भी यदि इनके महत्व को समझ लिया जाता है तो वैवाहिक जीवन में आने वाली कई समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।


1. तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!।


यहां कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।


 

किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नी का होना अनिवार्य माना गया है। पत्नी द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नी की सहभा‍गिता व महत्व को स्पष्ट किया गया है।

 

2. पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!

 

(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

 

यहां इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हूए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।


3. जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात

वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तूतीयं!!

 

(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, पौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं।)

 

4. कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।।

 

(कन्या चौथा वचन ये मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दा‍यित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं।)

 

इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वो अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।

 

5. स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्‍त्रयेथा

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या!!

 

(इस वचन में कन्या कहती जो कहती है, वो आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)

 

यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।

 

6. न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत

वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!

 

(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आपको दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।) 

 

7. परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमत्र कन्या!!

 

(अंतिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।) 

 

इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।


साभार जगदीश डाभी जी

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

दिल के हर कोने को छूती कहानियाँ : बुभुक्षित: काक:


 

दिल के हर कोने को छूती कहानियाँ : बुभुक्षित: काक:

अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में अपने नये प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध लेखक कवि और नाटककार डॉ.हर्षदेव माधव का नाम संस्कृतज्ञों के लिए अनजान नहीं है । गुजरात (अहमदाबाद) निवासी डॉ.हर्षदेव माधव एच.के. आर्ट्‍स कालेज में प्रोफेसर हैं । बुभुक्षित: काक: भी इन्हीं नवीन प्रयोगों की श्रृंखला में एक बाल कथासंग्रह है । जिसमें कुल 13 कहानियाँ हैं । इसमें पशु-पक्षियों आदि के माध्यम से लेखक ने जीवनोपयोगी शिक्षा दी है ।

त्रिस: पिपीलिका:कहानी सरला, कमला, विमला नामक तीन चीटियों की कथा है जो आम खाने के लिए तब तक उद्यम करती हैं जब तक की उन्हें आम प्राप्त नहीं हो जाता । यह कहानी बच्चों को यह शिक्षा देती है कि जब तक हमें हमारा लक्ष्य प्राप्त न हो जाए तब तक हमें निरन्‍तर प्रयत्न करते रहना चाहिए ।

सर्वदा यत् वाञ्छितं तत् प्राप्तुं प्रयत्ना: कर्तव्या : ।[1]

तपस: सिद्धि: कहानी के नायक सुतपा नामक ऋषि हैं । जो अपनी तपस्या के बल पर ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं और ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी समस्त वस्तु (वरदान) जन कल्याण में लगा देते हैं । डॉ.हर्षदेव माधव लिखते हैं कि जितेन्द्रिय व्यक्ति को कभी भी भौतिक वस्तुओं की अभिलाषा नहीं होती ।

बुभुक्षित: काकका चतुर कौआ रोटी प्राप्त करने के लिए कितना परिश्रम  करता है । प्राणिनां तीर्थस्य यात्राकहानी के पात्र नीरव(चूह), धवला(बिल्ली), गजराज(कुत्ता), नीलेश(हाथी), वनराज(सिंह) आदि हिंसा छोड़कर अहिंसा का मार्ग अपना लेते हैं । अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए वे सब काशी गंगा स्नान के लिए जाते हैं । ऋषि जाबाल की कृपा से उन सबका मार्ग सुगम हो जाता है । । इस कहानी में बताया गया है कि जब हम कोई नेक कार्य करेंगे तो ईश्वर किसी-न-किसी रुप में हमारी मदद अवश्य करेंगे ।  मन्त्राणां शक्ति:शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण की कहानी है जो अग्निदेव द्वारा प्रदान की गयी एक अद्भुत पुस्तक से ऐसे-ऐसे चमत्कार उत्पन्न करते हैं कि राजपुरुषों को उनसे ईर्ष्या होने लगती है । फलस्वरुप वे वह ग्रन्‍थ पुन: अग्निदेव को सौंप देते हैं तथा पुन: कभी भी राजदरबार में न आने का प्रण करते हैं । वे कहते हैं-

अहिंसार्थम् अहं मन्‍त्रदेवताम् आह्वयामि ।[2]

शिवपण्डित: अवदत् महाराज! अहं तव ग्रामाणां शतं वा सहस्रं वा न कामये । ब्राह्माणा: धनलोलुपा: न सन्‍ति । ते राज्यं तृणं इव मन्‍यते । मम मति: मन्‍त्रिणां सदृशी छलकपटमयी नास्ति । अद्यपर्यन्‍तं अहं मन्‍त्राणां प्रयोगं कदापि स्वार्थाय न अकरवम् । विद्या एव मम धनं वर्तते ।[3]

