सोमवार, 22 जुलाई 2019

प्रकृति-संरक्षण की चिन्ता : संस्कृत- काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप



प्रकृति-संरक्षण की चिन्ता : संस्कृत- काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप

परि+ आवरण शब्दों की संधि करने पर पर्यावरण शब्द बनता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है जो परित: (चारों ओर) आवृत  किए हुए हैं ।अब प्रश्न उठता है कि कौन किसे आवृत किए हुए हैं, इसका उत्तर है समस्त जीव धारियों को अजैविक या भौतिक पदार्थ घेरे हुए हैं । जीवधारियों तथा वनस्पतियों के चारों और को जो आवरण है उसे पर्यावरण कहते हैं।
प्राचीन काल से ही मानव और पर्यावरण में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । इस महत्त्व को वैदिक साहित्य से लेकर लौकिक साहित्य के ग्रन्थों में देखा जा सकता है । इन सभी ग्रन्थों में पर्यावरण को देवता के रुप में दिखाया गया है । पर्यावरण के प्रमुख घटक हैं- जल, वायु और मृदा । 
फिटिंग के अनुसार-“ जीवों के पारिस्थितिक कारकों का योग पर्यावरण है ।’’    
डॉक्टर हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर मध्य प्रदेश के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर संजय कुमार यादव ने अपनी पुस्तक "संस्कृत काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरूप" में  इन्हीं पर्यावरणीय  तत्वों का विशद विवेचन किया है।
डॉ. संजय इस पुस्तक में कुल 6 अध्याय हैं -
1. वेदों में पर्यावरण का दैव स्वरूप
2.आर्ष-काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
3. गद्य-काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
4.पद्य काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
(क) महाकाव्य
(ख) गीतिकाव्य
(ग) मुक्तक
5. चम्पूकाव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
6.रुपकों में पर्यावरण का दैव स्वरुप ।

