वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बौद्धकालीन शिक्षा की प्रासंगिकता
अरुण कुमार निषाद
शोधच्छात्र
संस्कृत एवं प्राकृत भाषा विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ |
मोबाइल न.9454067032
प्राचीनकाल से ही मानव और शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है
| वैदिक संस्कृति की नींव वैदिक शिक्षा है | शिक्षा उतनी ही प्राचीन है जितनी मावन
सभ्यता | शिक्षा केवल स्कूल कालेजों में पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु नहीं है | यह तो
जीवन पर्यन्त अनुभव करने वाली एक सतत् प्रक्रिया है | यह शिक्षा धार्मिक के साथ ही
लौकिक भी थी | इसी शिक्षा बल पर ही आदमी सभ्यता के उच्चतम शिखर
पर आसीन हो पाया है | दर्शनशास्त्र के विद्वानों का मानना है कि – मनुष्य के जीवन
का जो उद्देश्य है, वही शिक्षा का भी है | प्राचीन भारतीय शिक्षा वैदिकशिक्षा पर
आधारित थी | नीतिशतककार भर्तृहरि का अभिमत है-
साहित्य संगीत कला विहीन:
साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन: |
तृणं न खादन्नपि जीवमान-
स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम[1]
||
अपि च –
येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं गुणो न धर्म: |
ते मत्र्यलोके भुविभारभूता:
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति[2]
||
इसी भाव को ईशावास्योपनिषद् में इस प्रकार कहा है-
अन्धं तम; प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते |
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:[3]
||
कठोपनिषद् में भी लिखा है-
अविद्यायामन्तरे वर्तमाना:
स्वयं धीरा: पण्डितं मन्यमाना: |
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढ़ा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:[4]
||
बौद्धशिक्षा का सूत्रपात महात्मा बुद्ध ने स्वयं किया | इस
शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बौद्ध बिहारों का काफी योगदान रहा है | इस शिक्षा का
अर्थ था-समाज में फैली हुई बुराईयों को दूर करना | उनका कहना था – “केवल
वेदपाठ, याज्ञिक अनुष्ठान, घोर तपस्या, नंगा रहना, जटा रखना सर्वथा लाभहीन है | गौतम
बुद्ध ने अपना उपदेश मध्यम मार्ग में दिया | इस मध्यम प्रतिपदा के आठ अंग हैं[5]- सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक्
कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् विचार, और सम्यक् ध्यान | सारे
धर्मों की तरह बौद्धधर्म का भी अंतिम लक्ष्य निर्वाण अर्थात् मोक्ष है | निर्वाण
क्या है –बुद्ध के अनुसार निर्वाण उस
अवस्था का नाम है, जिसमें ज्ञान द्वारा अविद्या रूपी अन्धकार दूर हो जाता है | यह
अवस्था इसी जन्म में इसी लोक में प्राप्त की जा सकती है | बौद्धशिक्षा का मुख्य
ग्रन्थ ‘धम्मपद’ है | संघ (बौद्ध विश्वविद्यालयों) में जातिगत अथवा लैंगिक भेद-भाव
का कोई स्थान नहीं था | जैसा कि कहा गया है- “ओ३म् सह नाववतु | सह नौ भुनक्ति |
सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै[6]
|उपालि नाई होते हुए भी बिना किसी भेद-भाव के संघ में प्रविष्ट किया गया था |नये बौद्धभिक्षु को ‘सद्धि-विहारिक’
तथा गुरू अथवा आचार्य को ‘उपाज्झाय’ कहा जाता था | उस काल के प्रमुख आचार्य थे- आनन्द,
मौदगल्यायन, सारिपुत्र, राहुल,
उपालि आदि | चीनी विद्वान ह्वेनसांग शीलभद्र
का समकालीन था, जिसने शीलभद्र से बौद्धशिक्षा की बहुत सारी
जानकारी प्राप्त की | उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन
–अध्यापन किया था | भिक्षुओं के वस्त्र
को ‘तिचिरा’ कहा जाता था | बौद्धशिक्षा ने चीन, जापान, कोरिया,
जावा, वर्मा, श्रीलंका,
तिब्बत आदि देशों के विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं को अपनी तरफ
आकर्षित किया | विद्या आरम्भ की न्यूनतम आयु आठ वर्ष और
अधिकतम बीस वर्ष थी |
संघ के प्रमुख नियम इस प्रकार थे- 1.एक स्थान पर इकट्ठे
होकर यदा-कदा सभायें करते रहना 2.एक होकर बैठक करना, एक हो उत्थान करना और संघ के
कार्यों का सम्पादन करना 3.संघ द्वारा विहित का उल्लंघन न करना, अविहित का अनुसरण