क्रोधालु: ऋषि:सुदर्शन नामक एक ऋषि की कहानी है । जिन्हें लोग उनके क्रोध के कारण क्रोधदर्शन कहने लगे थे । कहानी के अंत में भगवान उनसे कहते हैं कि हमें किसी भी प्राणी पर हिंसा, क्रोध आदि नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक जीव-जन्तु में ईश्वर विद्यमान है ।

इयं सृष्टि:मम रचना अस्ति । एते सर्वे प्राणिन:, पक्षिण:, मनुष्या:, जलचरा:, सर्वे वृक्षा:, पर्वता: मया रचिता: सन्‍ति ।[4]

दुर्ललित: शक्तिसिंह:कहानी में लेखक कहता है कि हमें सदैव अपने बड़ो की आज्ञा का पालन करना चाहिए । नहीं तो इस कथा के शक्तिसिंह की तरफ बाद में पछताना पड़ता है ।

गुरु: प्रवचने अवदत्, ‘तिस्र: देवता वर्तन्‍ते, माता, पिता गुरुश्च । अत: तेषाम् आज्ञा सदैव शिरोधार्या कर्तव्या । सदैव तेषां वचनानि श्रोतव्यानि । जीवने सदैव कल्याणं भविष्यति युष्माकम् ।[5] 

दयावान् राक्षस:कहानी में डॉ.हर्षदेव माधव कहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्मों से देवता की पदवी को भी प्राप्त कर लेता है । दयाराम नामक राक्षस के जैसे ।

पुत्रक दयाराम !  उतिष्ठ ।  त्वम् अनेकानि शुभकार्याणि अकरो: । अत: अधुना त्वं राक्षस: न असि । अहं तुभ्यं देवत्वं ददामि ।[6]

लोगों को हराम का नहीं हलाल का खाना चाहिए यह लेखक ने बुद्धिमान गोपाल:कहानी में दिया है ।  

गोकुल: मृत्युमुखात् प्रत्यागच्छतिइस कहानी में लेखक कहता है कि सभी मनुष्यों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए । उसका प्रत्यक्ष नहीं अपितु परोक्ष लाभ मिलता है । अपने सत्कर्मों के कारण ही गोकुल नामक युवक मृत्यु के मुख से बच जाता है ।

वत्स! स्मर, त्वं धर्मरहस्यम् । तृषार्तेभ्य: जलम्, बुभुक्षितेभ्य: अन्‍नम्, पित्रो: शुश्रूषा, अतिथिनां स्वागतं, जीवनस्य औदार्यम्-एतत् सर्वं महते पुण्याय कल्पते । मनुष्य: सुकृतै: मृत्यो: मुखात् अपि स्वात्मानं रक्षितुं क्षम:-इति धर्मस्य रहस्यम् अस्ति । त्वं न कमपि प्रमादं कृतवान् । किन्‍तु भगवत: प्रसादेन सर्वमपि भवति-न भवति अन्यथा वा भवति । गच्छ, तव कर्त्तव्यं कुरु ।[7]

 इसी प्रकार रात्रिदिवसौ कथम् अभवताम्’, ‘भूतस्य शिखा’, ‘केशव: धीवर: राजकुमार: अभवत्आदि कहानियों में लेखक ने बच्चों (पाठकों) कुछ-न-कुछ नैतिक शिक्षा प्रदान की है ।

प्रसाद गुण युक्त इस कथासंग्रह की भाषा इतनी सरल और सहज है कि बच्चे इसे आसनी से समझ जायेंगे । यह कथासंग्रह हिन्दी और गुजराती दो भाषाओं में प्रकाशित हुआ है । इसका अनुवाद डॉ.श्रद्धा त्रिवेदी ने किया है । पुस्तक की छपाई, कलेवर और प्रस्तुतिकरण सुरुचिपूर्ण है और मात्र 240 रुपये में इसे संस्कृत प्रेमियों के लिए एक उपहार ही कहा जा सकता है ।

समीक्षक- डॉ.अरुण कुमार निषाद

रचना – बुभुक्षित: काक:(संस्कृत बालकथा)

रचनाकार - डॉ.हर्षदेव माधव

प्रकाशक- संस्कृति प्रकाशन, अहमदाबाद

संस्करण- प्रथम, 2020 ई.

पृष्ठ संख्या – 198

अंकित मूल्य- 240 रू.

