बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

श्रीहर्ष

श्रीहर्ष 12वीं सदी के संस्कृत के प्रसिद्ध कवि। वे बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों - विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को सुशोभित करते थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘नैषधीयचरित्’ महाकाव्य उनकी कीर्ति का स्थायी स्मारक है। नैषधचरित में निषध देश के शासक नल तथा विदर्भ के शासक भीम की कन्या दमयन्ती के प्रणय सम्बन्धों तथा अन्ततोगत्वा उनके विवाह की कथा का काव्यात्मक वर्णन मिलता है।

परिचय

श्रीहर्ष में उच्चकोटि की काव्यात्मक प्रतिभा थी तथा वे अलंकृत शैली के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। वे शृंगार के कला पक्ष के कवि थे। श्रीहर्ष महान कवि होने के साथ-साथ बड़े दार्शनिक भी थे। ‘खण्डन-खण्ड-खाद्य’ नामक ग्रन्थ में उन्होंने अद्वैत मत का प्रतिपादन किया। इसमें न्याय के सिद्धान्तों का भी खण्डन किया गया है।
श्रीहर्ष, भारवि की परम्परा के कवि थे। उन्होंने अपनी रचना विद्वज्जनों के लिए की, न कि सामान्य मनुष्यों के लिए। इस बात की उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं थी कि सामान्य जन उनकी रचना का अनादर करेंगे। वह स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अपने काव्य में कई स्थानों पर गूढ़ तत्त्वों का समावेश कर दिया था, जिसे केवल पण्डितजन ही समझ सकते हैं। अत: पण्डितों की दृष्टि में तो उनका काव्य माघ तथा भारवि से भी बढ़कर है। किन्तु आधुनिक विद्वान इसे कृत्रिमता का भण्डार कहते हैं।
महाकवि श्रीहर्ष की माता का नाम मामल्ल देवली और पिता का 'हीरपंडित' था। गहड़वालवंशी काशी के राजा विजयचंद्र और उनके पुत्र राजा जयचंद्र (जयतचंद्र) - दोनों के वे राजसभापंडित थे। राजा कान्यकुब्जेश्वर कहे जाते थे, यद्यपि उनकी राजधानी बाद में चलकर काशी में हो गई थी। कान्यकुब्जराज द्वारा समादृत होने के कारण उन्हें राजसभा में दो बीड़े पान तथा आसन का सम्मान प्राप्त था। इन राजाओं का शासनकाल 1156 ई. से 1193 ई. तक माना गया है। अत: श्रीहर्ष भी बारहवीं शती के उत्तरार्ध में विद्यमान थे। किंवदंती के अनुसार 'चिंतामणि' मंत्र की साधना द्वारा त्रिपुरा देवी के प्रसन्न होने से उन्हें वरदान मिला तथा वाणी, काव्यनिर्माणशक्ति एवं पांडित्य की अद्भुत क्षमता उन्हें प्राप्त हुई। यह भी कहा जाता है कि काव्यप्रकाशकार 'मम्मट' उनके मामा थे जिन्होंने 'नैषध महाकाव्य' में आ गए कुछ दोषों से श्रीहर्ष को परिचित कराया। श्रीहर्ष केवल काव्यनिर्माण की विलक्षण प्रतिभा से ही संपन्न न थे अपितु वे उच्च कोटि के दर्शन-शास्त्र मर्मज्ञ भी थे। सुकुमार वस्तुमय साहित्यनिर्माण में उनकी वाणी का जैसा अबाधित विलास प्रगट होता है वैसी ही शक्ति प्रौढ़ तर्कों से पुष्ट, शास्त्रीय ग्रंथ के निर्माण में भी उन्हें प्राप्त थी। पंडित मंडली में प्रसिद्ध जनश्रुति के अनुसार तार्किकशिरोमणि उदयनाचार्य को भी उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। नैयायिकों की तर्कमूलक पद्धति से न्याय के सिद्धांतों का खंडन करनेवाला श्रीहर्ष का 'खंडनखंडखाद्य' नामक ग्रंथ अद्वैत वेदांत की अति प्रकृष्ठ और प्रौढ़ रचना मानी जाती है। इसके अतिरिक्त 'स्थैर्यविचारप्रकरण' और 'शिवशक्तिसिद्धि' (या 'शिवशक्तिसिद्धि') नामक दो दार्शनिक ग्रंथों का श्रीहर्ष ने निर्माण किया था। 'विजय प्रशस्ति', 'गौडोवींशकुलप्रशस्ति' तथा 'छिंदप्रशस्ति' नामक तीन प्रशस्तिकाव्यों के तथा 'अर्णव वर्णन' और 'नवसाहसांकचरित' चंपू काव्यों के भी वे प्रणेता थे।