न करना, शाश्वत नियमों का सदा पालन करना 4.बड़े धर्मानुरागी, चिरप्रब्रजित, संघनायक
स्थविर भिक्षुओं का सत्कार करना 5.तृष्णा से दूर रहना 6.अरण्य में वास करना 7.ब्रह्मचर्य
का पालन करना[7]
|
निम्न प्रकार के कर्म करने पर भिक्षु को संघ से निकाल दिया
जाता था -1.जानबूझ कर वीर्यपात करना 2.कामवासना से स्त्री-स्पर्श 3.कामवासना से
स्त्री-वार्तालाप 4.अपनी प्रशंसा कर स्त्री को बुरे उद्देश्य से अपनी ओर आकृष्ट
करना 5.विवाह करवाना 6.संघ की अनुमति के बिना अपने लिये बिहार बनवाना 7.संघ की
अनुमति के बिना बड़ा बिहार बनवाना 8.क्रोध के अकारण ही भिक्षु पर पाराजित दोष लगाना
9.पाराजित-समान अपराध लगाना 10.संघ में फूट डालने का प्रयत्न करना 11.फूट डालने
वाले का साथ देना 12.गृहस्थ की अनुमति के बिना उसके घर में प्रवेश करना |
13.चेतावनी देने पर भी संघ का आदेश न सुनना |
वृषलसूत्र (सुत्तनिकाय) में गौतम बुद्ध कहते हैं –“जन्म
से कोई वृषल नहीं होता, जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता, कर्म से वृषल होता है,
कर्म से ब्राह्मण होता है[8]
|”
सुन्दरिक –भारद्वाज-सूत्र में गौतम बुद्ध कहते हैं-
“जाति मत पूछो आचरण पूछो (मा जातिं पुच्छ, चरणं च पुच्छ)” |
एक अन्य स्थान पर वह कहते हैं- “अतीत का अनुगमन मत करो
और न भविष्य की ही चिन्ता में ही पड़ो | जो अतीत है वह नष्ट हो गया और भविष्य अभी
आया नहीं | तो फिर रात-दिन निरालस्य तथा उद्योगी होकर वर्तमान को ही सुधारने का प्रयत्न करो[9]
|”
वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक चुनौतियाँ हैं जिनसे
निपटे बिना हम विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे | यूनेस्को के
सर्वेक्षण के अनुसार पूरे विश्व में शिक्षा की सकल नामांकन दर लगभग 30% है |
अधिकारियों और कर्मचारियों के लापरवाही के कारण आज देश में सबसे खराब स्थिति
शिक्षा व्यवस्था की है | शिक्षा को प्राइवेट सेक्टर में डाल देने के कारण हालत और
ज्यादा बिगड़ गये हैं निजी हाथों में पहुंचकर शिक्षा एक बड़े व्यापार में बदल गयी है
| प्राइवेट सेक्टर में शिक्षा को नफा और नुकसान की नजर से देखा जा रहा है | इस
सेक्टर में शिक्षा एक सौदे के रूप में तब्दील हो गयी है इसे रुपयों से खरीदा औउर
बेचा जा रहा है | प्रतिभा और योग्यता हाशिये पर चली गयी है | सम्पन्न वर्ग से आने
वाले बच्चे निजी हाथों में खेल रही वर्तमान शिक्षा को प्राप्त कर पा रहे हैं, जबकि
करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं |शिक्षा को राजनीति से बचना होगा, तभी शिक्षा के
अधिकार को बचाया जा सकेगा[10] | के वैदिककाल से लेकर आज तक इस शिक्षा पद्धति में
अनेकानेक परिवर्तन होते आ रहें हैं, परन्तु फिर भी इसमें सुधर की गुंजाइश बनी हुई
है |
[1].नीतिशतकम्, प्रकाशन
केन्द्र, लखनऊ, अनु.डॉ.रमेश कुमार झा, श्लोक संख्या 12, पृष्ठ संख्या 17
[3].ईशावास्योपनिषद्,
सम्पा.डॉ.राजदेव मिश्र, घनश्यामदास एण्ड सन्स, फ़ैजाबाद, सन् 2003 ई., श्लोक संख्या
12, पृष्ठ संख्या 19
[4]. कठोपनिषद्, डॉ.राजदेव
मिश्र, घनश्यामदास एण्ड सन्स फैजाबाद, सन् 2001 ई., प्रथम अध्याय, द्वितीय वल्ली,
श्लोक संख्या5, पृष्ठ संख्या 36
[5].भारतीय दर्शन, सिंह एवं
सिंह, ज्ञानदा प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 2000 ई., पृष्ठ संख्या 185
[6]. . कठोपनिषद्, डॉ.राजदेव मिश्र, घनश्यामदास एण्ड सन्स फैजाबाद, सन् 2001 ई., प्रथम अध्याय, प्रथमवल्ली, श्लोक संख्या5, पृष्ठ संख्या 1
[7].धम्मपदं, सम्पादक डॉ.सत्य
प्रकाश शर्मा, साहित्य भण्डार, मेरठ, भूमिका भाग पृष्ठ संख्या 11
[8]बौद्ध-धर्म-दर्शन, आचार्य
नरेन्द्रदेव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना, पृष्ठ संख्या 4
[10]शिक्षा का अधिकार : कितनी
बदली सूरत, अजामिल, समसामयिक घटनाचक्र, अतिरिक्तांक, बातें निबन्ध की, भाग-3,
पृष्ठ संख्या 43
उत्कृष्ट आलेख श्रीमान अरुण जी, "वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बौद्धकालीन शिक्षा की प्रासंगिकता" आपकी रूचि और विद्यार्थी जीवन में संस्कृत और प्राकृत भाषा में है। आपके उज्ज्वल भविष्य हेतु शुभ कामनाएँ।
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