शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

आधुनिक भारत में भाषा की दुर्दशा

. वर्तमान समय हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं । हम पाश्चत्य सभ्यता और संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं । यह एक चिंतनीय विषय है । हम अँग्रेजी को एक भाषा के रूप में न पढ़कर एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ रहे हैं । देश के लिए इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी की हम अपनी भाषा का अपने ही घर में उपहास कर रहे हैं । लोग मानसिक  शान्ति के लिए भारतीय वेद का  अध्ययन करने देश -विदेश से चले आ रहे हैं और हम अपनी भाषा को उपेक्षित कर रहे हैं।  

sanskrit geet


डॉ. मनोरमा तिवारी के काव्य में संगीत कला

  आदि काल से ही भारतवर्ष विभिन्न कलाओं की उत्स भूमि रहा है। हमारे  देश में  विभिन्न प्रकार की कलाएँ और शास्त्र उपलब्ध होते रहे हैं। नृत्य, गीत, संगीत, स्थापत्य आदि जितनी भी कलाएं हैं, उन सभी का जन्म इसी धरती पर हुआ है। हीगेल ने अपने ग्रन्थ 'हिगेलियन क्लासिफिकेशन ऑफ फाइन आर्ट्स' में काव्य कला को सर्वश्रेष्ठ माना है।   उन शास्त्रों और कलाओं में  सङ्गीत विधा का अपना एक अलग ही महत्त्व है। नृत्य एक ऐसी कला है जिसमें सौन्दर्य और कला दोनों का समन्वय है।  मानव का सम्बन्ध संगीत से वैदिककाल से ही रहा है। वर्तमान में जो सङ्गीत  हम देख -सुन रहे हैं, उन सब का उद्भव और विकास वैदिककाल में ही हो चुका था। केवल मनुष्य ही नहीं समस्त जीव-जन्तु  इस महनीय कला के प्रति आकर्षित होते हैं। सामवेद गेय शैली में निबद्ध है। सामवेद के अनुसार गान चार  प्रकार के होते हैं- 1.ग्राम या गेयगान  2.अरण्य गेयगान 3. ऊहगान 4. उह्यगान। यज्ञ के अवसर पर उद्गाता के द्वारा मन्त्रों का सस्वर गान किया जाता था।  हमारे जो सोलह संस्कार हैं वे भी कहीं -न -कहीं जन्म से लेकर मृत्यु तक सङ्गीत से सम्बन्धित हैं। जो आर्षकाव्य,  पुराण आदि से होता हुआ वर्तमान स्वरूप में आ गया।

समकालीन संस्कृत विदुषियों में डॉ. मनोरमा तिवारी का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। डॉ.तिवारी उ.प्र. के लखनऊ जनपद में डी.ए.वी. कॉलेज में संस्कृत की विभागाध्यक्ष का पद अलंकृत कर चुकी हैं। 'संस्कृत गीत मालिका' आपके द्वारा प्रणीत संस्कृत गीतों की एक उत्कृष्ट रचना है। इस रचना का प्रकाशन  वर्ष 1981 में भारतीय संस्कृत संस्थान (महिला शाखा ) कैमरन रोड, लखनऊ से हुआ।