प्रथम अध्याय में लेखक ने ऋग्वेद, यजुर्वेद (नमो वृक्षेभ्य:, नमो वन्याय च, वनानां पतये नम:), अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण ,छान्दोग्य उपनिषद, मत्स्यपुराण, श्रीमदभगवतगीता आदि की उदाहरण द्वारा पर्यावरण के महत्व को समझाया  है ।
द्वितीय अध्याय में आर्ष-काव्यों कें अन्तर्गत रामायण, महाभारत, स्कन्दपुराण विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि के उदाहरण द्वारा पर्यावर्णीय तत्वों के महत्व को बताया गया है ।
तृतीय अध्याय में गद्य काव्यों अवंतिसुन्दरी, दशकुमारचरितम्, कादम्बरी, वासवदत्ता, शिवराजविजयम् (कदलीदलकुञ्जायितस्य एतत्कुटीरस्य समन्तात् पुष्पवाटिका, पूर्वत: परम पवित्र पानीयं परस्सहस्र-पुण्डरीक पटलपरिलसितंपत्रिकुलकुजितपूजितं पय: पूरितं सर: आसीत् । दक्षिणतश्चैको निर्झरझर्झर ध्वनि ध्वनित दिगन्तर फल पटाला$स्वाद चपलित चञ्चुपतंगकुला$$क्रमणाधिक विनत शाख शाखि समूह व्याप्त: सुन्दर कन्दर: पर्वत: पर्वतखण्ड: आसीत्) , आदि के उदाहरण द्वारा पर्यावरण के संरक्षण को समझाया गया है ।
 चतुर्थ अध्याय में तीन खण्ड हैं (क) महाकाव्य -इसके अंतर्गत किरातार्जुनीयम् (तरसा भुवनानि यो विभर्ति ध्वनित ब्रह्मयत: परपवित्रम्। परितो दुरितानि य: पुनीते शिव तस्मै पवनात्मने नमस्ते ॥), कुमारसंभवम्, रघुवंशम्, शिशुपालवधम्, मेघदूतम्, भट्टिकाव्य, नैषधीयचरितम्, बुद्धचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, । (ख) गीतिकाव्य- हिमाद्रिपुत्रभिनंदन (श्रीकृष्ण सेमवाल), गजेन्द्रमोक्ष (डा.गोपीनाथ टण्डन )., श्रीसूर्यशार्दूलविक्रीडितम्, कर्णानंद, । मुक्तककाव्य-वैराग्यशतक । आदि के उदाहरण दिये है ।            
पञ्चम् अध्याय चम्पू-काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुपमें मदालसाचम्पू, यशस्तिलकचम्पू, चम्पूरामायण,  नलचम्पू आदि रचनाओं में पर्यावरणीय तत्त्वों की मीमांसा की गयी है ।
षष्ठम् अध्याय रुपकों में पर्यावरण का दैव स्वरुप” में अभिज्ञानशाकुन्तलम्, उत्तररामचरितम्, श्रीमद्भगवतगीता,प्रतिमानाटकम्, अविमारकम्, पंचरात्रम्, अभिषेकनाटकम्, महावीरचरितम्, नागानन्द, रत्नावली, मृच्छकटिकम्, वेणीसंहारम्, विक्रमोर्वशीयम्, अनर्घराघव, प्रबोधचन्द्रोदय आदि नाटकों में पर्यावरणीय तत्त्वों की गवेषणा की गयी है ।
डॉ. संजय यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । वह जितने अच्छे कवि आलोचक और समीक्षक हैं उतने ही सहज और सरल इंसान भी । उनके अब तक 50 से अधिक शोधपत्र देश -विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
अब तक उनकी पांच ‍‌ पुस्तकें 1-दण्डिकालीन जन जीवन 2-संस्कृत काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरूप 3-दण्डिसूक्तिरत्नम् 4-अग्निपुराण का नाट्य दर्शन 5-दण्डी: समय और साहित्य प्रकाशित हो चुकी हैं ।
पर्यावरण के दैवीय स्वरूप जैसे गूढ़ विषय को उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में (वैदिक काल से लेकर आधुनिक ग्रन्थों तक) स्पष्ट कर दिया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त ही सुग्राह्य रहे हो गया है । डॉ. संजय का यह आलोच्य ग्रन्थ उन शोधार्थियों के लिए अत्यन्त ही लाभप्रद है जो कि पर्यावरण पर शोध कार्य कर रहे हैं । आज जब समूचा विश्व पर्यावरण की समस्या से जूझ रहा है ऐसे वातावरण में यह ग्रन्थ तपती हुई धरती के लिए बारिश की फुहार जैसी है । आज इस पुस्तक को जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है । मौसम विज्ञान के शोधार्थी भी इस ग्रन्थ से लाभ उठा सकते हैं । आपकी लेखनी इसी प्रकार अबाध रूप से चलती रहे तथा आप नित नवीन विषयों से पाठकों को परिचित कराते रहें। अशेष मंगलकामनाएं ।

कृति - संस्कृत- काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
कृतिकार डा.संजय कुमार
प्रकाशकसुरुचि कला प्रकाशन, वाराणसी,
 प्रथम संस्करण- 2010,
मूल्य- 250 रू.,
पृष्ठ- 123         


प्रकृति-संरक्षण की चिन्ता : संस्कृत- काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप


प्रकृति-संरक्षण की चिन्ता : संस्कृत- काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप

