‘वज्रमणि:’ उपन्यास :
नारी-चेतना का नवीन स्वर
प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में स्त्रियों को भी
पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे |मनुष्य का जीवन कोयले-सा नीरस, अन्धकारमय एवं निर्जीव है | स्त्री संयोग
ही उसे सरस बनाता है, प्रकाश देता | स्त्री पुरुष के जीवन की ज्योति है | प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही अधिकार
प्राप्त थे |
जेम्स स्टीफेन के अनुसार –
“औरतें मर्दों से अधिक बुद्धिमान होती हैं, क्योंकि वे जानती कम, समझती अधिक हैं |”
औरत मर्द की सबसे बड़ी ताकत है | मर्द की जिन्दगी अधूरी
है, औरत उसे पूर्ण करती है | मर्द की जिन्दगी अँधेरी है, औरत उसे रौशनी देती
है, मर्द की जिन्दगी फीकी है, औरत उसमें रौनक लाती है | औरत न हो तो
मर्द की दुनिया वीरान हो जाए और आदमी अपना गला घोंटकर मर जाए | नारी-चेतना की इन्हीं सब बातों को इस शोधपत्र
में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है |
की वर्ड : संस्कृत साहित्य, स्त्री, नवीन दृष्टि |
एक सशक्त महिला न केवल स्वयं अपने लिए बल्कि समाज के समग्र विकास के लिए
भी उपयोगी व महत्वपूर्ण साबित होगी | यदि कोई देश
आज उन्नति के शिखर पर है तो वह वहाँ की महिलाओं के सहयोग और सहभागिता के कारण है | किसी भी राष्ट्र के विकास की कल्पना महिलाओं को हाँशिये पर रख कर नहीं की जा सकती |महिलाओं के शोषण एवं उत्पीड़न को रोकने
के लिए उनका चहुँमुखी विकास जरूरी है | इसके लिए
उनका कानूनी ज्ञान बढ़ाना भी समय की आवश्यकता है |
कविवर रस्किन के अनुसार –
“नारी का हृदय एक स्नेहपूर्ण निर्झर है, जो सृष्टि के आदि से अनवरत झरता हुआ मानव का सिंचन कर रहा है ।
प्रज्ञोपनिषद् में भी लिखा है -
देव्यासोपमिता नारी प्रधान्याद् यत एव ते |
देवा अनुचरास्तस्या देव्या अत्राऽपि सा स्थिति: । (प्रज्ञोपनिषद् 3/3/29)
‘वज्रमणि:’ उपन्यास समकालीन संस्कृत साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर प्रोफेसर रामसुमेर
यादव (विभागाध्यक्ष, संस्कृत तथा प्राकृत भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ) द्वारा प्रणीत एक
आधुनिक उपन्यास है | जिसमें नारियों के अन्त: एवं
बाह्य मनोभावों आदि जैसे विषयों को बखूबी दर्शाया गया है | साहित्यमहोपाध्याय आदि विभिन्न उपाधियों से अलंकृत सुकवि प्रो. रामसुमेर
यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में 13 दिसम्बर 1958 ई. को हुआ | आपके पिता का नाम श्री सूरजदीन यादव तथा माता का नाम श्रीमती कैलाशा देवी
है | आपकी प्रमुख रचनाएँ है – इन्दिरासौरभम् (काव्य ), कबीरवचनामृतम् (अनूदित
काव्य), अस्पृश्यता (एकांकीनाटक) आदि |
इस उपन्यास में 26 परिच्छेद हैं | यह संस्कृत के
अतिरिक्त हिन्दी तथा अंग्रेजी में भी प्रकाशित है | इसका प्रकाशन परिमल पब्लिकेशन्स दिल्ली से सन् 2011 ई. में हुआ | आपने उर्दू भाषा में भी डिप्लोमा किया है | आप हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत में कविता, कहानी, नाटक आदि निरन्तर लिखते रहते हैं | आपके कविता पाठ, वार्ता आदि आकाशवाणी और दूरदर्शन
से समय-समय पर प्रसारित होते रहते हैं |
यह नारी चेतना का ही असर है कि- वज्रमणि
(सूर्पणखा) अपने दिल की बात अपनी सेविका सरमा से कहती है कि- इन पशु- पक्षियों का
प्रेम क्रीडा करते देखकर मेरा भी मन मचल उठा है | वह
अपनी परिचारिका सरमा से कहती है -