नैषधीयचरित्

श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरित्‌' 'बृहत्त्रयी' में बृहत्तम महाकाव्य है। परम प्रौढ़ शास्त्रीय वैदुष्य से ओतप्रोत, कविप्रोढ़ोक्तिसिद्ध कल्पना से वैदग्ध्यपूर्ण और अलंकृत काव्यशैली के उत्कृष्टतम महाकाव्य के रूप में 'नैषधीय चरित्‌' का संस्कृत महाकाव्यों में अद्वितीय स्थान है। 'भारवि' के किरातार्जुनीयम् से आरंभ अलंकरणप्रधान सायास काव्यरचना शैली का चरमोत्कर्ष नैषधीयचरित्‌ (नैषधचरित्‌ या नैषध काव्य) में विकसित है। महाभारत के नलोपाख्यान से ली गयी इस महाकाव्य की कथावस्तु में नल और दमयंती के पूर्वराग, विरह, स्वयंवर, विवाह और नवदंपतिमिलन एवं संगमकेलियों का वर्णन हुआ है। प्रसंगत: अन्य मध्यागत विषय भी काव्यप्रबंध में गुंफित हैं। 22 सर्गोंवाले इस विशालकाय काव्य के अनेक सर्गों की श्लोकसंख्या 150 से भी अधिक है। परंतु इसका वर्ण्य कथानक काव्याकार के अनुपात में छोटा है। कथाविस्तार में सीमालघुता रहने पर अवांतर प्रसंगों में वर्णनविस्तृति के कारण ही इसका काव्यकलेवर बड़ा है। चार सर्गों में नल का श्रोत्रानुराग, पूर्वरागजन्य विरह, हंसमिलन का दौत्य, दमयंतीविरह आदि मात्र वर्णित है। इंद्र, अग्नि, वरुण, यम इन चार देवां में से किसी को पतिरूप में वरण करने के लिए नल का दूत बनकर दमयंती के यहाँ जाना, उसे समझाना बुझाना और दूतकार्य में असफल होना - इतनी ही कथा का वर्णन 5 से 9 सर्ग तक दसवें सर्ग से सोलहवें सर्ग तक, सांगोपांग, दमयंती स्वयंवर, नलवरण और विवाहादि का विवरण दिया गया है। सत्रहवाँ सर्ग कलि और देवों के बीच संवाद है जिसमें नास्तिकवाद और उसका खंडन है। अठारहवें सर्ग में नवविवाहित दंपति का प्रथम समागम वर्णित है। शेष चार सर्गों में-राजा रानी की दिनचर्या, विलास विहार आदि के सरस विवरण प्रस्तुत किए गए हैं। इतनी स्वल्प कथावस्तु मात्र को लेकर इस खंडकाव्यदेशीय महाकाव्य की रचना हुई है।