 



[1] बुभुक्षित: काक:, डॉ. हर्षदेव माधव, संस्कृति प्रकाशन अमदाबाद, प्रथम संस्करण 2020 ई., पृष्ठ संख्या13  

[2]वही, पृष्ठ संख्या 74

[3]वही, पृष्ठ संख्या 75-76  

[4]वही, पृष्ठ संख्या 92

[5]वही, पृष्ठ संख्या 124

[6]वही, पृष्ठ संख्या 138-139

[7]वही, पृष्ठ संख्या 187-188

वैश्विकी रामकथा

 

वैश्विक महानायक हैं भगवान् राम

समीक्षक- डॉ. अरुण कुमार निषाद




राम शब्द का अर्थ है- राशब्द परिपूर्णता का बोधक है और परमेश्वर वाचक है । अर्थात् रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्माण्ड में रमण करता है वही राम हैं ।

आधुनिक संस्कृत साहित्याकाश में डॉ.हर्षदेव माधव का नाम अपरिचित नहीं हैं । वे संस्कृत में नवोन्‍मेष के लिए जाने जाते हैं । इसी श्रृंखला में उन्होंने एक नया प्रयोग किया है । संत शिरोमणि पूज्यपाद मुरारीबापू की रामकथाओं का “वैश्विकी रामकथा” नाम से संस्कृत अनुवाद प्रकाशित कर । इस पुस्तक में बापू द्वारा विभिन्‍न स्थानों पर दिये गये प्रवचनों का अनुवाद है । इसे सूत्र शैली में पिरोने का कार्य भी डॉ.हर्षदेव माधव ने किया है । इस ग्रन्‍थ में मुरारी बापू द्वारा दिये गये 136 प्रवचनों का संस्कृतानुवाद है ।  इसका प्रथम संस्करण जनवरी 2021 ई. में प्रकाशित है।

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई

साधु संग बैठ बैठ लोकलाज खोई ॥

(मम तु गिरधर: गोपाल: नान्‍य: । साधुसङ्गतौ उपविश्य लोकलज्जा त्यक्ता ।)

जाके प्रिय राम बैदेही

तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम स्नेही ।

( यस्य सीतारामौ न प्रियो, कोटिशत्रुवत् त्याज्य:, यद्यपि स: परमस्नेही)

रामकथा को वैश्विक स्तर पर जो प्रतिष्ठा और लोकप्रियता मिली है वह इसकी मूल्यवत्ता को स्वतः सिद्ध करती है । विश्व-इतिहास और विश्व-साहित्य में राम के समान अन्य कोई पात्र कभी नहीं रहा । रामकथा की अपनी एक वैश्विक सत्ता है, अपनी एक अलग पहचान है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि  रामकथा मात्र एक कथा नहीं वरन् जीवन जीने की सार्वभौमिक शैली है । इसमें मानवीय पारिवारिक सम्बन्धों से लेकर जड़ एवं चेतन के पारस्परिक सम्बन्‍धों की भी समुचित व्याख्या की गई है । रामकथा की यह भी विशेषता है कि इस पृथ्वी का कोई ऐसा तत्व नहीं है जो प्राणिरूप में इसमें समावेशित नहीं किया गया हो ।

रामकथा और रामभारतीय संस्कृति और सभ्यता का बहुत सुन्दर पुञ्ज है । रामकाव्य विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम्की प्रेरणा देता है और राम का व्यक्तित्व और उनकी कथा इतनी सघन और व्यापक है कि उसमें सम्पूर्ण जीवन की गहराई और सूक्ष्मता, विस्तार और सौन्दर्य, संघर्ष और सत्य, यथार्थ और आदर्श विधि-विश्वास और प्रज्ञा आदि स्थितियों, चित्तवृत्तियों और भावभूमियों की अभिव्यक्ति के लिए विपुल आकाश है । आधुनिक युग में रामकथा विश्व के सभी प्राणियों के लिए ज्ञान और मूल्य का स्रोत रहेगी क्योंकि रामकाव्य में सभी प्राणियों के हित की बात है, जीवन-मूल्यों का सार है, राष्ट्र के प्रति प्रेम-भावना और त्याग है।  पूरे संसार का सुख और खुशी की भावना है । रामकथा मानवमन और मानवप्रज्ञाका प्रतिनिधित्व करती है । इसलिए यदि रामकथा को जीवन का महाकाव्य कहा जाये तो यह अतिशयोक्ति न होगी । रामकाव्य का प्रभाव भारत के जनमानस के साथ विश्व के सभी देशों पर पड़ा है । विदेशी भाषाओं में रामकथा और राम के स्वरूप की व्याख्या हुई है । रामकाव्य को विश्व के समग्र साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त है और जनमानस के हृदय में राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप और स्वरूप भी अमिट है । एशिया में रामकथा में राम का स्वरूप में सभी रचनाकारों ने अपनी-अपनी लेखनी और भावों की अपार आस्था से अभिव्यक्त कर शब्दों में लिखा है ।
श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है क्योंकि राम में कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन हुआ नहीं मिलता । सम्पूर्ण भारतीय समाज में राम का आदर्श रूप उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम के सभी भागों में स्वीकार किया गया है । भारत की हर एक भाषा की अपनी रामकथाएँ हैं । इसके उपरान्‍त भारत के बाहर के देशों-फिलीपाइंस, थाईलैण्ड, लाओस, मंगोलिया, साईबेरिया, मलेशिया, बर्मा अब म्यांमार, स्याम, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया, चीन, जापान, श्रीलंका, वियतनाम आदि में भी रामकथा प्रचलित है । बौद्ध, जैन और इस्लामी रामायण भी हैं ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-