परि+ आवरण शब्दों की संधि करने पर पर्यावरण शब्द बनता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है जो परित: (चारों ओर) आवृत  किए हुए हैं ।अब प्रश्न उठता है कि कौन किसे आवृत किए हुए हैं, इसका उत्तर है समस्त जीव धारियों को अजैविक या भौतिक पदार्थ घेरे हुए हैं । जीवधारियों तथा वनस्पतियों के चारों और को जो आवरण है उसे पर्यावरण कहते हैं।
प्राचीन काल से ही मानव और पर्यावरण में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । इस महत्त्व को वैदिक साहित्य से लेकर लौकिक साहित्य के ग्रन्थों में देखा जा सकता है । इन सभी ग्रन्थों में पर्यावरण को देवता के रुप में दिखाया गया है । पर्यावरण के प्रमुख घटक हैं- जल, वायु और मृदा । 
फिटिंग के अनुसार-“ जीवों के पारिस्थितिक कारकों का योग पर्यावरण है ।’’    
डॉक्टर हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर मध्य प्रदेश के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर संजय कुमार यादव ने अपनी पुस्तक "संस्कृत काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरूप" में  इन्हीं पर्यावरणीय  तत्वों का विशद विवेचन किया है।
डॉ. संजय इस पुस्तक में कुल 6 अध्याय हैं -
1. वेदों में पर्यावरण का दैव स्वरूप
2.आर्ष-काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
3. गद्य-काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
4.पद्य काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
(क) महाकाव्य
(ख) गीतिकाव्य
(ग) मुक्तक
5. चम्पूकाव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
6.रुपकों में पर्यावरण का दैव स्वरुप ।

प्रथम अध्याय में लेखक ने ऋग्वेद, यजुर्वेद (नमो वृक्षेभ्य:, नमो वन्याय च, वनानां पतये नम:), अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण ,छान्दोग्य उपनिषद, मत्स्यपुराण, श्रीमदभगवतगीता आदि की उदाहरण द्वारा पर्यावरण के महत्व को समझाया  है ।
द्वितीय अध्याय में आर्ष-काव्यों कें अन्तर्गत रामायण, महाभारत, स्कन्दपुराण विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि के उदाहरण द्वारा पर्यावर्णीय तत्वों के महत्व को बताया गया है ।
तृतीय अध्याय में गद्य काव्यों अवंतिसुन्दरी, दशकुमारचरितम्, कादम्बरी, वासवदत्ता, शिवराजविजयम् (कदलीदलकुञ्जायितस्य एतत्कुटीरस्य समन्तात् पुष्पवाटिका, पूर्वत: परम पवित्र पानीयं परस्सहस्र-पुण्डरीक पटलपरिलसितंपत्रिकुलकुजितपूजितं पय: पूरितं सर: आसीत् । दक्षिणतश्चैको निर्झरझर्झर ध्वनि ध्वनित दिगन्तर फल पटाला$स्वाद चपलित चञ्चुपतंगकुला$$क्रमणाधिक विनत शाख शाखि समूह व्याप्त: सुन्दर कन्दर: पर्वत: पर्वतखण्ड: आसीत्) , आदि के उदाहरण द्वारा पर्यावरण के संरक्षण को समझाया गया है ।
 चतुर्थ अध्याय में तीन खण्ड हैं (क) महाकाव्य -इसके अंतर्गत किरातार्जुनीयम् (तरसा भुवनानि यो विभर्ति ध्वनित ब्रह्मयत: परपवित्रम्। परितो दुरितानि य: पुनीते शिव तस्मै पवनात्मने नमस्ते ॥), कुमारसंभवम्, रघुवंशम्, शिशुपालवधम्, मेघदूतम्, भट्टिकाव्य, नैषधीयचरितम्, बुद्धचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, । (ख) गीतिकाव्य- हिमाद्रिपुत्रभिनंदन (श्रीकृष्ण सेमवाल), गजेन्द्रमोक्ष (डा.गोपीनाथ टण्डन )., श्रीसूर्यशार्दूलविक्रीडितम्, कर्णानंद, । मुक्तककाव्य-वैराग्यशतक । आदि के उदाहरण दिये है ।            
पञ्चम् अध्याय चम्पू-काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुपमें मदालसाचम्पू, यशस्तिलकचम्पू, चम्पूरामायण,  नलचम्पू आदि रचनाओं में पर्यावरणीय तत्त्वों की मीमांसा की गयी है ।
षष्ठम् अध्याय रुपकों में पर्यावरण का दैव स्वरुप” में अभिज्ञानशाकुन्तलम्, उत्तररामचरितम्, श्रीमद्भगवतगीता,प्रतिमानाटकम्, अविमारकम्, पंचरात्रम्, अभिषेकनाटकम्, महावीरचरितम्, नागानन्द, रत्नावली, मृच्छकटिकम्, वेणीसंहारम्, विक्रमोर्वशीयम्, अनर्घराघव, प्रबोधचन्द्रोदय आदि नाटकों में पर्यावरणीय तत्त्वों की गवेषणा की गयी है ।
डॉ. संजय यादव बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । वह जितने अच्छे कवि आलोचक और समीक्षक हैं उतने ही सहज और सरल इंसान भी । उनके अब तक 50 से अधिक शोधपत्र देश -विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
अब तक उनकी पांच ‍‌ पुस्तकें 1-दण्डिकालीन जन जीवन 2-संस्कृत काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरूप 3-दण्डिसूक्तिरत्नम् 4-अग्निपुराण का नाट्य दर्शन 5-दण्डी: समय और साहित्य प्रकाशित हो चुकी हैं ।
पर्यावरण के दैवीय स्वरूप जैसे गूढ़ विषय को उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में (वैदिक काल से लेकर आधुनिक ग्रन्थों तक) स्पष्ट कर दिया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त ही सुग्राह्य रहे हो गया है । डॉ. संजय का यह आलोच्य ग्रन्थ उन शोधार्थियों के लिए अत्यन्त ही लाभप्रद है जो कि पर्यावरण पर शोध कार्य कर रहे हैं । आज जब समूचा विश्व पर्यावरण की समस्या से जूझ रहा है ऐसे वातावरण में यह ग्रन्थ तपती हुई धरती के लिए बारिश की फुहार जैसी है । आज इस पुस्तक को जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है । मौसम विज्ञान के शोधार्थी भी इस ग्रन्थ से लाभ उठा सकते हैं । आपकी लेखनी इसी प्रकार अबाध रूप से चलती रहे तथा आप नित नवीन विषयों से पाठकों को परिचित कराते रहें। अशेष मंगलकामनाएं ।