इस काव्य का मुख्य वर्ण्यप्रवाह शृंगार रस है। विविध उपधाराओं और अवांतर तरंगभगों के साथ वही रसधारा आद्यंत प्रवहमान है, चाहे स्थान स्थान पर उसकी गति कितनी ही मंद क्यों न हो। दंडी आदि काव्यशास्त्रियों के महाकाव्य-लक्षणानुसार ही प्राय: अधिकांश वर्ण्यविषय गुंफित हैं। तेरहवें सर्ग में श्लिष्ट काव्य उत्कर्ष के चरमबिंदु पर पहुँचा है जहाँ प्राय: सर्ग भर में श्लिष्टार्थपरक पद्यों द्वारा एक साथ ही इंद्र, अग्नि, वरुण, ययम और नल का प्रशस्तिगान किया गया है। अलंकृत और चमत्कारचित्रित काव्यरचना शैली से बोझिल होने पर भी 'नैषध' में अद्भुत काव्यात्मक प्रौढ़ता और आकर्षण है। भंगिमावैविध्य के साथ वर्णन की अनेकचित्रता, कल्पना की चित्रविचित्र उड़ान, प्रकृतिजगत्‌ का सजीव रूपचित्रण, भावों का समुचित निवेश, ललनारूप का अलंकृतरूढ़ पर प्रोढ़िरमणीय सौंदर्यवर्णन, अर्थगुंफन में नव्य अपूर्वता, संस्कृत भाषा के शब्दकोश पर असाधारण अधिकार, शास्त्रीय पक्षों की मार्मिक और प्रौढ़ संयोजना, अलंकारमूलक चमत्कारसर्जन की विलक्षण प्रतिभा, वैलासिक और उच्चवर्गीय कामकेलि एवं सुखविहार का मोहक चित्रण आदि में अपूर्व सामर्थ्य के कारण श्रीहर्ष कवि को संस्कृत-पंडितमंडली में जो प्रतिष्ठा मिली है वह अन्य को अप्राप्त है। पाँच अर्थोंवाले (पंचनली) (13वाँ सर्ग) से उनके नानार्थ शब्दप्रयोग की अद्भुत क्षमता सिद्ध है। प्रस्तुत अप्रस्तुत रूप में दार्शनिक और शास्त्रीय ज्ञान की प्रौढ़ता का प्रकाश सर्वत्र काव्य में बिखरा हुआ है। वे अद्वैत वेदांत ही नहीं तंत्र, योग, न्याय, मीमांसा आदि के भी प्रौढ़ मर्मज्ञ थे। पर दर्शन के ज्ञानकाठिन्य ने उनके कविहृदय की भावुकता के प्रवाहन में समय समय पर सहायता भी दी है। इन सबके साथ दृश्यजगत्‌ की स्वाभाविक सहज छवियों में भी उनका मन रमा रहा। प्रथम सर्ग में नल के सामने प्रकट हंस के जिन नैसर्गिक और पक्षिसंबद्ध रूपों, चेष्टाओं और व्यापारों का अंकन हुआ है - उनकी स्वभावोक्ति में प्रकृति के प्रति दृढ़ासक्ति लक्षित है। इन्हीं सब वैशिष्टों के कारण श्रीहर्ष को विलक्षण प्रतिभाशाली, शास्त्रमर्मज्ञ, अप्रस्तुत विधान में परम समर्थ और अलंकरण काव्यरचना में अतिनिपुण महाकवि कहा गया है। वाल्मीकि, कालिदास आदि के समान भावलोक के सहजांकन में विशेष अनुराग के न रहने पर भी अपने पांडित्य और कलापक्ष की निपुणता के कारण कवि के रूप में उनका अपना विशिष्ट महत्व और स्थान है। इसी कारण बृहत्त्रयी के कवियों में उन्हें उच्च प्रतिष्ठा मिली है।