राम तुम्हारा चरित्र  स्वयं ही काव्य है ।

कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है ॥ 

 

डॉ.हर्षदेव माधव इस नवीन प्रयोग के लिए बधाई के पात्र हैं । उनको साधुवाद । इस नई रचना के लिए अशेष मंगलकामनाएं ।

 

 

 

 

 

धनुरातनोमि : व्यथित हृदय की व्यथा


संस्कृत में मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनुवाद भी निरन्तर हो रहे हैं। न केवल भारतीय भाषाओं से अपितु विदेशी भाषाओं से भी उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद संस्कृत में होता रहा है। धनुरातनोमि अनुवाद संकलन दो विशेषताओं के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रथम तो यह कि इस संकलन में सर्वप्रथम भारतीय आदिवासी कविताओं का संस्कृत में अनुवाद किया गया है और द्वितीय विशेषता यह कि इस संकलन में हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के  साथ- ही-साथ ऐसी विभिन्न भाषाओं के साहित्य से किया गया अनुवाद भी है जो भाषाएँ आदिवासियों द्वारा ही बोली जाती है । जैसे-मुण्डारी, कुखुड, सन्ताली, हो, कुंकुणा, धोडी, गामीत इत्यादि।

अनुवाद के विषय में श्रीनाथ पेरूर का कथन है- “हर भाषा की अपनी वाक्य संरचना होती है और उसे अनूदित भाषा में सहजता के साथ ले जाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है ।”    

इस संकलन में 17 भाषाओं (1.मुण्डारी 2.कुडुख 3.संताली 4.खडिया 5.हो 6.नगपुरिया 7.मराठी 8.हिन्‍दी 9.मणिपुरी 10.ढूंढाडी 11.आङ्ग्ल 12.गुजराती 13.चौधारी 14.देहवाली 15.कुंकणा 16.धोडीआ 17.गामीत) के 33 कवियों की कविताओं का संस्कृत अनुवाद है । परिशिष्ट भाग में हर्षदेव माधव, कौशल तिवारी, ऋषिराज जानी की संस्कृत की मौलिक आदिवासी कविताएँ हैं ।  

हर्षदेव माधव कहते हैं कि शहरीकरण सबको निकलता जा रहा है अब तो वनों में भी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्‍दता नहीं है । पेड़-पौधे, नदियाँ धरती, आकाश सब औद्योगीकरण के कारण नष्ट होते जा रहे हैं ।

कोऽयं रोग: खलु

.     .  .  .  .  .  .

गता नगरमायाबद्धा:?

अस्माकं विकास:कविता में वे प्रश्न करते हुए कहते हैं कि क्या हमारा विकास यही है आप हमारी सम्पत्तियों को हड़प लो ।

हे सज्जना: !

हे महाजना: !

हे नेतार: !