कृति - संस्कृत- काव्यों में पर्यावरण का दैव स्वरुप
कृतिकार डा.संजय कुमार
प्रकाशकसुरुचि कला प्रकाशन, वाराणसी,
 प्रथम संस्करण- 2010,
मूल्य- 250 रू.,
पृष्ठ- 123         


पवित्र प्रेम की भावाभिव्यञ्जना : तीन पहर


पवित्र प्रेम की भावाभिव्यञ्जना : तीन पहर

प्रेम के बिना यह संसार अधूरा है । सुप्रसिद्ध शायर आमिर उस्मानी के अनुसार-“आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का गम कैसा/आदमी मोहब्बत में सब कुछ भूल जाता है ।” प्रेम का दूसरा नाम ही भगवान है । प्रेम के रुप पृथक्‍-पृथक्‍ हो सकते हैं,पर करते सभी हैं । कोई लौकिक प्रेम में मग्‍न है तो कोई पारलौकिक । परन्तु आशिक और माशूका के प्रेम का जो आनन्द है, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता । वह अवर्णनीय है । प्राचीनकाल से लेकर अद्यतन इस पर न जाने कितने गद्य-पद्य लिखे जा चुके हैं और लिखे जायेंगे कहा नहीं जा सकता । यह कभी न समाप्त होने वाला एक ऐसा विषय है, जिस पर तब तक रचनाएँ रची जायेंगी जब तक इस पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व रहेगा । हाँ कालक्रम के साथ इन रचनाओं में अधिकता या न्यूनता आ सकती है ।
समकालीन साहित्यकारों में प्रो.रवीन्द्र प्रताप सिंह कोई नया नाम नहीं है । उनकी लेखन शैली ही उनकी पहचान है । लीक से हटकर लिखना उनकी आदत में शुमार है । हाल में ही उनका अवधी नाटक "तीन पहर" प्रकाशित हुआ है । वैसे लेखक प्रोफेसर हैं तो विषय की नवीनता उनकी रचनाओं में स्वभाविक है, परन्तु जो अन्वेषण करके वे पाठकों को देते हैं, उससे आश्चर्यचकित हुए बिना पाठक रह नहीं पाता है । प्रो.सिंह हैं तो अंग्रेजी के प्रोफेसर पर हिन्दी और अवधी के भी वे सिद्धहस्त कलमकार हैं ।
अगर प्रेम सच्चा है तो उसे प्राप्त करने से कोई रोक नहीं सकता है । लाख रुकावट और विघ्न बाँधाएँ भी चाहने वाले के सामने दीवार नहीं खड़ा कर सकती । जो जिसके लिए बना है उसे प्राप्त हो कर ही रहेगा । जाति-पाँति, ऊँच-नीच, गोरा-काला, कोई मयाने नहीं रखता । सच्चा प्रेम दिलों का नहीं दो आत्माओं का मेल है । दो दिलों का एकाकार हो जाना ही प्रेम है ।
सहजू-(आवाज ऊँची कै कय) ठीक है, जात पाँत धरम, कुछ नाही, कुछ नाही होत है ई सब ....।
प्रेम की भी अपनी एक मर्यादा होती है, जो बातें लोग अपने घर परिवार में नहीं कह पाते हैं उसे यार दोस्तों के माध्यम से घर वालों तक पहुँचवाते हैं । जुग्गू भी अपने दोस्त सहजू और हौंसिला से अपने दिल की बात कहता है ।