“सरमे ! पश्य तावत् आकर्षण: काल: मादकश्चास्ति
सुगन्धितशीतयुतोऽनिल: मन्दं मन्दं प्रवाति | पादपावले: अपरस्मिन् सीम्नि
नीलाम्बर: धरित्र्यामभिसरति | स्वातन्त्र्यरूपेण
जलेऽस्मिन् विहरन्त: भ्रमन्तश्च जलकुक्कुटा: चक्रवाकाश्च भाग्यशालिनि: सन्ति ।
वज्रमणि यौवन की दहलीज पर कदम रखने वाली एक
नवयुवती है | और इस उम्र में विपरीत लिङ्गी के प्रति आकर्षण कोई नई बात नहीं है |वज्रमणि(सूर्पणखा) भी नवयुवती है | विद्युत्जिह्व
के प्रति उसका आकर्षण कोई आश्चर्य की बात नहीं है |
“तस्या: अनिन्द्या: सुन्दर्या: वज्रमणे: जीवनात् शैशवं निर्गतम् | यौवनभारभारेणाभिषिक्ता
माधवीलतासमा तन्वंगी देहयष्टि: अदृश्यबाहुपल्लवानामालिंगनार्थमातुरासीत ।
वज्रमणि (सूर्पणखा) भी पक्षियों की तरह खुले आकाश
में स्वतन्त्र और स्वच्छन्द विचरण करना चाहती है | वह अपनी सेविका सरमा से कहती है -
“सरमे न जानासि त्वम् | नाहं कुप्यामि एषां भाग्येन ईर्ष्यामि केवलम् | विस्तृते गगने विचरणशीला: पशव, राजभवने
बन्धकजनानामपेक्षया नियमेषु प्रतिबद्धदासानामपेक्षया च अधिका; स्वतंत्रा: सुखिनश्च वर्तन्ते, तेषां कामनैव
सर्वोपरि विद्यते ।
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि- व्यक्ति धन वैभव
नहीं आजादी चाहता है |
यह नारी-चेतना का ही प्रभाव था कि- वज्रमणि
(सूर्पणखा) प्रथम मिलन में ही विद्युत्जिह्व से बड़ी सहजता और सरलता से वार्तालाप
कर लेती है | तथा एकटक उसे निहारती रहती है |
“विद्युत्जिह्व: मृतं व्यार्घं पश्यन्नासीत् | विद्युत्जिह्व: पश्यन्ती आसीत् ।
यहाँ तक की वह उसे मिलने के लिए अपने निजी कक्ष तक
बुला लेती है | स्पष्ट है कि उस समय राजकुमारियों को भी कुछ-न-कुछ अधिकार प्राप्त थे | विद्युत्जिह्व के शंका करने पर वह कहती है कि यह उसका व्यक्तिगत मामला है | इसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा |
राजकुमार्या: वैयक्तिको व्यवहार: | सन्दर्भेऽस्मिन् स:
हस्तक्षेप: कथं करिष्यति ।
नारी-चेतना का प्रभाव ही था कि – विद्युत्जिह्व की माँ
विज्जिका सुकेतु नामक युवक से प्रेम करती है क्योंकि विद्युत्जिह्व का पिता
मुचकुन्द अपनी पत्नी से अधिक उम्र का था और वह अपनी पत्नी की यौन इच्छाओं की
पूर्ति नहीं कर पाता था | फलस्वरूप विज्जिका को
सुकेतु का सहारा लेना पड़ा ।
रावण के पूछने पर की
क्या वज्रमणि (सूर्पणखा) विद्युत्जिह्व से प्रेम करती है, तो वह बड़े आत्मविश्वास और निडरता से कहती है -
“यदि रक्षेन्द्र: महिषी च मां सौख्येन द्रष्टुं
वाञ्छत: | तदाहं स्पष्टेन व्यहारामि | अहं येन सह प्रेम करोमि तेनैव सह विवाहं करिष्यामि ।
अन्यत्र भी-
“भ्रातं नाहं किञ्चिद् वाञ्छामि अहं सम्पत्तिं
नेच्छामि, सम्मानं वाञ्छामि कृपा स्थाने श्रद्धा
वाञ्छामि ।
वनवास के समय सीता और कौशल्या की बातचीत | सीता कौशल्या से एक
पतिव्रता नारी के विषय में बताती हुई कहती हैं-
उर्मिला का यह कथन नारीवाद को दर्शाता है | यह नारी-चेतना ही कहा
जायेगा, अन्यथा कौन ऐसी स्त्री होगी जो अपनी इच्छाओं का
दमन कर लेगी |
विषया यमजिह्वा (विकम के गुरू आचार्य वज्रदंष्ट्र की
प्रेयसी और पत्नी) से कहती है -
“किम् सम्पूर्णादर्शा: नारीणां कृते सन्ति ।
यमजिह्वा विषया को समझाते हुए कहती है -
“वयं पुरुषेभ्य: न्यूना: न स्म: | वयं सृष्टिं चलायितुं चुम्बकीयशक्तय: स्म: | लौहपुरुषोऽपि यस्याकर्षणेन परित: निरन्तरं भ्रमति ............वत्से