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नूनं कृतो युष्माभिर्नो विकास: ।

कौशल तिवारी कहते हैं कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, ऋतुएँ, नदी, पर्वत, इत्यादि सब एक दिन केवल कवि और कविता का विषय मात्र रह जाएँगे ।

दूरदर्शनस्य वृत्तचित्रेषु,

पाठ्यपुस्तकानां कृष्णकर्गदेषु,

कवीनां लेखनीषु  च ।

 ऋषिराज जानी की कविता वनस्य मधूका सर्वं जानन्‍ति  यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हम मनुष्य हैं । आखिर हमारी संवेदनाएँ कहाँ मर गए हैं हम इतने गिर गयी हैं  । हम इतना नीचे गिर गए हैं  । इतना चारित्रिक पतन हो गया है कि जिन्हें दुनिया के छल-कपट के बारे में कुछ भी नहीं पता उनको भी हम छल रहे हैं । भोली-भाली आदिवासी कन्या अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं ।

तदा चिकित्सकेन कथितं तद्‍

त्वं एच. आई.वी.ग्रस्ताऽसि ।इति ।

.         .       .        .           .       .  

किन्‍तु वनस्य मधूका: सर्वं जानन्ति ।

 गामीत भाषा की कवयित्री किरण गामीत लिखती है कि आदिवासियों को मोक्ष की इच्छा नहीं होती है ।वे हमारी तरह जाति धर्म आदि के नाम पर भी नहीं लड़ते हैं ।

मोक्षस्य मोहो नास्ति,

धर्मं ते न जानन्‍ति ।

सृष्ट्या: संवर्धनं हि तेषां धर्म:,

प्रकृतौ जीवनमेव तेषां मोक्ष: ।

जीतेन्‍द्र वसावा लिखते हैं कि तुम हमको सभ्य बनाने के चक्कर में हमारी संपत्तियों पर आधिपत्य जमाकर हमें गुलाम बनाना चाहते हो । तुम स्वार्थवश हमें अपने तरफ मिलाना चाहते हो तुम्हारे मन में कहीं-न-कहीं कपट छिपा हुआ है ।

चौर-लुण्ठाक-शूकर-जाल्म

इत्यादिभि: शब्दैरतर्जयत् ।

विनोद कुमार शुक्ल की कविता विपणीदिवसोऽस्तिहमारे कथाकथित सभ्य समाज के सामने एक प्रश्न खड़ा कर देती है कि   जिस आदिवासी लड़की को शेर से डर नहीं लगता उसे आखिर गीदम’ (छतीसगढ़ राज्य का एक नगर) के बाजार जाने से क्यों डर लगता है । क्या इसलिए कि मनुष्य की खाल में घूम रहे शेर जंगल के शेर से अधिक खतरनाक हैं?

एकाकिनी आदिवासिकन्या

निबिडं वनं गन्‍तुं न बिभेति,

व्याघ्रसिंहेभ्यो न बिभेति,

किन्‍तु

मधूकपुष्पाणि नीत्वा गीदमप्रदेशविपणींगन्‍तुं बिभेति ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि रामदयाल मुण्डा, दयालुचन्‍द्र मुण्डा, अनुज लगुन, महादेव टोप्पो, ग्रेस कुजूर, ओली मिंज, ज्योति लकड़ा, आलोका कूजूर, निर्मला पुतुल, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, वंदना टेटे, सरोज केरकेट्टा, सरस्वती गागराई, सरिता सिंह बड़ाइक, वाहरू सोनवणे, भुजंग मेश्राम, हरिराम मीणा, उज्ज्वला ज्योति तिग्गा, तरुण मित्तमतारा’, इरोम चानू शर्मिला, हीरा मीणा, तेमसुला आओ, कानजी पटेल, मानसिंह चौधरी, प्रीतेश चौधरी, रोशन चौधारी, महेन्‍द्र पटेल, कुलीन पटेल, ध्रुविन पटेल आदि कवि भी इन्हीं कवियों की तरह अपनी रचनाओं में आदिवासियों के लिए चिन्‍तित दिखाई देते हैं ।  इस संग्रह में कविताओं के साथ उनके भावों के अनुरूप कुछ चित्र भी दिये गये हैं, जो स्वयं अनुवादक ने बनाये हैं। ये चित्र वारली चित्रशैली में है, जो महाराष्ट्र की वारली जनजाति में प्रचलित है । संस्कृत जगत् को आप से अभी बहुत अपेक्षाएँ हैं | इस मनोरम काव्य के लिए हार्दिक अभिनन्‍दन तथा मंगलकामनाएँ ।

 

 

समीक्षक- डॉ. अरुण कुमार निषाद

कृति-  'धनुरातनोमि

(भारतीय-आदिवासी कविता)

अनुवादक व संपादक- डॉ.ऋषिराज जानी

प्रकाशन वर्ष- प्रथम संस्करण 2020 ई.

मूल्य- रु. 160/-पृष्ठ- 156

प्रकाशक- गोविन्‍दगुरु प्रकाशन, गोधरा अहमदाबाद ।