जुग्गू- बोली? कहव तौ बोल दई, नाही तौ छोड़ौ ।
सहजू हौंसिला केर साथ-साथ सुर- हाँ भई बोलौ ।
जुग्गू-हम गैरजात से प्रेम करी ।
प्रो.सिंह का भी यह मानना है कि प्रेम और आकर्षण दो अलग-अलग चीजें हैं प्रेम शाश्वत है और आकर्षण क्षणिक ।
सहजू- (गम्भीर बन कै) अच्छा......। सोच लेव भइया इव प्रेम आय की आकरषन । दुइ तीन दिन मा कउन प्रेम –विरह ।
प्रो. सिंह कहते हैं कि सच्चा प्रेम भगवान का रूप है परन्तु आज यह बहुत मुश्किल से प्राप्त होता है 99% प्रेम तो केवल दिखावा है । जिसमें वासना कूट-कूट कर भरी होती है क्षणिक आनन्द के लिए युवक युवतियां एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं और वासना की भूख मिटते ही प्रेम का सारा बुखार उतर जाता है । ऐसे प्रेम में सच्चा प्रेमी या प्रेमिका अपने को ठगा महसूस करता है । सच्चा प्रेम करने वाला यह नहीं समझ पाता कि उससे कौन सी गलती हो गई जिसकी सजा उसे मिल रही है ।
सूक्ष्मदृष्टि डालने पर ऐसा प्रतीत होता है कि भोजपुरी भाषा की लोककलाओं के सहेजने का जो कार्य महेन्द्र मिश्र और भिखारी ठाकुर ने किया था, अवधी में उसी लोककला को बचाने का कार्य प्रो. रवीन्द्र प्रताप सिंह कर रहे हैं ।
भाषा के प्रयोग में प्रो.रवीन्द्र तनिक भी नहीं हिचकिचाते । उन्होंने ठेठ अवधी शब्दों का प्रयोग अपने इस नाटक में किया है, जो कथाकथित अपने को सभ्य कहलाने वालों को अश्लील लग सकता है । परन्तु भाषा और बोली का आनन्द तभी है जब वह अपना अल्हड़पन लिए हुए हो । जैसे-लंठ, लौंडे, सरऊ, लद्द से, पेलिहैं, ओंकत-पोंकत, नीक-सूक, नास पीटा, पलवैयय काटी, कंटाइन, टोर्रा, जंडइल, हिंया कटहर छीलत हौ बैठा आदि ।
गंवई लोकोक्तियों (कहावतों) का भी खूब प्रयोग हुआ है ।
1.बिन मारे बैरी मरै
इव सुख कहाँ समाय
2.नीम केरी चिपटी नीमै मा लागी
3.करिया अच्छर भंइस बराबर
4.दाल भात मा मूसर चन्द आदि ।
अवधी नाटक होने के बावजूद भी यह नाटक अरस्तू द्वारा प्रतिपादित नाटक के 6 तत्त्वों (कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, शैली, विचार या संवाद, अभिनेयता और गीत) से परिपूर्ण है ।
प्रो.रवीन्द्र प्रताप सिंह इस नवीन प्रयोग के लिए बधाई के पात्र हैं । उनको साधुवाद । उन्होंने समाप्ति की ओर बढ रही लोककलाओं को अपने नाटक के माध्यम से संवर्धित और संरक्षित करने का एक अच्छा प्रयास किया है । इस नई रचना के लिए अशेष मंगलकामनाएं ।