त्वदीयं कथनं तेषां कृते एव सत्यं यै: जीवने पराजयमड़्गीकृतम् प्रथमतस्तु
शक्ति:सीमा निश्चितरूपेण भवति | तस्या: सीम्न: परोक्षे
नारी निर्बला जेया च वर्तते | मया निज जीवने
बहुत्यक्तम् प्राप्तञ्च | तथा तस्यैवानुभवानुसरेण
निगदितं शक्नोति | अथ च एतदर्थं अपमानं अनुभवितुं
आवश्यकता नास्ति | माता-भगिनी-पत्नी-प्रेमिका
इत्यादीनां आदर्शा: तावदेव अक्षुण्णा: वर्तते | यावत्
पुरुष: पुत्र-भ्राता-पति-प्रेमी इत्यादीनां भूमिकां निर्विवादरूपेण निःसंदेहरूपेण
च निर्वहति | प्रत्येका: नरनार्य: विशेषण
विशेष्ययो: अभावे अर्थहीना: भवन्ति | नारी केवलं
पुरुषस्योपभोगस्य वस्तु सम्पत्तिर्वा न भवति | तस्या
अपि स्वतन्त्र सत्ता भवति ।
वज्रमणि (सूर्पणखा) विक्रम से कहती है -
“प्रेम तु वरदानस्वरूपं भवति | नित्यत्वस्य त्याग: प्रेमीजनस्य समर्पणमस्ति ।
पुनः विषया अपने पत्नी धर्म को निभाते हुए विक्रम
को समझती है | जबकि उसे ज्ञात हो चुका है कि विक्रम से
वज्रमणि (सूर्पणखा) मिलकर आ रहा है | और वह
वज्रमणि (सूर्पणखा) से प्रेम करता है | वज्रमणि
(सूर्पणखा) से प्रेम के कारण ही वह कई बार विषया को अपमानित भी कर चुका है |
“यदा भवदीया पुत्री कथितं शक्नोति तर्हि अहं तु पत्नी
अहं पश्यामि श्रुणोमि, अवगच्छामि | सोढुं च समर्थास्मि | सम्भवत: संसारस्य
समग्रा नारी जाते: निर्माणं एतदर्थं जताम् चेत् भवान् स्वमन्तव्यं स्वकीयां पीड़ा
विना गोप नीयताया यां अकथमिष्यत् | तर्हि तां पीड़ा
स्वमेव सहित्वा स्वजीवनं धन्यं अस्वीकरिष्यम् ।
जीवन का सत्य यही है कि-प्रत्येक जीव को प्रेम
चाहिये भौतिकता नहीं, भौतिकता
से व्यक्ति कुछ ही दिनों में ऊब जाता है | व्यक्ति
को चाहे जितनी सुख-सुविधा दे दी जाये अगर उसे सामाजिकता और प्रेम न दिया जाये तो
वह कुछ ही दिन में आत्महत्या कर लेगा |
“नहि ! नहि ! ममाराध्यदेव ! अहं तु प्राणप्रतिष्ठितं
साकारं शरीरं वाञ्छामि अहं दया स्थानं स्नेहामिच्छामि | अहं आदेश क्षमतां नेच्छामि | अहं तु
आज्ञापालनस्यानन्दं इच्छामि ।
सीता वज्रमणि (सूर्पणखा) से कहती हैं-
“क्षणिकेन्द्रिय जन्यानन्दस्य पर्याय: भवितुं नार्हति
।
सीता रावण से कहती हैं-
“चातक: स्वातीनक्षत्रे एव जलं गृह्णाति नलिनी सूर्यस्य
प्रकाशादेव विलसति | अन्यथा नैव विकसति |
वज्रमणि (सूर्पणखा) विक्रम को समझाते हुए कहती है-
“त्वं सम्प्रति अपि परिभ्रमति रूपस्य वासना एव यत्
अद्यावधि समाप्तिं न गता | त्वया एका सुन्दरी
साध्वी पत्नी परित्यक्ता | प्रेमिकां प्राप्तुं
प्रेम अपमानित: | त्वं राज्यं त्यागस्य चर्चां
करोषि | किमिदं सत्यं नास्ति | त्वया नारी शरीरमवाप्तुं राज्यं परित्यक्तम् |
अपि च
“विक्रम ! पुरुष: एव बलात्कारं न कुर्वन्ति | स्त्रिय: अपि कुर्वन्ति |
इस प्रकार कहा जा सकता है कि- ‘वज्रमणि:’ उपन्यास के सभी नारी पात्रों में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ है | वह स्वतन्त्र रूप से जीना चाहती है | वह ऐसा समाज को आज नकार रही है, जो बार-बार यह कहता है
कि- यह नहीं करना है, वह नहीं करना है, तुम स्त्री हो, तुमको इस प्रकार नहीं चलना चाहिए,
इस प्रकार नहीं उठाना बैठना, बोलना, पहनना चाहिए |
समीक्षक-डॉ.अरुण
कुमार निषाद
पुस्तक-वज्रमणि:
(संस्कृत उपन्यास:)
लेखक-प्रो.रामसुमेर
यादव
प्रकाशन-परिमल
प्रकाशन,
नई दिल्ली
प्रकाशन
वर्ष-2011 ई.
पृष्ठ
संख्या-823
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