भारवि

भारवि (छठी शताब्दी) संस्कृत के महान कवि हैं। वे अर्थ की गौरवता के लिये प्रसिद्ध हैं ("भारवेरर्थगौरवं")। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य उनकी महान रचना है। इसे एक उत्कृष्ट श्रेणी की काव्यरचना माना जाता है। इनका काल छठी-सातवीं शताब्दि बताया जाता है। यह काव्य किरातरूपधारी शिव एवं पांडुपुत्र अर्जुन के बीच के धनुर्युद्ध तथा वाद-वार्तालाप पर केंद्रित है। महाभारत के एक पर्व पर आधारित इस महाकाव्य में अट्ठारह सर्ग हैं। भारवि सम्भवतः दक्षिण भारत के कहीं जन्मे थे। उनका रचनाकाल पश्चिमी गंग राजवंश के राजा दुर्विनीत तथा पल्लव राजवंश के राजा सिंहविष्णु के शासनकाल के समय का है।
कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है।

आचार्य बलदेव उपाध्याय

आचार्य बलदेव उपाध्याय (१० अक्टूबर १८९९ - १० अगस्त १९९९) हिन्दी और संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान, साहित्येतिहासकार, निबन्धकार तथा समालोचक थे। उन्होने अनेकों ग्रन्थों की रचना की, निबन्धों का संग्रह प्रकाशित किया तथा संस्कृत वाङ्गमय का इतिहास लिखा। वे संस्कृत साहित्यकी हिन्दी में चर्चा के लिए जाने जाते हैं। उनके पूर्व संस्कृत साहित्य से सम्बन्धित अधिकांश पुस्तकें संस्कृत में हैं या अंग्रेजी में।
आचार्य बलदेव उपाध्याय को भारत सरकार द्वारा सन १९८४ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

जीवन परिचय

आचार्य जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सोनबरसा गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

कृतियाँ

क्रमांकग्रन्थ का नामप्रकाशकवर्ष
1.रसिक गोविन्द और उनकी कविताहिन्दी नागरी प्रचारिणी सभा बलिया1926
2.सूक्ति मुक्तावलीहरिदास कम्पनी, मथुरा1932
3.संस्कृत कवि चर्चामास्टर खेदीलाल, वाराणसी1932
4.भारतीय दर्शनशारदा मंदिर, वाराणसी1942
5.संस्कृत साहित्य का इतिहासशारदा मंदिर वाराणसी1944
6.धर्म और दर्शनशारदा मंदिर, वाराणसी1945
7.संस्कृत वाङ्गमयशारदा मंदिर, वाराणसी1945
8.वैदिक कहानियाँशारदा मंदिर, वाराणसी1946
9.बौद्ध दर्शन मीमांसाशारदा मंदिर, वाराणसी1946
10.आर्य संस्कृति के मूलाधारशारदा मंदिर, वाराणसी1947
11.भारतीय साहित्य शास्त्रप्रसाद परिषद, वाराणसी1948
12.भागवद् सम्प्रदायनागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी1954
13.वैदिक साहित्य और संस्कृतिशारदा संस्थान, वाराणसी1955
14.संस्कृत आलोचनाउ प्र संस्कृत सम्स्थान, लखनऊ1956
15.काव्यानुशीलनरमेश बुक डिपॉट, जयपुर1956
16.भारतीय वाङ्गमय में श्री राधाबिहार राजभाषा परिषद, पटना1963
17.संस्कृत सुकवि समीक्षाचौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी1963
18.पुराण विमर्शचौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी1965
19.संस्कृत शास्त्रों का इतिहासचौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी1969
20.भारतीय धर्म और दार्शनचौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी1977
21.संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहासशारदा सम्स्थान, वाराणसी1978
22.काशी की पाण्डित्य परम्पराशारदा संस्थान, वाराणसी1985
23.भारतीय धर्म और दर्शन का अनुशीलनशारदा संस्थान, वाराणसी1985
24.विमर्शचिन्तामणिःशारदा संस्थान, वाराणसी1987