समीक्षक- डॉ.अरुण कुमार निषाद
पुस्तक- तीन पहर (अवधी नाटक)
लेखक- प्रो.रवीन्द्र प्रताप सिंह
प्रकाशन- सनलाइम पब्लिकेशन्स, जयपुर ।
संस्करण- प्रथम संस्करण 2018
मूल्य-180 रुपया
पृष्ठ संख्या-64




वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बौद्धकालीन शिक्षा की प्रासंगिकता


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बौद्धकालीन शिक्षा की प्रासंगिकता
अरुण कुमार निषाद
शोधच्छात्र
संस्कृत एवं प्राकृत भाषा विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ |
मोबाइल न.9454067032
ईमेल-arun.ugc@gmail.com

प्राचीनकाल से ही मानव और शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है | वैदिक संस्कृति की नींव वैदिक शिक्षा है | शिक्षा उतनी ही प्राचीन है जितनी मावन सभ्यता | शिक्षा केवल स्कूल कालेजों में पढ़ाई जाने वाली विषयवस्तु नहीं है | यह तो जीवन पर्यन्त अनुभव करने वाली एक सतत् प्रक्रिया है | यह शिक्षा धार्मिक के साथ ही लौकिक भी थी |   इसी शिक्षा बल पर ही आदमी सभ्यता के उच्चतम शिखर पर आसीन हो पाया है | दर्शनशास्त्र के विद्वानों का मानना है कि – मनुष्य के जीवन का जो उद्देश्य है, वही शिक्षा का भी है | प्राचीन भारतीय शिक्षा वैदिकशिक्षा पर आधारित थी | नीतिशतककार भर्तृहरि का अभिमत है-
साहित्य संगीत कला विहीन:
साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन: |
तृणं न खादन्नपि जीवमान-
स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम[1] ||
अपि च –
येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं गुणो न धर्म: |
ते मत्र्यलोके भुविभारभूता:
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति[2] ||
इसी भाव को ईशावास्योपनिषद् में इस प्रकार कहा है-  
अन्धं तम; प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते |
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:[3] || 
कठोपनिषद् में भी लिखा है-
अविद्यायामन्तरे वर्तमाना:
स्वयं धीरा: पण्डितं मन्यमाना: |
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढ़ा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:[4] ||              
बौद्धशिक्षा का सूत्रपात महात्मा बुद्ध ने स्वयं किया | इस शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बौद्ध बिहारों का काफी योगदान रहा है | इस शिक्षा का अर्थ था-समाज में फैली हुई बुराईयों को दूर करना | उनका कहना था – “केवल वेदपाठ, याज्ञिक अनुष्ठान, घोर तपस्या, नंगा रहना, जटा रखना सर्वथा लाभहीन है | गौतम बुद्ध ने अपना उपदेश मध्यम मार्ग में दिया | इस मध्यम प्रतिपदा के आठ अंग हैं[5]- सम्यक्    दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् विचार, और सम्यक् ध्यान | सारे धर्मों की तरह बौद्धधर्म का भी अंतिम लक्ष्य निर्वाण अर्थात् मोक्ष है | निर्वाण क्या है –बुद्ध के अनुसार निर्वाण  उस अवस्था का नाम है, जिसमें ज्ञान द्वारा अविद्या रूपी अन्धकार दूर हो जाता है | यह अवस्था इसी जन्म में इसी लोक में प्राप्त की जा सकती है | बौद्धशिक्षा का मुख्य ग्रन्थ ‘धम्मपद’ है | संघ (बौद्ध विश्वविद्यालयों) में जातिगत अथवा लैंगिक भेद-भाव का कोई स्थान नहीं था | जैसा कि कहा गया है- “ओ३म् सह नाववतु | सह नौ भुनक्ति | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै[6] |उपालि नाई होते हुए भी बिना किसी भेद-भाव के संघ में प्रविष्ट किया गया था |नये बौद्धभिक्षु को सद्धि-विहारिकतथा गुरू अथवा आचार्य को उपाज्झायकहा जाता था | उस काल के प्रमुख आचार्य थे- आनन्द, मौदगल्यायन, सारिपुत्र, राहुल, उपालि आदि | चीनी विद्वान ह्वेनसांग शीलभद्र का समकालीन था, जिसने शीलभद्र से बौद्धशिक्षा की बहुत सारी जानकारी प्राप्त की | उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन अध्यापन किया था | भिक्षुओं के वस्त्र को तिचिराकहा जाता था | बौद्धशिक्षा ने चीन, जापान, कोरिया, जावा, वर्मा, श्रीलंका, तिब्बत आदि देशों के विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं को अपनी तरफ आकर्षित किया | विद्या आरम्भ की न्यूनतम आयु आठ वर्ष और अधिकतम बीस वर्ष थी |  
संघ के प्रमुख नियम इस प्रकार थे- 1.एक स्थान पर इकट्ठे होकर यदा-कदा सभायें करते रहना 2.एक होकर बैठक करना, एक हो उत्थान करना और संघ के कार्यों का सम्पादन करना 3.संघ द्वारा विहित का उल्लंघन न करना, अविहित का अनुसरण न करना, शाश्वत नियमों का सदा पालन करना 4.बड़े धर्मानुरागी, चिरप्रब्रजित, संघनायक स्थविर भिक्षुओं का सत्कार करना 5.तृष्णा से दूर रहना 6.अरण्य में वास करना 7.ब्रह्मचर्य का पालन करना[7] |
निम्न प्रकार के कर्म करने पर भिक्षु को संघ से निकाल दिया जाता था -1.जानबूझ कर वीर्यपात करना 2.कामवासना से स्त्री-स्पर्श 3.कामवासना से स्त्री-वार्तालाप 4.अपनी प्रशंसा कर स्त्री को बुरे उद्देश्य से अपनी ओर आकृष्ट करना 5.विवाह करवाना 6.संघ की अनुमति के बिना अपने लिये बिहार बनवाना 7.संघ की अनुमति के बिना बड़ा बिहार बनवाना 8.क्रोध के अकारण ही भिक्षु पर पाराजित दोष लगाना 9.पाराजित-समान अपराध लगाना 10.संघ में फूट डालने का प्रयत्न करना 11.फूट डालने वाले का साथ देना 12.गृहस्थ की अनुमति के बिना उसके घर में प्रवेश करना | 13.चेतावनी देने पर भी संघ का आदेश न सुनना |
वृषलसूत्र (सुत्तनिकाय) में गौतम बुद्ध कहते हैं –“जन्म से कोई वृषल नहीं होता, जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता, कर्म से वृषल होता है, कर्म से ब्राह्मण होता है[8] |”
सुन्दरिक –भारद्वाज-सूत्र में गौतम बुद्ध कहते हैं- “जाति मत पूछो आचरण पूछो (मा जातिं पुच्छ, चरणं च पुच्छ)” | 
एक अन्य स्थान पर वह कहते हैं- “अतीत का अनुगमन मत करो और न भविष्य की ही चिन्ता में ही पड़ो | जो अतीत है वह नष्ट हो गया और भविष्य अभी आया नहीं | तो फिर रात-दिन निरालस्य तथा उद्योगी होकर वर्तमान को ही  सुधारने का प्रयत्न करो[9] |”
वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक चुनौतियाँ हैं जिनसे निपटे बिना हम विद्यार्थियों के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे | यूनेस्को के सर्वेक्षण के अनुसार पूरे विश्व में शिक्षा की सकल नामांकन दर लगभग 30% है | अधिकारियों और कर्मचारियों के लापरवाही के कारण आज देश में सबसे खराब स्थिति शिक्षा व्यवस्था की है | शिक्षा को प्राइवेट सेक्टर में डाल देने के कारण हालत और ज्यादा बिगड़ गये हैं निजी हाथों में पहुंचकर शिक्षा एक बड़े व्यापार में बदल गयी है | प्राइवेट सेक्टर में शिक्षा को नफा और नुकसान की नजर से देखा जा रहा है | इस सेक्टर में शिक्षा एक सौदे के रूप में तब्दील हो गयी है इसे रुपयों से खरीदा औउर बेचा जा रहा है | प्रतिभा और योग्यता हाशिये पर चली गयी है | सम्पन्न वर्ग से आने वाले बच्चे निजी हाथों में खेल रही वर्तमान शिक्षा को प्राप्त कर पा रहे हैं, जबकि करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं |शिक्षा को राजनीति से बचना होगा, तभी शिक्षा के अधिकार को बचाया जा सकेगा[10] | के  वैदिककाल से लेकर आज तक इस शिक्षा पद्धति में अनेकानेक परिवर्तन होते आ रहें हैं, परन्तु फिर भी इसमें सुधर की गुंजाइश बनी हुई है | 