प्रो. रमाकान्त शुक्ल

जीवनी 

डॉ प्रो. रमाकान्त शुक्ल उत्तर प्रदेश के भारतीय राज्य में खुर्जा शहर में, 1940 के क्रिसमस की पूर्व संध्या पर पैदा हुआ था। उनका प्रारंभिक अध्ययन के पारंपरिक तरीके में थे कि वह अपने parents- Sahityacharya पीटी से संस्कृत सीखा। ब्रह्मानंद शुक्ला और श्रीमती। प्रियंवदा शुक्ला और साहित्य आचार्य और सांख्य योग आचार्य डिग्री पारित कर दिया। बाद में, वह शामिल हो गए आगरा विश्वविद्यालय और में एमए पारित कर हिन्दी में एक स्वर्ण पदक और बाद में पारित कर दिया एमए के साथ संस्कृत Sampurnananda संस्कृत विश्वविद्यालय से। वह भी अपनी पीएचडी की विषय था 'साल 1967 में एक पीएचडी सुरक्षित Jainacharya Ravishena- केरिता Padmapurana (संस्कृत) एवं Tulasidas केरिता Ramacharitmanas Ka tulanatmak adhayayan। 
डॉ शुक्ला एक हिंदी प्राध्यापक के रूप में 1962 में मोदी नगर में Multanimal मोदी पीजी कॉलेज में शामिल होने से अपना कैरियर शुरू किया। अपनी पीएचडी प्राप्त करने के बाद, वह शामिल हो गए [[राजधानी कॉलेज] दिल्ली विश्वविद्यालय], नई दिल्ली 1 अगस्त को एक हिंदी संकाय सदस्य, 1986 में 1967, वह हिंदी विभाग के रीडर के रूप में नियुक्त किया गया था और में, उनकी सेवानिवृत्ति तक वहां काम करने के रूप में 2005 
डॉ रमा कान्त शुक्ला कई सेमिनारों और सम्मेलनों में भाग लिया है  सहित विश्व संस्कृत सम्मेलन उन्होंने कहा कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र और कविता और संस्कृत साहित्य पर अखिल भारतीय ओरिएंटल सम्मेलन की अध्यक्षता में आयोजित किया गया है और संस्थापक के मुख्य संपादक है Arvacheena-Sanskritam, Devavani परिषद, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित एक त्रैमासिक पत्रिका वह की स्थापना की है एक संगठन है।  उन्होंने यह भी में भाग लिया है ऑल इंडिया रेडियो Sarvabhasha कवि सम्मेलन संस्कृत भाषा का प्रतिनिधित्व। 

पुस्तकें 

डॉ शुक्ला संस्कृत और हिंदी में कई पुस्तकें लिखी है, उन्होंने यह भी लिखा है और एक संस्कृत टेलीविजन श्रृंखला का निर्देश दिया है, भाटी मेरे Bharatam, द्वारा प्रसारितदूरदर्शन 
डॉ शुक्ला राष्ट्रीय संस्कृत संस्कृत संस्थान में शास्त्र Chudamani Vidwan रूप में अपने कर्तव्यों के लिए भाग लेने नई दिल्ली में रहती है। [3]

पुरस्कार और सम्मान

डॉ रमा कान्त शुक्ला संस्कृत Rashtrakavi, Kaviratna, कवि Siromani और हिन्दी संस्कृत सेतु विभिन्न साहित्यिक संगठनों द्वारा खिताब की एक प्राप्तकर्ता है।  उन्होंने भी इस तरह के रूप में खिताब से सम्मानित किया गया कालिदास सम्मान , संस्कृत साहित्य सेवा सम्मान और संस्कृत Rashtrakavi। 
वह भी दिल्ली संस्कृत अकादमी की ओर से अखिल भारतीय Maulika संस्कृत रचना Puraskara प्राप्त हुआ है, जबकि उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य पुरस्कार के साथ डॉ शुक्ला को सम्मानित किया गया है।  भारत के राष्ट्रपति 2009 में उसे संस्कृत विद्वान पुरस्कार से सम्मानित किय और भारत सरकार के नागरिक सम्मान पीएफ इसके बाद पद्मश्री , 2013 में,  उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृत Ptrakar संघ के संस्थापक अध्यक्ष हैं।