[1].नीतिशतकम्, प्रकाशन केन्द्र, लखनऊ, अनु.डॉ.रमेश कुमार झा, श्लोक संख्या 12, पृष्ठ संख्या 17       
[2].तदेव,श्लोक संख्या 13, पृष्ठ संख्या 18
[3].ईशावास्योपनिषद्, सम्पा.डॉ.राजदेव मिश्र, घनश्यामदास एण्ड सन्स, फ़ैजाबाद, सन् 2003 ई., श्लोक संख्या 12, पृष्ठ संख्या 19            
[4]. कठोपनिषद्, डॉ.राजदेव मिश्र, घनश्यामदास एण्ड सन्स फैजाबाद, सन् 2001 ई., प्रथम अध्याय, द्वितीय वल्ली, श्लोक संख्या5, पृष्ठ संख्या 36    
[5].भारतीय दर्शन, सिंह एवं सिंह, ज्ञानदा प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 2000 ई., पृष्ठ संख्या 185  
[6]. . कठोपनिषद्, डॉ.राजदेव मिश्र, घनश्यामदास एण्ड सन्स फैजाबाद, सन् 2001 ई., प्रथम अध्याय, प्रथमवल्ली, श्लोक संख्या5, पृष्ठ संख्या 1
[7].धम्मपदं, सम्पादक डॉ.सत्य प्रकाश शर्मा, साहित्य भण्डार, मेरठ, भूमिका भाग पृष्ठ संख्या 11 
[8]बौद्ध-धर्म-दर्शन, आचार्य नरेन्द्रदेव, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना, पृष्ठ संख्या 4     
[9] .धम्मपदं, सम्पा.सत्य प्रकाश शर्मा, साहित्य भण्डार, मेरठ, भूमिका भाग, पृष्ठ संख्या 9
[10]शिक्षा का अधिकार : कितनी बदली सूरत, अजामिल, समसामयिक घटनाचक्र, अतिरिक्तांक, बातें निबन्ध की, भाग-3, पृष्ठ संख्या 43